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रविवार, 3 अगस्त 2014

आंकड़ों की गरीबी

सरकार के आंकड़े वास्तव में उन कागजी पुलिंदों की तरह हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना को शांत तो कर सकते हैं लेकिन गरीब परिवार को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा सकते...

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक सदस्यीय समिति ने देश में गरीबी के स्तर के तेंदुलकर समिति के आकलन को खारिज कर दिया है। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2011-12 में भारत की आबादी में गरीबों का अनुपात कहीं ज्यादा था। उस समय भारत में साढ़े उन्तीस फीसदी लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे यानी देश में हर दस में से तीन व्यक्ति गरीब हैं। 

योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह को सौंपी रिपोर्ट में समिति ने सिफारिश की है कि शहरों में प्रतिदिन सैंतालीस रुपये से कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब की श्रेणी में रखा जाना चाहिए जबकि तेंदुलकर समिति ने प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तैंतीस रुपये का पैमाना निर्धारित किया था। 

रंगराजन समिति के अनुमानों के अनुसार, 2009-10 में 38.2 फीसदी आबादी गरीब थी जो 2011-12 में घटकर 29.5 फीसदी पर आ गई। इसके उलट तेंदुलकर समिति ने कहा था कि 2009-10 में गरीबों की आबादी 29.8 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 21.9 फीसदी रह गई। योजना आयोग ने दो साल पहले रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था जिसे गरीबी के आकलन पर सुरेश तेंदुलकर समिति के तरीके की समीक्षा करनी थी।

उक्त आंकड़ों पर गौर करें तो दोनों समितियों के आंकड़े हास्यास्पद प्रतीत होते हैं। केंद्र की सत्ता में काबिज विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सरकारें समय-समय पर इन आंकड़ों की बाजीगरी के सहारे अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश करती नजर आती हैं। वे संविधान में प्रदत्त अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की जगह आंकड़ेबाजी में गरीबी का हल ढूढ़ते हैं और उसी के सहारे गरीबी के स्तर को ऊपर उठाकर विकसित देशों की कतार में खड़ा होना चाहते हैं। 

वे भूल जाते हैं कि देश की करीब आधी आबादी अभी भी ऐसी है जो शहरों की विभिन्न सड़कों पर उनकी पोल खोलती नजर आती है। कभी भिखारी के रूप में तो कभी कुपोषित रिक्शाचालक के रूप में। किसी के पास घर जाने के लिए पैसा नहीं है तो किसी के पास पेट की आग बुझाने के लिए रोटी। सरकार की नाकामियों में चार चांद लगाने के लिए लाखों बेजरोगारों की फौज हर दिन रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर मुस्तैद नजर आती है। सैंतालीस रुपये तो दूर उन्हें रेहड़ी पर मिलने वाली तीन रुपये की रोटी भी मयस्सर नहीं होती। 

हकीकत में कोई भी चार सदस्यीय परिवार सैंतालीस रुपये या तैंतीस रुपये में एक दिन का भोजन नहीं कर सकता। खुले बाजार में रसोई से जुड़े सामानों में हर दिन उछाल हो रहा है। छोटे से छोटे शहर में खाने की थाली पचास रुपये की दर को पार करने को आतुर है। इसके बावजूद गरीबी का सरकारी आंकड़ा पचास रुपये की सीमा पार नहीं कर रहा। 

सरकार के आंकड़े वास्तव में उन कागजी पुलिंदों की तरह हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना को शांत तो कर सकते हैं लेकिन गरीब परिवार को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा सकते। सरकार की ओर से पेश किए जाने वाले वर्तमान आंकड़ों और उसकी पद्धति से आम आदमी के हालात से कोई वास्ता नहीं है। 

सरकार को एक ऐसी पद्धति विकसित करने की जरूरत है जो एक गरीब परिवार की वास्तविक स्थिति का आकलन करे और उसी आंकड़े को जनता के सामने पेश करे। जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक गरीबी के आंकड़े वातानुकूलित कमरों में बहस की शोभा बढ़ाते रहेंगे और लोग सरकार को कोसते रहेंगे।