शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

JNU पर इसलिए हो रहा हमला


जेएनयू के 44 वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2013 -2014 में इसकी कुल विद्यार्थियों की संख्या 7677 में से 3648 विद्यार्थी वंचित समुदाय से थे। इनमें 1058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति और 1948 ओबीसी से थे। कुल मिलाकर लगभग आधे विद्यार्थी ऊंची जातियों से बाहर के थे। यह संख्या और बेहतर होती जा रही है...
संजीव चंदन
बात 2006 की गर्मी के दिनों की हैजब कांग्रेसी दिग्गज अर्जुन सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में उच्च शिक्षा में ओ बी सी के लिए आरक्षण लागू कर दिया था. देश भर में इस निर्णय के खिलाफ आंदोलन हो रहे थेअगुआई कर रहा था छात्र संगठनों के बीच तेजी से उभरा यूथ फॉर इक्वालिटी.जे एन यू में भी उसका असर दिखा. वहां भी भी समर्थन और विरोध की मुहीम तेज थी. तब मैं महाराष्ट्र के केन्द्रीय विश्वविद्यालय का छात्र था और उन दिनों जे एन यू में प्रवासी था. हम कई लोग अर्जुन सिंह के निर्णय के पक्ष में वहां सक्रिय थे. पंपलेटपोस्टर और बैठकें कर रहे थे,. उस समय सबसे विचित्र था यूथ फॉर इक्वालिटी के आन्दोलनों में ऊंची जाति की पृष्ठभूमि से आने वाले उन छात्र छात्राओं के देखन जो पारंपरिक तौर पर वाम छात्र संगठनों के सदस्य या समर्थक थे. तब एबीवीपी भी हाशिये पर थीउनका समर्थक वर्ग यूथ फॉर इक्वालिटी की और शिफ्ट कर गया था. और हुआ भी यह कि बाद के छात्र संघ चुनावों में इस नये उभरे छात्र संगठन ने उम्मीद से ज्यादा मत हासिल किये.

आरक्षण और फेलोशीप ने बदली तस्वीर

लेकिन तब से लगातार जे एन यू बदला है क्योंकि तब दूसरे विश्वविद्यालयों की तरह यहाँ भी दलित आदिवासी पिछड़े-पश्मान्दा विद्यार्थियों के हक में इतिहास ने करवट ले लिया था, जो और मजबूत और हस्तक्षेपकारी होती गई. इन्हीं दिनों एक और महत्वपूर्ण घटना घटी, उच्च शिक्षा के नियामक संस्थान, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, के अध्यक्ष के रूप में दलित अर्थशास्त्री सुखदेव थोराट की नियुक्ति. उन्होंने दलित विद्यार्थियों के लिए राजीव गांधी फेलोशिपकी शुरुआत की . इस पहल का आगे विस्तार मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए मौलाना आज़ाद फेलोशिप’, लडकियों के लिए फेलोशिप, ओ बी सी विद्यार्थियों के लिए फेलोशिपतथा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शोधरत सभी विद्यार्थियों के लिए फेलोशिप के रूप में होता गया. राजीव गांधी फेलोशिप सहित सारे शोध- छात्रवृत्तियों ने उच्च शिक्षा में ड्राप आउट’ ( बीच में पढाई छोड़ने ) की समस्या का स्थाई समाधान दे दिया. कैम्पस में सामाजिक रूप से वंचित उपेक्षित विद्यार्थियों के स्थाई होने और उनके सकारात्मक दवाब की शुरुआत की कहानी यहीं से शुरू होती है- विश्वविद्यालय कैम्पस बदल गये, बदलने लगे, जे एन यू कैम्पस भी. छात्र राजनीति में मुद्दों की केन्द्रीयता का स्वरूप बदला, शिक्षक राजनीति की दिशा बदली.

विद्यार्थियों की समाजिकी

जे एन यू के 44 वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2013 -2014 में इसकी कुल विद्यार्थियों की संख्या 7677 में से 3648 विद्यार्थी वंचित समुदाय से थे. (1058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति और 1948 ओ बी सी). कुल मिलाकर लगभग आधे विद्यार्थी ऊंची जातियों से बाहर के थे. यह संख्या और बेहतर होती जा रही है.

विद्यार्थियों की बदली सामाजिक पृष्ठभूमि का ही असर है कि वहां छात्र राजनीति भी बदल रही है. यूथ फॉर इक्वालिटी जैसे संगठनों का वजूद हाशिये पर है . जे एन यू छात्र संघ के अध्यक्ष और अन्य पदों पर वंचित समुदायों से आये छात्र काबिज हो रहे हैं.

फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक और जे एन यू में बहुजन साहित्य इतिहास पर पी एच. डी. कर रहे प्रमोद रंजन के अनुसार इस कारण से ही समता आधारित बहुजन विचारों का प्रभाव कैम्पसों में दिख रहा है फुले आम्बेडकर-सावित्री बिरसाजिंदावाद के नारों ने मार्क्स- लेनिन जिंदावाद के नारों का स्पेस कम किया है. और ऐसा वामपंथी छात्र संगठनों की अगुआई में भी हो रहा है. ’’

डा. आम्बेडकर से खौफ

इसका असर मुद्दों के बदलने में भी दिख रहा है. पिछले 6 -7 सालों से जे एन यू बीफ पोर्क फेस्टिवल मनाने या दुर्गा पूजा के विरोध और महिसासुर शहादत दिवस मनाने की घटनाओं के कारण सुर्खियों में रहा है. यही कारण है कि संघ परिवार इसे लेकर काफी आक्रामक रहा है.
जे एन यू के पूर्व छात्र कुमार सुंदरम के अनुसार जे एन यू में आम्बेडकर और मार्क्स को मानने वाले विद्यार्थी एक साथ आये हैं. संघियों की बेचैनी का कारण यही है. सरकार इसी कारण से घबराई हुई है.’ 

यह सच है कि हिंदुत्व की सीधी आलोचना के कारण और सत्ता में बैठी हिन्दुत्ववादी ताकतें डा. आम्बेडकर से ज्यादा घबराती हैं, और पोस्टरों से पटे जे एन यू की दिवालों पर पिछले कुछ वर्षों से फुले ( जोतिबा और सावित्रीबाई फुले) आम्बेडकर-बिरसा की तस्वीरों और विचारों से भरे पड़े हैं.

खुफिया रिपोर्ट

जे एन यू पर हुई पुलिसिया कार्रवाई और सरकारी संरक्षण में दक्षिणपंथी हमले का आख़िरी हस्र चाहे जो भी हो , लेकिन इसके साथ ही पुलिस के खुफिया विभाग द्वारा जारी रिपोर्ट से यह तो स्पष्ट ही है कि हिन्दुत्ववादी ताकतों का आख़िरी एजेंडा क्या है? रिपोर्ट में जे एन यू में मनाये जाने वाले ' महिषासुर दिवस' को माओवादी संगठनों की कार्रवाई के रूप में चिह्नित किया गया है. यह कोई पुलिसिया चूक नहीं है कि भूलवश इसे मूलतः मनाने वाले संगठन आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम की जगह डी एस यू से जोड़ा जा रहा है . बल्कि सत्ता में बैठी हिन्दुत्ववादी ताकतें देश भर में दलित -बहुजनों के अपने सांस्कृतिक संघर्ष के दमन का आधार बना रही हैं, जे एन यू इस संघर्ष का केंद्र है , क्योंकि यहाँ फुले आम्बेडकर बिरसा की विचारधारा प्रभावी और ऐत्तिहासिक पहलें ले रही है .


साभारः दैनिक जन उदय

झंडा का फंडाः कथित राष्ट्रवाद की दुकानदारी में हर साल खर्च होंगे 150 करोड़

दिल्ली स्थित गुमनाम वेंडर 'फास्ट ट्रैक इंजीनियरिंग' को टेंडर मिलने की संभावना। इसके मालिक की बीजेपी नेताओं से नजदीकियां होने की बात आ रही सामने।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

वाराणसी। कथित 'राष्ट्रवाद' की दुकानदारी में झंडे का फंडा भी खूब चल रहा है। सोशल प्लेटफॉर्म 'फेसबुक' पर मित्रों से मिली जानकारी की मानें तो केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति ईरानी के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में राष्ट्र ध्वज 'तिरंगा' लगवाने के निर्णय पर हर साल करीब 150 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। जबकि उनकी सरकार 'नान-नेट फेलोशिप' के तहत शोध करने वाले छात्रों पर हर साल आने वाले करीब 99.16 करोड़ रुपये के खर्च की योजना को चालू करने के लिए तैयार नहीं है।

जितेंद्र नारायण
भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत और बिहार के समस्तीपुर निवासी जितेंद्र नारायण ने फेसबुक पर स्टैटस अपडेट किया है कि मोदी सरकार देश के 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने में हर साल कुल 147.15 करोड़ रुपये खर्च करेगी। इन विश्वविद्यालयों में राष्ट्रध्वज फहराने के लिए आवश्यक झंडे और डंडे पर हर साल कुल 86 करोड़ रुपये खर्च आएगा जबकि उन्हें प्रकाशमान करने में हर साल कुल 61.15 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है। यहां यह बता दें कि इस समय देश में कुल 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। इस लिहाज से सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने का खर्च जितेंद्र नारायण के अनुमान से कहीं ज्यादा है। उन्होंने अपने स्टैटस में लिखा है कि केंद्र की मोदी सरकार 'नान-नेट फेलोशिप' के तहत शोध करने वाले छात्रों पर हर साल आने वाले करीब 99.16 करोड़ रुपये खर्च की योजना को चालू करने के लिए तैयार नहीं है।  

जितेंद्र नारायण के अनुमान और कथित राष्ट्रवादी फंडे (तिरंगा लगाने का धंधा) को और स्पष्ट करते हुए जेएनयू के पूर्व छात्र मयंक कुमार जायसवाल लिखते हैं कि आजकल 70 फीट से 207 फीट तक की ऊंचाई के तिरंगे फैशन में हैं। क़ीमत पचास लाख से लेकर डेढ़ करोड़ रुपये तक। इतनी ऊंचाई पर कपड़े का झंडा नहीं रुक सकता। सो, ढाई से पांच लाख रुपये का पैराशूट मैटेरियल का झंडा। इतने पर भी एक झंडे की उम्र तीन से लेकर पंद्रह दिन। अब चूंकि फ्लैग कोड कहता है कि ख़राब झंडा फहराना जुर्म है सो झंडे को औसतन पंद्रह दिन में बदला जाना ज़रूरी। यहां तक सब ठीक है। मगर मुद्दा ये है कि इतने सारे झंडे किसने लगाए और इनको मेंटेन कौन कर रहा है?

मयंक कुमार जायसवाल
मयंक इसकी विस्तृत पड़ताल करते हैं। उनकी यह पड़ताल उनके ही शब्दों में नीचे दी जा रही है-
दिल्ली का एक गुमनाम सा वैंडर है 'फास्ट ट्रैक इंजीनियरिंग'। एक जैन साहब इसके सर्वेसर्वा हैं। देश भर में ये फर्म क़रीब डेढ़ सौ झंडे लगा चुकी है। पहला झंडा कनॉट प्लेस में नवीन जिंदल की फ्लैग फाउंडेशन ने लगवाया। इसके बाद देश के तमान नगर निगम, राज्य सरकारें और निजी व्यवसायी इसे लगवा चुके हैं। ताज़ा फरमान विश्वविद्यालयों में लगवाने के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्री का है। इस से पहले बीजेपी सांसदों को बुलाकर फरमान सुनाया गया था कि वो सांसद निधि से ये झंडे लगवाएं सो एक मेरे संसदीय क्षेत्र अमरोहा में भी तन गया। कई प्राईवेट कॉलेजों पर भी ये झंडा लगवाने का दबाव है।

सरकारी धन से लग रहे झंडों पर तो लोग कुछ नहीं कहते मगर प्राईवेट वालों के लिए परेशानी है। इस तो सबको एक ही वैंडर से लगवाना है जो केंद्र सरकार का ख़ास है... उसके लिए मुंह मांगी क़ीमत भी दो और सालाना मेटिनेंस का क़रार भी करो। अगर हर पंद्रह दिन में झंडा ख़राब हो रहा है तो साल भर में सिर्फ झंडा बदलवाई ही साठ लाख रुपये है ऊपर से दो आदमियों की तनख़्वाह अलग। लगवाते वक्त एकमुश्त भुगतान तो वाजिब है ही।


नगर निगमों के पास अपने कर्मियों को तनख्वाह देने के पैसे नहीं हैं मगर सालाना का एक करोड़ का ख़र्च सरकार ने फिक्स करा दिया है। अब ये मत पूछना कि इस में कितना राष्ट्रवाद है और कितना व्यापार। बस पता कीजिए सज्जन जिंदल का सरकार से क्या रिश्ता है और उनकी पाईप बनाने की फैक्ट्री का इन झंडों से क्या लेना देना है? बाक़ी सांसद निधि, नगर निकायों के धन से आपका हो न हो छद्म राष्ट्रीयता और पूंजीवाद का विकास तो हो ही रहा है। सरकारें ऐसे ही चलती हैं। बाक़ी मेक्यावेली चचा काफी कुछ समझा गए हैं। तो ज़ोर से मेरे साथ नारा लगाइए...जय हिंद...जय राष्ट्रवाद...वंदे मातरम्...वंदे पूंजीवादी पितरमम्...।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

JNU: विश्वविद्यालयों से पहले संघ मुख्यालयों में तिरंगा लगवाए केंद्र सरकारः रिहाई मंच

'उमर खालिद को बतौर आतंकवादी प्रचारित करने की साजिश में संलिप्त हैं खुफिया एजेंसियां'

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। बेगुनाहों की रिहाई और जनमुद्दों पर बेबाक आवाज बुलंद करने वाले संगठन 'रिहाई मंच' ने कहा है कि भाजपा की अगुआई वाली केंद्र की राजग सरकार देश के विश्वविद्यालयों में तिरंगा लगाने से पहले संघ मुख्यलायों में तिरंगा लगवाये। साथ ही वह संघ परिवार के दफ्तर से सावरकर और गोलवरकर जैसे देशद्रोहियों की तस्वीर हटवाए जिन्होंने न केवल अंग्रेजों से माफी मांगी थी बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र भी रचा था। मंच ने आरोप लगाया गया है कि गोडसे ने गांधी जी की हत्या के प्रयासों में जिस तरह नकली दाढ़ी, टोपी और पठानी सूट पहनी थी, ठीक उसी तरह जेएनयू में एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाया। इसके सुबूत वीडियो के रूप में सोशल साइटों पर वायरल हो चुके हैं। इसके बावजूद पुलिस उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही। मंच ने यह भी मांग किया कि जेएनयू प्रकरण पर वामपंथियों की आलोचना करने वाले मंत्री किरन रिजुजू पहले 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाने वाले सावरकर के शिशुओं पर कार्रवाई करें। जेएनयू प्रकरण में मीडिया के एक हिस्से द्वारा शोधार्थी उमर खालिद को आतंकवाद से जोड़ने पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए मंच ने कहा कि खालिद के मुस्लिम होने के चलते उसके नाम पर अफवाहों को फैलाया जा रहा है। इसमें केन्द्र की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां संलिप्त हैं।

रिहाई मंच की ओर से जारी बयान में प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने कहा, पहले कहा गया कि जेएनयू के छात्र पाकिस्तान समर्थक और देशद्रोही हैं। अब कहा जा रहा है कि नक्सल समर्थक छात्र संगठन डीएसयू के नेताओं ने नारे लगाए। यह मोदी और संघ परिवार के खिलाफ उभरते राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन को भ्रम और अफवाह के जरिए साम्प्रदायिक रंग देकर तोड़ने की कोशिश है। जिस तरह से डीएसयू को इसके लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है वह संघी साजिश और मीडिया के वैचारिक दिवालिएपन का सुबूत है। वामपंथी संगठन अन्तर्राष्ट्रीयतावाद में विश्वास करते हैं। उनके लिए किसी देश का जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाना कोई एजेंडा नहीं होता। उन्होंने मांग की कि इस मुद्दे में जिन जेएनयू के छात्रों को फरार बताया जा रहा है उनकी सुरक्षा की गारंटी की जाए। इसके लिए देश का सर्वोच्च न्यायालय संज्ञान में लेकर उन छात्रों को इंसाफ देने की अपील करे जिससे देश निर्माण के प्रति संकल्पित वो छात्र जो संघी आतंकवाद के खौफ के चलते अपने परिवारों से दूर हो गए हैं वह वापस आ सके। मंच ने कहा है कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाला पूरा समाज इन छात्रों के परिवार के साथ खड़ा है।

शाहनवाज आलम ने कहा कि जिस तरह से उमर खालिद के पिता वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक-राजनीतिक कासिम रसूल इलियास का बयान आया कि सिर्फ मुस्लिम होने के नाते या फिर उनके पूर्व में सिमी से जुड़े होने के चलते उनके बेटे को इस घटना के लिए दोषी बताया जा रहा है वह इस लोकतांत्रिक देश में बहुत दुखद है। इस लोकतंत्र में एक व्यक्ति को जब यह कहना पड़ जाए के उसके मुस्लिम होने के चलते उसके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है तो इससे बद्तर कुछ नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि पोलिटिकल प्रिजनर्स कमेटी से जुड़े प्रो0 एसएआर गिलानी को जिस तरह से मीडिया देशद्रोही बता रहा है वह साबित करता है कि ऐसा खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के इशारे पर किया जा रहा है। क्योंकि उनका संगठन नक्सलवाद और आतंकवाद के नाम पर इन एजेंसियों द्वारा फंसाए जाने वाले बेगुनाहों को छुड़ा कर उनके मुंह पर तमाचा मारता रहता है। रिहाई मंच नेता ने कहा कि ऐसे ही संगठनों के प्रयासों से न्याय व्यवस्था की कुछ गरिमा बची हुई है। 

रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने कहा कि जेएनयू प्रकरण पर यूपी के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का यह कहना कि देश में न जाने किस-किस मुद्दे पर बहस चल रही है, संस्थान चर्चा में व्यस्त हैं और वो उत्तर प्रदेश के विकास पर केन्द्रित हैं यह गैर जिम्मेदाराना और बचकाना बयान है। ठीक यही भाषा मोदी की भी है जब गुजरात दंगों का सवाल उठता है तो वो विकास का भोंपू बजाने लगते हैं। उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद को तोड़ने आए संघीयों पर गोली चलवाने के लिए माफी मांगने वाले मुलायम सिंह को इस मसले पर अपनी राय रखनी चाहिए कि वे अफजल गुरू की फांसी को सही मानते हैं या गलत। 

उन्होंने कहा कि गृह राजमंत्री किरन रिजुजू जो कि जेएनयू प्रकरण के लिए वामपंथियों को दोषी ठहरा रहे हैं उन्हें अपने छात्र संगठन एबीवीपी के उन कार्यकर्ताओं जिन्होंने अपने ही संगठन की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए एबीवीपी से इस्तीफा दे दिया है, पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सपा सरकार ने अपने प्रयास से जिस तरह वयोवृद्ध खालिस्तानी नेता 70 वर्षीय बारियाम सिंह को रिहा किया वह स्वागतयोग्य है लेकिन सवाल उठता है कि आखिर आतंकवाद के नाम पर फंसाए गए मुस्लिम नौजवानों को सरकार क्यों जेलों में सड़ाने पर तुली है। जबकि उनको छोडने का वादा सपा ने अपने घोषणापत्र में किया था।

राजीव यादव ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर बस्सी जो पहले कन्हैया द्वारा देशद्रोही नारे लगाने के सबूतों के होने की बात कह रहे थे और अब किसी सुबूत के होने से ही इंनकार कर चुके हैं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि झूठे बयान देकर समाज में अराजकता फैलाने के आरोप में उनके खिलाफ कानूनी कार्रवई की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि बस्सी ने जिस तरह खुल कर संघ और भाजपा के गंुडों को बचाया है, वांछित आरोपी वकीलों को गिरफ्तार करने के बजाए उन्हें साम्प्रदायिक वकीलाकें के गिरोहों द्वारा सम्मानित किए जाने के खुला छोड़ दिया उससे पूरी पुलिस व्यवस्था ही अपमानित हुई है। 

रिहाई मंच कार्यकारिणी सदस्य अनिल यादव और लक्ष्मण प्रसाद ने कहा कि कोर्ट परिसर में जिस तरह से हमले हुए हैं वह दिल्ली पुलिस की सोची समझी साजिश का नतीजा है जिससे कि मुकदमों न लड़ा जा सके। उन्होंने बताया कि ठीक इसी तरह 2008 में आतंकवाद का मुकदमा लड़ने वाले रिहाई मंच अध्यक्ष एडवोकेट मुहम्मद शुएब व उनके मुवक्किलों पर लखनऊ कोर्ट परिसर में हमला किया गया और मुहम्मद शुऐब के कपड़े फाड़ अर्धनग्न अवस्था में चूना-कालिख पोत घुमाया गया और उल्टे उनके ऊपर ही पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाने का आरोप लगाया गया था। यह हमले लगातार हुए और शाहिद आजमी की भी इन्हीं खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों ने ऐसे मुकदमें लड़ने की वजह से हत्या करवा दी। उन्होंने कहा कि यह मुल्क के आईन को बचाने की लड़ाई हैं जिसे शहादत देकर भी लड़ा जाएगा।

(प्रेस विज्ञप्ति)

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

‘राष्ट्रवाद’ के पन्नों में देशद्रोह

इतिहास की किताबों में राष्ट्रवाद को लेकर अनंत व्याख्याएं हैं। अव्वल तो राष्ट्रवाद और देशभक्ति दोनों में ही मीलों का अंतर है। एक जटिल मसले का अगर हम बात-बात में राजनीतिक इस्तमाल करेंगे तो आप दर्शकों को राष्ट्रवादी होने से पहले इतिहास की दस बीस किताबें पढ़ लेनी चाहिए। राष्ट्रगान लिखने वाले टगौर ने राष्ट्रवाद को अजगर सापों की एकता नीति कहा था। इस तरह के उदाहरणों से भी हमारी समझ साफ नहीं होती है। मगर राष्ट्रवाद को उचक्कों की शरणस्थली भी कहा गया है और राष्ट्रवाद के लिए लोगों ने सर्वोच्च बलिदान भी दिये हैं...

रवीश कुमार

राष्ट्रवाद के साथ सबसे बड़ी खूबी यह है कि कोई भी बिना जाने इसे जानने का दावा कर सकता है। 19वीं सदी से पहले तो इसके बारे में कोई जानता ही नहीं था लेकिन पिछले 200 सालों में राष्ट्र और राष्ट्रवाद का स्वरूप उभरता चला गया। इन 200 सालों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद भी आया जब लाखों लोगों को गैस चैंबर में डाल कर मार दिया गया। हमारे ही देश में राष्ट्रवाद का नाम जपते जपते आपात काल भी आया और दुनिया के कई देशों में एकाधिकारवाद जिसे अंग्रेजी में टोटेलिटेरियन स्टेट कहते हैं। जिसमें आप वो नहीं करते जो राज्य और उसके मुखिया को पसंद नहीं।

सत्ता पर जिस पार्टी का कब्ज़ा होता है वो पुलिस के दम पर आपके नाक में दम कर देती है। मेरी राय में राजनीतिक दलों के पास राष्ट्रवाद की अंतिम परिभाषा नहीं होती है न होनी चाहिए। मैंने कहा कि राजनीतिक दलों के पास राष्ट्रवाद की अंतिम परिभाषा तब होती है जब उनका इरादा लोकतंत्र को खत्म कर देना होता है।

क्या कभी आपने देखा है कि राजनीतिक दल के कार्यकर्ता किसी नीति, घटना और घोटाले के वक्त अपने ही दल के खिलाफ नारे लगा रहे हों कि उनके लिए दल नहीं देश महत्वपूर्ण है। ऐसा होता तो बीजेपी से पहले कांग्रेस के कार्यकर्ता 2जी घोटाले के खिलाफ़ सड़कों पर आ गए होते। ऐसा होता तो बीजेपी के कार्यकर्ता, नेता व्यापम घोटाले पर पार्टी से इस्तीफा दे देते। देश जब 200 रुपये किलो दाल खा रहा था तो अपनी ही सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते। केरल में आरएसएस कार्यकर्ता पी.वी. सुजीत की हत्या कर दी गई। क्या आप उम्मीद करेंगे कि कांग्रेस, सीपीएम के नेता इस हत्या कांड के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे। क्या आप उम्मीद करेंगे कि बीजेपी के सभी नेता अपने ही नेता ओ.पी. शर्मा के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे। निंदा परनिंदा छोड़ दीजिए। इसलिए दलों की राजनीति दलों के हित के लिए होती है। हिंसा का इतिहास आपको हर राजनीतिक दल की सरकार में मिलेगा। आप हर घटना को राष्ट्रवाद के चश्मे से नहीं देख सकते। दंगे किस दल की सरकार में नहीं हुए और किस दल का नाम नहीं आया है, तो क्या आप उन्हें गद्दार या राष्ट्रविरोधी कहेंगे।

मैं यह नहीं कह रहा है कि राजनीतिक दल के लोग देशभक्त नहीं होते। बिल्कुल होते हैं। हर दल अपनी सोच के हिसाब से देश को सजाने संवारे की कल्पना करता है। लेकिन जब धर्म, नस्ल, रंग, भाषा और यहां तक कि टैक्स के नाम पर राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है तो उसका इरादा राष्ट्रवाद नहीं होता। उसका इरादा कुछ और होता है। राष्ट्रवाद के नाम पर अपना एकाधिकार काम करना। हर दलील को चुप करा देना। जहां दल और नेता की चलती है। बाकी सब उसके इशारे पर चलते हैं।

जेएनयू में भारत को तोड़ने और बर्बादी के नारे लगाने वालों की अभी तक पहचान क्यों नहीं हुई है। क्यों सूत्रों के हवाले से खबरें आ रही हैं। सभी ने इनका विरोध किया है। जेएनयू के तमाम छात्रों और शिक्षकों ने भी। उनका विरोध कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी को लेकर है जिसके खिलाफ अभी तक देशद्रोह के कोई सबूत नहीं मिले हैं। दिल्ली पुलिस कहती है कि अब अगर वो ज़मानत के लिए अप्लाई करेगा तो विरोध नहीं करेंगे। वो नौजवान है, उसे दूसरा मौका दिया जा सकता है। इस हृदय परिवर्तन से पहले गली गली में रैली कर जेएनयू को बदनाम किया गया कि वहां राष्ट्रविरोधी तत्व पढ़ते हैं। पटियाला हाउस कोर्ट में दूसरे दिन भी जो हुआ वो क्या है।

क्या कोई भीड़ हाथ में तिरंगा लेकर खड़ी हो जाएगी तो वो हमसे आपसे ज़्यादा देशभक्त हो जाएगी। क्या अब तिरंगा लेकर लोगों को डराया जाएगा और इंसाफ के हक से वंचित किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी के बाद भी दूसरे दिन कन्हैया कुमार के साथ मारपीट की कोशिश हुई। सुप्रीम कोर्ट ने जिन वकीलों को कोर्ट के भीतर जाने की अनुमति दी थी उन्होंने बताया कि गालियां दी गई हैं। भय का माहौल है। सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर सुनवाई रोक दी और कोर्ट रूम को खाली कराया। कन्हैया कुमार को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तीस हज़ारी कोर्ट के वकीलों ने कहा है कि पटियाला कोर्ट मामले में यदि किसी वकील को गिरफ्तार किया गया तो दिल्ली पुलिस का विरोध किया जाएगा। दिल्ली के तमाम बार संघ हड़ताल पर जाने का विचार कर रहे हैं। सुनवाई हुई नहीं, फैसला आया नहीं लेकिन चैनलों और वकीलों और संगठनों ने आतंकवादी घोषित कर दिया। अगर ऐसी ही भीड़ आपको उठा ले जाए और हाथ में तिरंगा लेकर घोषित कर दे कि आतंकवादी हैं और मार दे तो आप इंसाफ के लिए कहां जाएंगे।

इतिहास में यह सब हुआ है। राष्ट्रविरोधी बताकर राजनीतिक विरोधियों की हत्याएं हुई हैं। जर्मनी में साठ लाख यहूदियों को गैस की भट्टी में झोंक दिया गया। ये राष्ट्रवाद के अपने ख़तरे हैं। इन ख़तरों पर हमेशा बात होनी चाहिए तब तो और जब लोग राष्ट्रवाद की खूबियां बघारने में जुटे हों।

कोलकाता की जाधवपुर युनिवर्सिटी में भी कुछ छात्रों ने आज़ादी के नारे लगाए और अफज़ल गुरु का समर्थन किया। इन्हें रेडिकल ग्रुप का बताया जा रहा है। एक छात्र ने सफाई दी कि हमने अभिव्यक्ति की आज़ादी के संदर्भ में आज़ादी का नारा लगाया तो एक छात्रा ने कहा कि उसने कश्मीर की आज़ादी और अफज़ल गुरु के लिए नारे लगाए हैं। मेरे नारे राष्ट्रविरोधी कैसे हो सकते हैं क्योंकि बीजेपी ने तो पीडीपी से मिलकर सरकार बनाई है और पीडीपी के लिए अफज़ल गुरु शहीद है। कई छात्रों ने ऐसी सोच का विरोध किया है और तमाम संगठनों ने निंदा की है। जाधवपुर यूनिवर्सिटी के वीसी ने कहा है कि जिन लोगों ने नारे लगाए वो विश्वविद्यालय के छात्र नहीं थे, बाहर के असामाजिक तत्व थे। वाइस चांसलर ने कहा है कि असमाजिक तत्वों की हरकत की वजह से छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार को नहीं छीनना चाहिए।

कानून के पन्ने पर देशद्रोह की अलग समझ है और जनता के दिलो दिमाग में अलग। इतिहास की किताबों में राष्ट्रवाद को लेकर अनंत व्याख्याएं हैं। अव्वल तो राष्ट्रवाद और देशभक्ति दोनों में ही मीलों का अंतर है। एक जटिल मसले का अगर हम बात-बात में राजनीतिक इस्तमाल करेंगे तो आप दर्शकों को राष्ट्रवादी होने से पहले इतिहास की दस बीस किताबें पढ़ लेनी चाहिए। राष्ट्रगान लिखने वाले टगौर ने राष्ट्रवाद को अजगर सापों की एकता नीति कहा था। इस तरह के उदाहरणों से भी हमारी समझ साफ नहीं होती है। मगर राष्ट्रवाद को उचक्कों की शरणस्थली भी कहा गया है और राष्ट्रवाद के लिए लोगों ने सर्वोच्च बलिदान भी दिये हैं।

जेएनयू में प्रोफेसरों ने राष्ट्रवाद पर अगले एक हफ्ते तक सार्वजनिक क्लास लगाने का फैसला किया है। पांच बजे से ये क्लास लगेगी। बुधवार को प्रोफेसर गोपाल गुरु ने हज़ारों छात्रों के बीच पहली क्लास ली। टॉपिक था राष्ट्र क्या है। इसके बाद प्रोफेसर जी अरुणिमा, तनिका सरकार, निवेदिता मेनन, आयशा किदवई, अचिन विनायक का राष्ट्रवाद पर लेक्चर होगा। ये खूबी आपको सिर्फ जेएनयू में मिलेगी। मेरी तरफ से दो गुज़ारिश है। एक कि यह ओपन क्लास हो सके तो हिन्दी में भी हो और दूसरा इसमें आरएसएस से जुड़े प्रोफेसरों को भी राष्ट्रवाद पर लेक्चर देने के लिए बुलाया जाए।

राष्ट्रवाद 19वीं सदी की सबसे ताकतवर विचारधारा रही है जिसने हम इंसानों को हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया। एक राष्ट्र एक भाषा एक संस्कृति जैसी सोच ने तमाम तरह की विविधताओं को कुचल दिया तो कहीं इन विविधताओं ने इस विचारधारा के खिलाफ संघर्ष करते हुए खुद को बचाए भी रखा। कई लोग कहते हैं कि सियाचिन में जान देने वाले सैनिक को क्या यह छूट है कि वो अफजल गुरु के लिए नारे लगाए। लेकिन क्या इसी देश में जंतर मंतर पर वन रैंक वन पेंशन की मांग कर रहे सैनिकों के कुर्ते नहीं फाड़े गए। मेडल नहीं खींचे गए। सैनिकों की चिन्ता है तो जंतर मंतर पर सैनिक महीनों बाद भी क्यों बैठे हैं। क्या वे देशद्रोही हैं। कुछ ने कहा कि टैक्सपेयर के पैसे से जेएनयू क्यों चले। इस तरह की बेतुकी दलील देने वाले यह भी कहते हैं कि आईआईटी, एम्स और आईआईएम के छात्र टैक्स पेयर के पैसे पर पढ़ते हैं और देश सेवा छोड़ विदेश नौकरी करने चले जाते हैं। टैक्स राष्ट्रवाद ने क्यों नहीं आवाज़ उठाई कि बैंक और उद्योंगों के लाखों करोड़ रुपये के कर्ज क्यों माफ हो रहे हैं और गरीब किसानों के क्यों नहीं। ज़ाहिर है टैक्स राष्ट्रवाद की दलील ग़रीब विरोधी है।

इकोनोमिक टाइम्स में आज स्वामिनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर ने एक लेख लिखा है। लेख का उन्वान है कि राष्ट्रवाद विरोधी महज़ एक गाली है, एक मुक्त समाज में इसकी कोई जगह नहीं। उन्होंने एक मिसाल दी है। 1933 का साल था जब ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र संघ में इस बात पर बहस हुई कि यह सदन किसी भी परिस्थिति में राजा या देश के लिए नहीं लड़ेगा। प्रस्ताव पास हो गया और पूरे ब्रिटेन में खलबली मच गई। छात्रों की जमकर आलोचना हुई लेकिन किसी को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार नहीं किया गया। स्कॉटिश नेशनल पार्टी ब्रिटेन से अलग होना चाहती है। अपना स्काटिश राष्ट्र बनाना चाहती है तो क्या उनके नेताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाए। ऐसा तो हुआ नहीं। अय्यर ने इस तरह के कई उदाहरण दिये हैं।

दुनिया के नक्शे में राष्ट्र के बनने की प्रक्रिया अभी भी मुकम्मल नहीं हुई है। कहीं राष्ट्र तबाह हो रहे हैं तो कहीं बिखर भी रहे हैं। हर साल कहीं नया झंडा बनता है तो कहीं पुराना गायब हो जा रहा है। जेएनयू की घटना के बाद बीजेपी और संघ इस बात को लोगों को तक पहुंचाने में सफल रहे कि राष्ट्रविरोधी नारों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जो भारत को तोड़ने की बात करेगा उसे गोली मार देने की बात तक कही गई। कानून अदालत का कोई लिहाज़ नहीं। राष्ट्रवाद कानून हाथ में लेने का लाइसेंस नहीं है। असम में ही बोडो अलग राज्य की मांग करते रहे हैं लेकिन उनके एक गुट के साथ कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इसी देश में अगल खालिस्तान की मांग को लेकर ख़ून खराबा हो चुका है। क्या राम जेठमलानी ने इंदिरा गांधी की हत्या से जुड़े लोगों का मुकदमा नहीं लड़ा था। क्या जेठमलानी को बीजेपी ने राज्य सभा का सदस्य नहीं बनाया। पार्टी में शामिल नहीं किया। पीडीपी की अफज़ल गुरु के बारे में क्या राय है कौन नहीं जानता। उनके साथ किसने सरकार बनाई कौन नहीं जानता।

दिक्कत ये है कि जब इतिहास पढ़ने की बारी आती है तो आप और हम इतिहास का मज़ाक उड़ाते हैं। फिर जब राजनीति करनी होती है तो इतिहास की अनाप शनाप व्याख्याएं करने लगते हैं। मौजूदा समय में राष्ट्रवाद का राजनीतिक इस्तेमाल राष्ट्रवाद की कोई नई समझ पैदा कर रहा है या जो पहले कई बार हो चुका है उसी का बेतुका संस्करण है। यह ख़तरनाक प्रवृत्ति है या लोग ऐसे ख़तरों से निपटने में सक्षम हैं।

साभारः एनडीटीवी.कॉम

आज़म खान स्टिंगः विधानसभा समिति ने नौ टीवी पत्रकारों को पाया दोषी

विधानसभा में समिति की रपट पेश

वनांचल न्यूज नेटवर्क


लखनऊः उत्तर प्रदेश विधानसभा समिति ने सितंबर 2003 के मुजफ्फरनगर दंगों पर किये गए स्टिंग ऑपरेशन में एक राष्ट्रीय टीवी न्यूज चैनल के नौ पत्रकारों को दोषी पाया है। यह अधिवक्ता सतीश कुमार निगम की अध्यक्षता वाली विधानसभा समिति की रपट में सामने आया है। रपट मंगलवार को उत्तर प्रदेश विधानसभा में रखी गई।