गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

अंबेडकर जयंती पर भाकपा (माले) ने किया मनु स्मृति के प्रतीक का दहन

वाराणसी में मनु स्मृति के प्रतीक को जलाते हुए भाकपा (माले) और आइसा के कार्यकर्ता।
वनांचल न्यूज नेटवर्क


वाराणसी। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती की पूर्व संध्या के मौके पर भाकपा (माले) और उसके छात्र संगठन आइसा का कार्यकर्ताओं ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था की कुरीतियों को मजबूती प्रदान करने वाली बहुचर्चित किताब मनुस्मृति की प्रतीक प्रति का दहन किया। इस दौरान वक्ताओं ने कहा कि केंद्र की मोदी सरकार संविधान को दरकिनार कर छात्रों का दमन कर रही है। साथ ही वह ऐसी नीतियों को लागू कर रही है जो आम जनता के हित में नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार बाबा भीमराव अंबेडकर की अगुआई में लिखित एवं लागू किये गए भारतीय संविधान को दरकिनार कर ब्राह्मणवाद की पोषक किताब मनुस्मृति में उल्लेखित कुरीतियों को लागू करना चाहती है जिसे मंजूर नहीं किया जाएगा। इस दौरान भाकपा (माले) के मनीष शर्मा, सरिता पटेल समेत दर्जनों कार्यकर्ता मौजूद रहे। 

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

सीवर में हो रही मौतों को रोकने के लिए प्रधानमंत्री को अल्टीमेटम


भीम यात्रा ने पूरा किया ऐतिहासिक सफर। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के एक दिन पूर्व देश की राजधानी में गूंजा देश देशभर के सीवर में हो रही मौतों का मुद्दा। मैला प्रथा के खात्मे को लेकर जंतर-मंतर पर हुआ प्रदर्शन।

By मुकुल सरल

नई दिल्ली। देश के विभिन्न सीवरों में हर दिन हो रही मौतों को तुरंत रोकने और देश भर से मैला प्रथा के खात्मे के लिए प्रधानमंत्री को एक महीने का अल्टीमेटम देकर सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) की भीम यात्रा ने आज एक ऐतिहासिक चरण पूरा किया। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में 125 दिन की राष्ट्रीय बस यात्रा के जरिये एसकेए ने सीधे-सीधे सीवर-सेप्टिक टैंक में हो रही मौतों को राजनीतिक हत्याएं कहा और तीखा सवाल पूछा-हमारा हत्यारा कौन है? देश के कोने-कोने से आए सफाई कर्मचारी आंदोलन के हजारों कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को आगामी राष्ट्रीय राजनीति के एक निर्णायक मुद्दे के तौर पर पेश किया और ऐलान किया कि इस समस्या का हल किए बिना सभी सरकारें सिर्फ बाबा साहेब के नाम पर ढोंग कर रही हैं। बाबा साहेब की 125वी जयंती के उपलक्ष्य में एसकेए ने देश भर से 125 उन परिवारों के दुख को देश से साझा किया, जिनकी मौतें सीवर-सेपिटक टैंक में हुई थीं।

आज जंतर-मंतर पर हुए इस कार्यक्रम की शुरुआत ही उन महिलाओं और पुरुषों की वेदना से हुई, जिनके परिजनों ने सीवर-सेपिटक में जान गंवाई थी। चाहे वह बिहार के सहरसा इलाके की सुनी देवी का दुख हो या कर्नाटक की लक्ष्मी अमावस्य या चंढीगढ़ की संतोष या लखनऊ की सुनैना या बनारस की पिंकी और इनके साथ आई 125 महिलाएं और पुरुष सब अपने परिजनों को गटर में खोने का दुख सुनाने और इस दुख को इन हत्याओं को रोकने की शक्ति में बदलने के इरादे से आज आए थे।

बड़ी संख्या में सिविल सोसाएटी, प्रबुद्ध नागरिक, छात्र, न्यायविद्, अकादमिक आज भीम यात्रा के समर्थन में आए थे। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व जज एपी शाह ने भी आकर अपना समर्थन जताया और कहा कि जब तक इस प्रथा का खात्मा नहीं होता, लोकतंत्र और बराबरी की लड़ाई अधूरी है। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार पी.साईनाथ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर कटाक्ष करते हुए कहा कि माल्या जैसे लोगों को गरीब जनता के लाखों-करोड़ रुपये लेकर भाग जाने देते हैं लेकिन सफाई कर्मचारियों के जीवन को सुधारने, मैला प्रथा को खत्म करने और सीवर-सेप्टिक की सफाई को आधुनिक करने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं है।

एसकेए के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन ने ऐलान किया कि ये मौतें राजनीतिक हत्याएं हैं और इन्हें अब समाज बर्दाश्त नहीं करेगा। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की सच्ची विरासत यही है कि इस बर्बर प्रथा के खात्मे के लिए काम किया जाए। आज केंद्र सरकार बाबा साहेब को उनकी असली विचारधारा से काटकर उन पर कब्जा करने की कोशिश कर रही है, जो बेहद खतरनाक है।
वरिष्ठ दलित लेखक आनंद तेलतुंडे ने भीम यात्रा को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि यह नई किस्म की राजनीति गढ़ रही है, जो सीधे ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दे रही है। भाकपा के सांसद डी.राजा ने बताया कि किस तरह से सफाई कर्मचारी आंदोलन ने सफलतापूर्वक मैला प्रथा की समाप्ति और सीवर-सेप्टिक टैंक में मौतों को राष्ट्रीय एजेंडा बनाया।

दिल्ली सरकार में परिवहन मंत्री गोपाल राय ने भी यह आश्वासन दिया कि वह दिल्ली को मैला प्रथा मुक्त करने और सीवर मौतों को रोकने के लिए काम करेंगे। एमकेएसएस की अरुणा राय ने कहा कि समाज को बदलने का काम भीम यात्रा शुरू कर चुकी है और इसे आगे बढ़ाना हम सबकी जिम्मेदारी है।


इस मौके पर बड़ी संख्या में सिविल सोसोएटी के लोग आए और उन्होंने इस मुद्दे के साथ मिलकर आगे लड़ने की घोषणा की। इनमें एमनेस्टी इंटरनेशनल के आकार पटेल, एशिया दलित राइट्स के पॉल दिवाकर, विमल थोरात, कमला भसीन, वृंदा ग्रोवर, हर्ष मंदर, उषा रमानाथन, इंदु प्रकाश, अपराजिता राजा, नीलाभ मिश्रा, पत्रकार भाषा सिंह, संजीव चंदन, पंकज बिष्ट, मैत्रेयी पुष्पा, अनुराधा, अजय सिंह, राजकुमार, वेद प्रकाश, नौरती बाई आदि ने संबोधित किया।

आपकी बेरुख़ी तोड़ देगी पत्रकारों का दिल

लोकतंत्र में जागरूक नागरिक बनना एक मुश्किल काम है। आई आई टी के लिए तैयारी करने से भी ज़्यादा अध्ययन की ज़रूरत पड़ती है। जलेबी का रस और समोसे का तेल सोखने के काम आने वाले अख़बारो को पढ़ने से कोई फायदा नहीं। आपको देखना चाहिए कि उन अख़बारों में ऐसी पत्रकारिता के लिए कोई जगह भी है या कभी आपने इस तरह की खोजी पत्रकारिता देखी भी है, जिसमें दुनिया भर कई सैंकड़ों पत्रकार दिन रात लगे हों। मुल्क की सीमाएँ और संगठन की दीवारें ध्वस्त हो गईं हों...


क्या आप बिल्कुल ही पनामा पेपर्स से उजागर हो रहे कारनामों को समझ नहीं पा रहे हैं? अंग्रेजी दैनिक अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों एक ही विषय पर लंबी लंबी कई रपटें प्रकाशित कीं। यह भी हो सकता है कि वक्त की कमी के कारण आप पनामा पेपर्स को समय नहीं दे पा रहे हों। दुनिया के कई देशों के अख़बारों में उनके यहां के कारनामों के बारे में इसी तरह रिपोर्ट छप रही है। पनामा पेपर्स को अब तक सबसे बड़ा (लीक्स) खुलासा बताया गया है। हालांकि ख़ुलासा सही शब्द नहीं है क्योंकि खुलासा का मतलब होता है ज़रा सा बताना लेकिन हिन्दी मीडिया के चलन में ख़ुलासा ठीक उल्टा मतलब के लिए इस्तमाल होने लगा है यानी सब कुछ बता देना।

कई बार ऐसे जटिल आर्थिक विषयों के प्रति उदासी समझ आती है। मैं ख़ुद अपनी अयोग्यता और अकुशलता के कारण ऐसे तमाम विषयों में हाथ डालने से बचता हूं लेकिन इस बार थोड़ा-थोड़ा करने समझने का प्रयास किया कि मामला क्या है। एक आम पाठक को क्यों इसमें दिलचस्पी लेनी चाहिए और इसके बारे में बात करनी चाहिए। हमारे उद्योगपति निवेश के नाम पर पैसे का किस तरह इस्तमाल करते हैं, कहां से पैसा लाते हैं और किस किस को मदद करते हैं, इन सबकी हमें मामूली जानकारी भी नहीं होती। सबकुछ कानून और रसूख की बंद दीवारों के भीतर होता है । भावावेश में आकर हम कई बार उन्हें या तो चोर कह देते हैं या कई बार कुछ कह पाने की स्थिति में ही नहीं होते। दोनों ही मामले में ख़ुद को जागरूक नागरिक समझने का भ्रम पालने वालों के लिए ये उदासी ख़तरनाक साबित हो सकती है।

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पनामा पेपर्स के खुलासे के दो दिन बाद कहा है कि टैक्स चोरी से बचने के ये तरीके दुनिया भर के लिए समस्या हैं। इनमें से बहुत से खाते और कंपनियां कानूनी हैं मगर समस्या तो यही है। ऐसा नहीं है कि इन लोगों ने कानून तोड़े हैं बल्कि समस्या ये है कि ऐसे कानून ही क्यों हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने कहा है कि कुछ खाते वैध भी हो सकते हैं लेकिन हम जांच करेंगे। भारत सरकार ने भी इसकी जांच के लिए कई एजेंसियों को जिम्मा सौंपा है। पाकिस्तान में भी इसकी न्यायिक जांच की घोषणा हो गई है। नार्वे से लेकर आस्ट्रेलिया तक में जांच होने लगी है।

मेरे ख़्याल से राष्ट्रपति ओबामा का बयान वैध अवैध की सीमा से आगे जाकर यह कह रहा है कि ऐसे नियम ही क्यों बने हैं। जहां लोग कानूनी तरीके से कागज़ी कंपनियां बनाते हैं, उनमें निदेशक बनते हैं, कई बार आम लोगों से भी शेयर के ज़रिये पैसा बटोरते हैं, कई बार दलाली से लेकर हथियार सौदे का पैसा लगाकर काले धन को कानूनी कर देते हैं। पनामा पेपर्स में जिन दो लाख से अधिक कंपनियों के नाम आए हैं। वो कंपनियां कानूनी तरीके से बनाई गईं होंगी मगर क्या उनमें लगे पैसे भी कानूनी रूप से ही कमाये गए होंगे। इसके लिए कंपनी बनाने और निवेश के नियमों की समझ ज़रूरी है मगर यह जानकारी न भी हो तो एक एंगल से मामले को आसानी से समझा जा सकता है।

पनामा पेपर्स के एक करोड़ से भी अधिक दस्तावेज़ कंपनी के चालीस साल के कारनामों के हिसाब हैं। यह दस्तावेज़ हैं मोज़ाक फोंसेका कंपनी के। यह कंपनी दुनिया भर के तमाम राष्ट्र प्रमुखों, नेताओं, कारोबारियों और मशहूर हस्तियों के पैसे का बंदोबस्त करने के लिए काग़ज़ी कंपनियां खुलवाती है और उनमें निवेश करवाती है। फोंसेका का दावा है कि वो यह काम कानूनी तरीके से करती है। फोंसेका अपने ग्राहकों के बारे में नहीं जानती क्योंकि ये ग्राहक उस तक मशहूर बैंकों के ज़रिये पहुंचते हैं। ऐसा भी पता चला है कि बड़े बैंक और फोंसेका मिलकर इधर-उधर का गेम खेलते हैं। ग्राहक अपना पैसा लेकर बैंक के पास पहुंचता है और बैंक उस पैसे को ठिकाने लगाने के लिए फोंसेका की मदद से कंपनी खुलवा देते हैं। बकायदा इसके प्रमाण हैं। पनामा पेपर्स से पहले ही ये पहलू साबित हो चुका है। अब हम प्रयास करेंगे कि मोज़ाक फोंसेका नाम की कंपनी के ज़रिये इस मामले के नैतिक और कानूनी पहलू को समझा जाए।

एक बार जब आप फोंसेका के ग्राहकों की वेरायटी जान लेंगे तब आपको पता चलेगा कि आतंक से लड़ने के नाम पर और बिजनेस बढ़ाने के नाम पर आपको कैसे उल्लू बनाया जा रहा है। यह सही हो सकता है कि फोंसका ने कई उद्योगपतियों के लिए कानूनी तरीके से कंपनियां खुलवाने में मदद की जहां वे निवेश कर सके या अपना पैसा रख सके। हम और आप भी टैक्स बचाते हैं लेकिन हम छिपा कर नहीं बचाते हैं। हम उसके लिए जीवन बीमा खरीदते हैं या मकान ख़रीदते हैं। क्या इन उद्योपतियों को कानून ने इजाज़त दी है कि वे अपना टैक्स बचाने के लिए पनामा में कंपनी खोल सकते हैं? कंपनी खोली भी तो क्या सबने अपने अपने देश में उनकी जानकारी दी? वेबसाइट पर बताया? अपने शेयरधारकों को बताया?

पनामा पेपर्स से पता चलता है कि मोज़ाक फोंसेका नाम की कानूनी सहायता प्रदान करने वाली कंपनी ने ऐसी कंपनी आतंकवादी संगठनों की मदद करने वाले, ड्रग माफिया से लेकर बैंक लुटेरों और यहां तक कि दाऊद इब्राहीम के पैसे को ठिकाने लगाने में मदद की। फोंसेका एक ऐसी दुकान है जहां एक कानून का पालन करने वाला अमीर उद्योगपति भी जाने का दावा करता है, जहां कोई आतंकवादी संगठन से जुड़ा हुआ अपना पैसा लेकर चला जाता है, ड्रग माफिया भी चला जाता है। फिर भी आप इतनी आसानी से मान ले रहे हैं कि इस खुलासे में तो कुछ भी नहीं हुआ। दुनिया भर के 370 पत्रकार बेकार में ही साल भर तक इन लाखों पन्नों को पलटते रहे और अपने अपने मुल्कों में छानबीन करते रहे।

सीरीया में युद्ध चल रहा है। इस युद्ध में कई देश शामिल हैं और सबने सीरीया पर प्रतिबंध लगाये हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि राष्ट्रपति असद ने अपने नागरिकों की हत्या करवाई है। अब जब प्रतिबंध लग गया है तो फिर फोंसेका सीरीया को तेल और गैस सप्लाई करने के लिए बेनामी कंपनी खुलवाने में कैसे मदद कर सकती है। इस सीरीया संकट से खतरनाक आतंकी संगठन आई एस आई एस का उभार हुआ है जिससे दुनिया तंग है। अब जब ये देश इतनी संजीदगी से आतंक के खिलाफ लड़ने का राष्ट्रीय प्रसारण करते हैं तो उन्हें ये बात कैसे पता नहीं चली कि कुछ लोग हैं जो कंपनी बनाकर सीरीया को तेल और गैस सप्लाई कर रहे हैं। ये तेल और गैस क्या एक आदमी के सपने से सीराया के राष्ट्रपति के सपने में ट्रांसफर हो जाते होंगे। जाते तो किसी रास्ते से ही होंगे न तो क्या वो भी नहीं दिखता है।  रूस के राष्ट्रपति ने भी पिछले साल आरोप लगाया था कि आतंकी संगठन के साथ कई देश कारोबार कर रहे हैं। ये खेल चल रहा है आतंक को लेकर। और इस खेल में आम आदमी कहीं हिन्दू मुस्लिम के एंगल से भिड़ा हुआ है तो कहीं इस्लामी आतंक के एंगल से। सीरीया की मददगार कोई एक कंपनी नहीं है बल्कि कई कंपनियों का नेटवर्क है।

और तो और इनमें से तीन कंपनियां ऐसी हैं जिन पर अमरीकी कानून के तहत प्रतिबंध भी लगा हुआ है। इन्हीं में से एक कंपनी के लिए मोज़ाक फोंसेका ने काम भी किया है। अमरीका के अपने रिकार्ड कहतेहैं कि 334 लोगों और कंपनियों के साथ मोज़ाक फोंसेका ने काम किया है। अमरीकी दस्तावेज़ों के मुताबिक पश्चिम एशिया में सक्रिय आतंकवादियों और युद्ध अपराधियों के संदिग्ध साहूकारों( फाइनेन्सर्स) के लिए काग़ज़ी कंपनी बनाकर मोज़ाक फोंसेका ने पैसे कमाए हैं।

हैं न कमाल का खेल ये। अगर कोई उद्योगपति या वकील सही तरीके से कंपनी खोलकर इंग्लैंड और जर्मनी में निवेश कर सकता है तो क्या आप या हम ये मान लें कि इन देशों में बिजनेस करने का एकमात्र रास्ता यही है कि आप पहले पनामा या ब्रिटिश वर्जीन आइलैंड जाकर काग़ज़ी कंपनी बनाए, इन कंपनियों में ऐसे निदेशक रखें जिनके नाम के आगे दिए गए पते पर पहाड़गंज या मुंबई के चाल में रहने वाले ग़रीब लोग रहते हो। ऐसा कैसे हो सकता है कि फोंसेका एक सही कारोबारी के लिए काम करती है और आतंकवादी के लिए भी। काग़ज़ पर कंपनी खुले और फिर बंद हो जाए, पैसा डाला जाए और निकाल कर कहीं और लगा दिया जाए इसमें कुछ ग़लत ही नहीं है। वाह रे दुनिया।

बुधवार के इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी है कि बाहर की एक कंपनी को भारतीय नोट छापने का ठेका चाहिए। कंपनी ने दिल्ली में रहने वाले किसी व्यक्ति को संपर्क किया कि आपको करोड़ों देंगे। इस व्यक्ति ने ठेके दिलवा दिये और उसे पैसे देने के लिए बाहर वाली कंपनी ने दिल्ली वाले सज्जन के लिए एक कंपनी बनवा दी। कंपनी बनाई फोंसेका ने और सज्जन जी को करोड़ों रुपये मिल गए। फिर भी हंगामा नहीं। एक नागरिक के तौर पर ऐसी उदासीनता इसलिए ठीक नहीं है कि नेता का नाम नहीं आया। क्या आप ठीक ठीक जानते हैं कि इस खेल में शामिल कंपनियां सभी प्रकार के दलों की आर्थिक मदद नहीं करती होंगी. ये उद्योगपति या कारोबारी इन नेताओं के फ्रंट नहीं होंगे।

लोकतंत्र में जागरूक नागरिक बनना एक मुश्किल काम है। आई आई टी के लिए तैयारी करने से भी ज़्यादा अध्ययन की ज़रूरत पड़ती है। जलेबी का रस और समोसे का तेल सोखने के काम आने वाले अख़बारो को पढ़ने से कोई फायदा नहीं। आपको देखना चाहिए कि उन अख़बारों में ऐसी पत्रकारिता के लिए कोई जगह भी है या कभी आपने इस तरह की खोजी पत्रकारिता देखी भी है, जिसमें दुनिया भर कई सैंकड़ों पत्रकार दिन रात लगे हों। मुल्क की सीमाएँ और संगठन की दीवारें ध्वस्त हो गईं हों।

यह सवाल पाठक के तौर पर आपको खुद से करना है कि ट्रैक्टर ट्राली के टक्कर की ख़बरें पढ़ने के लिए आप महीने का तीन सौ चार सौ रुपया क्यों देते हैं? ये अख़बार ट्रैक्टर ट्राली के टक्कर की ख़बरों में मारे गए लोगों से इंसाफ भी नहीं करते। बस किसी कोने में छाप देते हैं जिन्हें हम अपनी ज़ुबान में ख़बर लगाना कहते हैं। खासकर हिन्दी के अख़बारों में आपने ख़बरों के प्रकाशन की परंपरा देखी है ? न्यूज़ चैनलों में ऐसी परंपरा देखी है? नहीं देखी है तो उनसे पूछा क्यों नहीं है। इसीलिए पनामा पेपर्स से जो उजागर हो रहा है उसके साथ साथ एक पाठक के तौर पर भी आप भी उजागर हो रहे हैं। जिसे अंग्रेज़ी में एक्सपोज़ होना कहते हैं।  कहीं आप एक आलसी और लापरवाह पाठक तो नहीं हैं। अपनी बेरूख़ी से ये ज़ाहिर न करें कि मेहनत से की गई पत्रकारिता के कद्रदान आप नहीं हैं। पाठक कद्र नहीं करेंगे तो पत्रकारों का दिल टूट जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार  हैं। इन दिनों वह एनडीटीवी इंडिया में  सीनियर एक्ज़ेक्यूटिव एडिटर पद पर कार्यरत हैं। यह लेख उनके ब्लॉग 'कस्बा' से लेकर प्रकाशित किया जा रहा है ताकि आप भी उनकी नज़रों से अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' के 'पनामा पेपर लीक्स' के महत्व को समझ सकें।- संपादक)

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