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रविवार, 17 अगस्त 2014

सरसठ साल की आजादी और हम

राजनेता और जनप्रतिनिधि पूंजीघरानों के एजेंट के रूप में कार्य करते नजर आ रहे हैं। इस वजह से देश के विभिन्न इलाकों में एक भारत दूसरे भारत से जंग कर रहा है... 

written by Shiv Das Prajapati

जादी! रहने, खाने, पीने, घूमने, जीने, रोजगार करने और बोलने की आजादी! कुछ ऐसी ही आजादी की सोच हर देश के हर आम नागरिक की होती है। भारतीयों की भी है। हालांकि वे अपनी आजादी को लेकर अभी भी विभिन्न खेमों में बंटे हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जो भारत को अंग्रेजों की दासता से आजाद मानते हैं लेकिन नीतिगत मामलों में उसे आज भी गुलाम मानते हैं। 

विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था का दंभ भरने वाली भारतीय सरकारों की नीतियां लोकतांत्रिक न होकर पूंजीगत होती जा रही हैं। सरकार की जनहित नीतियों में पूंजीपतियों का दखल बढ़ता जा रहा है। इससे देश के विभिन्न इलाकों में आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हो रहा है। पीड़ितों और शोषितों की आवाज पूंजी घरानों और सामंती सोच के नौकरशाहों के आगे फीकी पड़ती जा रही है। 

राजनेता और जनप्रतिनिधि पूंजीघरानों के एजेंट के रूप में कार्य करते नजर आ रहे हैं। इस वजह से देश के विभिन्न इलाकों में एक भारत दूसरे भारत से जंग कर रहा है। अंग्रेजों के शासन से भारत को आजाद हुए सरसठ साल हो चुके हैं लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में आज भी आधे से ज्यादा आबादी भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों के लिए सत्ता से लोहा ले रही है। कभी दो वक्त की रोटी के लिए तो कभी खुद की हिफाजत के लिए। कभी इंसाफ के लिए तो कभी भारतीय लोकतंत्र की सड़ांध (भ्रष्टाचार) को जड़ से मिटाने के लिए। 

क्या स्वतंत्रता संग्राम के रणबांकुरों ने ऐसी ही आजादी की कल्पना की थी? संभवतः नहीं। उन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना की होगी जहां गांव की गलियों से लेकर महानगरों की चकाचौंध तक हर व्यक्ति खुद को आजाद महसूस कर सके। उसे दो वक्त की रोटी के लिए चोरी ना करना पड़े। इंसाफ के लिए उसे बंदूक उठाकर जंगलों में न भटकना पड़े। सांप्रदायिक कट्टरता का भय उसे अपना आशियाना छोड़ने को मजबूर ना करे। हलक की प्यास बुझाने के लिए खुद की जमीं और नदियों का पानी बीस रुपये लीटर ना खरीदना पड़े। और, एक भारत दूसरे भारत से संघर्ष करता ना दिखे। 

आजादी के बाद देश की कमान संभालने वाले राजनेताओं ने क्या उन रणबांकुरों के सपनों को साकार करने की कोशिश की? अगर हां तो फिर क्यों देश की आजादी के सरसठ साल बाद भी देश की चालीस फीसदी आबादी भूखमरी की कगार पर है? कहीं न कहीं देश की कमान संभालने वाले मौकापरस्त राजनेताओं ने अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में लापरवाही बरती है। उनकी इन लापरवाहियों के लिए हम आम नागरिक भी जिम्मेदार हैं क्योंकि समय-समय पर सत्ता की कमान हमने ही उनके हाथों में दिया।  

क्या स्वतंत्रता दिवस के इस अड़सठवें अवसर पर हम उनकी गलतियों का जिम्मा ले सकते हैं? अगर नहीं तो हमें देश की आजादी के इस त्यौहार को मनाने का कोई हक नहीं है। वास्तव में हमें उनकी लापरवाहियों का जिम्मा लेना होगा और उनसे सीख लेते हुए एक सच्चे लोकतांत्रिक देश के सपने को साकार करने के लिए खुद आगे आना पड़ेगा। इस ऐतिहासिक पर्व पर इसी संकल्प के साथ स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत मुबारकबाद!

रविवार, 3 अगस्त 2014

आंकड़ों की गरीबी

सरकार के आंकड़े वास्तव में उन कागजी पुलिंदों की तरह हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना को शांत तो कर सकते हैं लेकिन गरीब परिवार को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा सकते...

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक सदस्यीय समिति ने देश में गरीबी के स्तर के तेंदुलकर समिति के आकलन को खारिज कर दिया है। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2011-12 में भारत की आबादी में गरीबों का अनुपात कहीं ज्यादा था। उस समय भारत में साढ़े उन्तीस फीसदी लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे यानी देश में हर दस में से तीन व्यक्ति गरीब हैं। 

योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह को सौंपी रिपोर्ट में समिति ने सिफारिश की है कि शहरों में प्रतिदिन सैंतालीस रुपये से कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब की श्रेणी में रखा जाना चाहिए जबकि तेंदुलकर समिति ने प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तैंतीस रुपये का पैमाना निर्धारित किया था। 

रंगराजन समिति के अनुमानों के अनुसार, 2009-10 में 38.2 फीसदी आबादी गरीब थी जो 2011-12 में घटकर 29.5 फीसदी पर आ गई। इसके उलट तेंदुलकर समिति ने कहा था कि 2009-10 में गरीबों की आबादी 29.8 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 21.9 फीसदी रह गई। योजना आयोग ने दो साल पहले रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था जिसे गरीबी के आकलन पर सुरेश तेंदुलकर समिति के तरीके की समीक्षा करनी थी।

उक्त आंकड़ों पर गौर करें तो दोनों समितियों के आंकड़े हास्यास्पद प्रतीत होते हैं। केंद्र की सत्ता में काबिज विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सरकारें समय-समय पर इन आंकड़ों की बाजीगरी के सहारे अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश करती नजर आती हैं। वे संविधान में प्रदत्त अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की जगह आंकड़ेबाजी में गरीबी का हल ढूढ़ते हैं और उसी के सहारे गरीबी के स्तर को ऊपर उठाकर विकसित देशों की कतार में खड़ा होना चाहते हैं। 

वे भूल जाते हैं कि देश की करीब आधी आबादी अभी भी ऐसी है जो शहरों की विभिन्न सड़कों पर उनकी पोल खोलती नजर आती है। कभी भिखारी के रूप में तो कभी कुपोषित रिक्शाचालक के रूप में। किसी के पास घर जाने के लिए पैसा नहीं है तो किसी के पास पेट की आग बुझाने के लिए रोटी। सरकार की नाकामियों में चार चांद लगाने के लिए लाखों बेजरोगारों की फौज हर दिन रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर मुस्तैद नजर आती है। सैंतालीस रुपये तो दूर उन्हें रेहड़ी पर मिलने वाली तीन रुपये की रोटी भी मयस्सर नहीं होती। 

हकीकत में कोई भी चार सदस्यीय परिवार सैंतालीस रुपये या तैंतीस रुपये में एक दिन का भोजन नहीं कर सकता। खुले बाजार में रसोई से जुड़े सामानों में हर दिन उछाल हो रहा है। छोटे से छोटे शहर में खाने की थाली पचास रुपये की दर को पार करने को आतुर है। इसके बावजूद गरीबी का सरकारी आंकड़ा पचास रुपये की सीमा पार नहीं कर रहा। 

सरकार के आंकड़े वास्तव में उन कागजी पुलिंदों की तरह हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना को शांत तो कर सकते हैं लेकिन गरीब परिवार को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा सकते। सरकार की ओर से पेश किए जाने वाले वर्तमान आंकड़ों और उसकी पद्धति से आम आदमी के हालात से कोई वास्ता नहीं है। 

सरकार को एक ऐसी पद्धति विकसित करने की जरूरत है जो एक गरीब परिवार की वास्तविक स्थिति का आकलन करे और उसी आंकड़े को जनता के सामने पेश करे। जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक गरीबी के आंकड़े वातानुकूलित कमरों में बहस की शोभा बढ़ाते रहेंगे और लोग सरकार को कोसते रहेंगे।