शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

जाति और धर्म की मूसलाधार जहरीली जड़ों में लिखी जा रही 'दुष्कर्म' की परिभाषा

मीडिया और सम्पूर्ण भारतीय समाज ने बिना जातीय प्रभाव के तीनों घटनाओं (दिल्ली, हैदराबाद और पालघर) की कड़ी आलोचना की लेकिन हाथरस की घटना में स्थितियां उलट गईं। अब यहां आरोपी सवर्ण और पीड़ित दलित है। अब उसी समाज के लोग, जो उपर्युक्त घटनाओं में तत्काल गोली मारने और फांसी देने की मांग सड़क से लेकर सोशल मीडिया पर कर रहे थे, इस घटना में न्यायिक जांच कराकर दोषियों को सजा की मांग कर रहे हैं। निश्चय ही जांच होकर ही दोषियों को सजा होनी चाहिए लेकिन क्या यहां इसलिए जांच होनी चाहिए कि आरोपी सवर्ण हैं और पीड़ित दलित? 

written by अच्छे लाल प्रजापति

त्तर प्रदेश के हाथरस जिले में बूलगढ़ी गांव निवासी दलित परिवार की लड़की गुड़िया (बदला हुआ नाम) के साथ कथित दुष्कर्म की घटना सुर्खियों में है। गत 14 सितम्बर को घटना घटित हुई। इसके बाद उसे थाने ले जाना, अलीगढ़ अस्पताल में भर्ती कराना, उपचार में विलम्ब होना, आठ दिन बाद लड़की का बयान दर्ज कराना, हालत बिगड़ने पर दिल्ली रेफर करना और दो दिन बाद 29 सितंबर को उसकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो जाना, परिवार के सदस्यों की अनुमति के बिना आधी रात को ही शव का अंतिम संस्कार कर देना कई सवाल खड़े करता है। फिर पुलिसकर्मियों द्वारा मीडियाकर्मियों, राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संगठनों के लोगों को बूलगढ़ी जाकर पीड़ित परिवार के सदस्यों से मिलने से रोकना भी जिला प्रशासन की मंशा को संदेह के घेरे में लाता है। आरोप-प्रत्यारोप के बारे में आपसे बहुत कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। हमारी चिन्ता इस बात को लेकर है कि जिस प्रकार से एक दलित महिला के साथ दुष्कर्म के मामले में जातीय सक्रियता उफान पर है, यह बहुत ही भयावह तस्वीर प्रस्तुत कर रही है।

स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद भी यदि जातीय समीकरण इतने भयावह हो सकते हैं तो उस समय की भयावहता का अंदाजा लगाने में हमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए, जब भारत में दलितों के लिए कोई संवैधानिक अधिकार नहीं थे। जिस प्रकार से सवर्ण समुदाय की गोलबंदी मुख्य धारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में देखी गयी यह प्रमाणित करता है कि कड़े संवैधानिक प्रावधान के बावजूद समाज में दलितों को कुचलने का प्रयास आज भी जारी है। जिन्हें लगता है कि आज समाज में जाति-पात और छुआ-छूत समाप्त हो गया है और दलितों की दयनीय दशा स्वयं उनके क्रिया-कलापों के कारण है तो उन्हें उन टीवी रिपोर्टरों की रिपोर्ट अवश्य देखनी चाहिए, जिसमें उन्होंने गांव के लोगों से यह राय जानने की कोशिश की है कि गांव में दलित और सवर्ण के मध्य दाना-पानी की क्या स्थितियां हैं? मुझे लगता है कि उनका वह भ्रम अवश्य ही टूट जाएगा।

हाथरस की घटना को देश ही नहीं, पूरा विश्व देख रहा है। यहां जाति और धर्म की मूसलाधार जहरीली जड़ें कितनी गहराई में हैं, इसे देश के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व भी महसूस कर रहा है। इसे और भी बेहतर समझने के लिए पीछे की कुछ घटनाओं और लोगों की प्रतिक्रियाओं को देखना और समझना होगा। आइए कुछ वर्ष पहले दिल्ली में घटित निर्भया काण्ड की घटना और लोगों की प्रतिक्रिया पर नजर दौड़ाते हैं। दिल्ली में चलती बस में कुछ दरिन्दों ने मिलकर एक लड़की निर्भया के साथ सामुहिक दुष्कर्म किया। उस घटना को अंजाम देने वालों में एक सवर्ण को छोड़कर सभी आरोपी निम्न वर्ग से थे। उस समय घटना को लेकर पूरा देश उबल गया। जगह-जगह विरोध-प्रदर्शन होने लगे। अपराधियों को फांसी पर लटकाने की मांग जोर पकड़ने लगी। सरकार का आदेश और पुलिस की सक्रियता से अपराधियों को बहुत ही कम समय में पकड़ लिया गया। मुकदमा चला और सभी आरोपियों को फांसी की सजा हुई। उन्हें फांसी दे दी भी गई। निर्भया को न्याय भी मिल गया।

एक घटना हैदराबाद में घटित हुई। वहां एक वेटनरी महिला चिकित्सक के साथ कुछ दरिन्दों ने दुष्कर्म कर लाश को जला दिया। इस घटना में एक भी सवर्ण नहीं थे। पूरा देश उबल गया। अगले ही दिन पुलिस सभी अपराधियों को पकड़ लिया। सम्पूर्ण देश में घटना की निन्दा होने लगी। पुलिस और सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। पूरे देश में पुलिस को आलोचना का सामना करना पड़ा। अगले ही दिन पुलिस बिना न्यायिक जांच के सभी आरोपियों का एन्काउन्टर यह कहकर कर दी कि न्यायालय ले जाते समय उन्होंने पुलिस की रिवाल्वर लेकर भागने की कोशिश की। इसके कारण उनका एनकाउन्टर करना पड़ा। समाज का एक बड़ा वर्ग इसे सही ठहराने में तल्लीन हो गया। देखते ही देखते पुलिस हीरो बन गई। लोगों ने पुलिस का स्वागत पुष्पवर्षा से की। अब सवाल यह है कि क्या पुलिस द्वारा बिना जांच के अपराधियों का एनकाउन्टर करना सही था?

महाराष्ट्र के पालघर में भी एक हृदय विदारक घटना घटित हुई। यह दुष्कर्म की घटना नहीं थी लेकिन इस घटना का जो वीडियो वायरल हुआ था, उसको देख किसी की भी रूह कांप सकती है। वहां आदिवासी समुदाय की एक भीड़ किसी रिश्तेदार के मरने पर शामिल होने जा रहे दो साधुओं को बेरहमी से पुलिस के सामने पीट-पीटकर मार देती है। इसको लेकर भी देश भर में आरोपियों को गोली मारने और फांसी की मांग होने लगी। हालांकि दोषियों को अभी भी सजा नहीं हो सकी।

उपर्युक्त तीन घटनाओं में आरोपी तथाकथित सवर्ण नहीं थे, लेकिन पीड़ित सवर्ण थे। मीडिया और सम्पूर्ण भारतीय समाज ने बिना जातीय प्रभाव के तीनों घटनाओं की कड़ी आलोचना की लेकिन हाथरस की घटना में स्थितियां उलट गईं। अब यहां आरोपी सवर्ण और पीड़ित दलित है। अब उसी समाज के लोग, जो उपर्युक्त घटनाओं में तत्काल गोली मारने और फांसी देने की मांग सड़क से लेकर सोशल मीडिया पर कर रहे थे, इस घटना में न्यायिक जांच कराकर दोषियों को सजा की मांग कर रहे हैं। निश्चय ही जांच होकर ही दोषियों को सजा होनी चाहिए लेकिन क्या यहां इसलिए जांच होनी चाहिए कि आरोपी सवर्ण हैं और पीड़ित दलित? यदि इस तरह की घृणित मानसिकता रखते हैं तो यह कहना गलत नहीं होगा कि आप न्यायिक चरित्र नहीं रखते।

किसी भी परिवार को सरकार की न्याय व्यवस्था पर संदेह उत्पन्न हो जाएगा जब उसकी अनुमति के बिना पीड़िता का अन्तिम संस्कार कर दिया जाय। अब तक किसी भी घटना में आरोपियों से कड़ी से कड़ी पूछताछ होती रही है लेकिन इस घटना में पीड़ित परिवार से ही पूछताछ हो रहा है जो संदेह पैदा करता है। मीडिया द्वारा बार-बार पूछे जाने पर कि क्या ऐसी मजबूरी थी कि आधी रात को अंतिम संस्कार पुलिस की देख-रेख में करनी पड़ी। सरकार का कोई भी अधिकारी जवाब देने की स्थिति मे नहीं था। अब कोर्ट द्वारा पूछे जाने पर सरकार का जवाब है कि दंगे की आशंका की वजह से ऐसा किया गया। यह जवाब तो पहले भी दिया जा सकता था। अधिकारी मीडिया के सवाल का जवाब देने से क्यों बचते रहे? दंगे की खबर पहले से ही सरकार और अधिकारियों को थी!

भाजपा के सवर्ण नेताओं की नसीहत और सवर्ण (ठाकुर) समाज के लोगों की धमकी भरा वीडियो मीडिया में तैर रहा है। क्या इसे सरकार नहीं देख रही है? क्या इससे सामाजिक सौहार्द नहीं बिगड़ रहा है? उत्तर प्रदेश में जातीय और धार्मिक भावना भाजपा की सरकार बनने के बाद ज्यादा उजागर हुई है! क्या इस दशा को सम्पूर्ण भारत की दशा के रूप में समझा जाए? अपने नेताओं और धमकी भरे वीडियो जारी करने वालों पर कोई कार्रवाई न कर चुप रहना, यह बताने के लिए पर्याप्त नहीं है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार और उसके सवर्ण नेता जातिवाद के पोषक हैं। वे कमजोर दलितों और पिछड़ों को कुचलने पर आमादा हैं? अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए सरकार प्रदेश में दंगा फैलाने की विदेशी साजिश का प्रोपागैंडा फैला जिस जातीय और धर्म के जहर को भारतीय समाज में बो रही है, वह इसे समूल नष्ट कर देगा। साथ ही भारतीय एकता, अखंडता और धर्मनिपेक्षता को खंडित करने के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेगा। देश को इसका दूरगामी परिणाम भुगतना पड़ सकता है।

(लेखक झारखंड के पलामू में शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। यह उनके निजी विचार हैं। इससे संपादक का सहमत होना जरूरी नहीं है।)

5 टिप्‍पणियां:

  1. यह एक विश्लेषित व आंख खोल देने वाला देख है।

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  2. बहुत गहराई से विचार करने वाला लेख ......👌👌👌👌

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  3. बहुत अच्छा लिखा है... धर्म और जाति दोनों सवर्णों के अत्याचार करने के हथियार है जिनके बल पर यह दमन को यथावत बनाये रखते हैं

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  4. बहुत अच्छा लिखा है... धर्म और जाति दोनों सवर्णों के अत्याचार करने के हथियार है जिनके बल पर यह दमन को यथावत बनाये रखते हैं

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Thank you for comment