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रविवार, 6 सितंबर 2020

जाति वर्चस्व पर 'शिक्षक दिवस' की कहानी में गुम सामाजिक बदलाव के असली गुरु

(भारत के दूसरे राष्ट्रपति और भारत रत्न डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस (5 सितंबर) के रूप में मनाये जाने को लेकर अब सवाल उठने लगे हैं। भारतीय समाज के एक हिस्से में स्त्रियों और वंचित समाज में शिक्षा की अलख जगाने वाली सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की आवाज उठने लगी है। वहीं कुछ लोग डॉ. राधाकृष्णन पर अपने शिष्य जदुनाथ सिन्हा की थीसिस को किताब के रूप में प्रकाशित करवाकर खुद उसका लेखक बनने का आरोप लगाते हैं और उनकी योग्यता पर सवाल खड़ा करते हैं। बहुत से लोग हैं जो डॉ. राधाकृष्णन के जन्मदिन के नाम पर मनाए जाने वाले शिक्षक दिवस को जाति वर्चस्व और उसकी मान्यता के चश्मे से देखते हैं। वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से दिए जाने वाले उत्कृष्ठ शिक्षक पुरस्कारों और उसके लिए चयनित शिक्षकों पर भी सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में शिक्षक दिवस और उसकी प्रासंगिकता पर केंद्रित यह लेख उस बहस को आगे बढ़ा सकता है।-संपादक)

written by अच्छेलाल प्रजापति

शिक्षक दिवस (5 सितंबर) पर बधाइयां लेते और देते वक्त गुरु के प्रति जो श्रद्धा भाव उभर कर आता है, वह एक बार मंथन करने को विवश करता है। वह कौन था, जिसने उन लोगों के लिए शिक्षा की जरूरत को महसूस किया और अपना सारा जीवन उसी के लिए समर्पित कर दिया,  जिन्हे भारतीय समाज ने शास्त्र सम्मत शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं दिया था। मेरी समझ से वही व्यक्ति सम्पूर्ण समाज का शिक्षक है। यह दिन उसी को समर्पित होना चाहिए। अगर ऐसे नामों में पर गौर करें तो मेरे जेहन में एक दंपति का नाम आता है। वे हैं ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

JNU पर इसलिए हो रहा हमला


जेएनयू के 44 वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2013 -2014 में इसकी कुल विद्यार्थियों की संख्या 7677 में से 3648 विद्यार्थी वंचित समुदाय से थे। इनमें 1058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति और 1948 ओबीसी से थे। कुल मिलाकर लगभग आधे विद्यार्थी ऊंची जातियों से बाहर के थे। यह संख्या और बेहतर होती जा रही है...
संजीव चंदन
बात 2006 की गर्मी के दिनों की हैजब कांग्रेसी दिग्गज अर्जुन सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में उच्च शिक्षा में ओ बी सी के लिए आरक्षण लागू कर दिया था. देश भर में इस निर्णय के खिलाफ आंदोलन हो रहे थेअगुआई कर रहा था छात्र संगठनों के बीच तेजी से उभरा यूथ फॉर इक्वालिटी.जे एन यू में भी उसका असर दिखा. वहां भी भी समर्थन और विरोध की मुहीम तेज थी. तब मैं महाराष्ट्र के केन्द्रीय विश्वविद्यालय का छात्र था और उन दिनों जे एन यू में प्रवासी था. हम कई लोग अर्जुन सिंह के निर्णय के पक्ष में वहां सक्रिय थे. पंपलेटपोस्टर और बैठकें कर रहे थे,. उस समय सबसे विचित्र था यूथ फॉर इक्वालिटी के आन्दोलनों में ऊंची जाति की पृष्ठभूमि से आने वाले उन छात्र छात्राओं के देखन जो पारंपरिक तौर पर वाम छात्र संगठनों के सदस्य या समर्थक थे. तब एबीवीपी भी हाशिये पर थीउनका समर्थक वर्ग यूथ फॉर इक्वालिटी की और शिफ्ट कर गया था. और हुआ भी यह कि बाद के छात्र संघ चुनावों में इस नये उभरे छात्र संगठन ने उम्मीद से ज्यादा मत हासिल किये.

आरक्षण और फेलोशीप ने बदली तस्वीर

लेकिन तब से लगातार जे एन यू बदला है क्योंकि तब दूसरे विश्वविद्यालयों की तरह यहाँ भी दलित आदिवासी पिछड़े-पश्मान्दा विद्यार्थियों के हक में इतिहास ने करवट ले लिया था, जो और मजबूत और हस्तक्षेपकारी होती गई. इन्हीं दिनों एक और महत्वपूर्ण घटना घटी, उच्च शिक्षा के नियामक संस्थान, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, के अध्यक्ष के रूप में दलित अर्थशास्त्री सुखदेव थोराट की नियुक्ति. उन्होंने दलित विद्यार्थियों के लिए राजीव गांधी फेलोशिपकी शुरुआत की . इस पहल का आगे विस्तार मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए मौलाना आज़ाद फेलोशिप’, लडकियों के लिए फेलोशिप, ओ बी सी विद्यार्थियों के लिए फेलोशिपतथा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शोधरत सभी विद्यार्थियों के लिए फेलोशिप के रूप में होता गया. राजीव गांधी फेलोशिप सहित सारे शोध- छात्रवृत्तियों ने उच्च शिक्षा में ड्राप आउट’ ( बीच में पढाई छोड़ने ) की समस्या का स्थाई समाधान दे दिया. कैम्पस में सामाजिक रूप से वंचित उपेक्षित विद्यार्थियों के स्थाई होने और उनके सकारात्मक दवाब की शुरुआत की कहानी यहीं से शुरू होती है- विश्वविद्यालय कैम्पस बदल गये, बदलने लगे, जे एन यू कैम्पस भी. छात्र राजनीति में मुद्दों की केन्द्रीयता का स्वरूप बदला, शिक्षक राजनीति की दिशा बदली.

विद्यार्थियों की समाजिकी

जे एन यू के 44 वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2013 -2014 में इसकी कुल विद्यार्थियों की संख्या 7677 में से 3648 विद्यार्थी वंचित समुदाय से थे. (1058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति और 1948 ओ बी सी). कुल मिलाकर लगभग आधे विद्यार्थी ऊंची जातियों से बाहर के थे. यह संख्या और बेहतर होती जा रही है.

विद्यार्थियों की बदली सामाजिक पृष्ठभूमि का ही असर है कि वहां छात्र राजनीति भी बदल रही है. यूथ फॉर इक्वालिटी जैसे संगठनों का वजूद हाशिये पर है . जे एन यू छात्र संघ के अध्यक्ष और अन्य पदों पर वंचित समुदायों से आये छात्र काबिज हो रहे हैं.

फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक और जे एन यू में बहुजन साहित्य इतिहास पर पी एच. डी. कर रहे प्रमोद रंजन के अनुसार इस कारण से ही समता आधारित बहुजन विचारों का प्रभाव कैम्पसों में दिख रहा है फुले आम्बेडकर-सावित्री बिरसाजिंदावाद के नारों ने मार्क्स- लेनिन जिंदावाद के नारों का स्पेस कम किया है. और ऐसा वामपंथी छात्र संगठनों की अगुआई में भी हो रहा है. ’’

डा. आम्बेडकर से खौफ

इसका असर मुद्दों के बदलने में भी दिख रहा है. पिछले 6 -7 सालों से जे एन यू बीफ पोर्क फेस्टिवल मनाने या दुर्गा पूजा के विरोध और महिसासुर शहादत दिवस मनाने की घटनाओं के कारण सुर्खियों में रहा है. यही कारण है कि संघ परिवार इसे लेकर काफी आक्रामक रहा है.
जे एन यू के पूर्व छात्र कुमार सुंदरम के अनुसार जे एन यू में आम्बेडकर और मार्क्स को मानने वाले विद्यार्थी एक साथ आये हैं. संघियों की बेचैनी का कारण यही है. सरकार इसी कारण से घबराई हुई है.’ 

यह सच है कि हिंदुत्व की सीधी आलोचना के कारण और सत्ता में बैठी हिन्दुत्ववादी ताकतें डा. आम्बेडकर से ज्यादा घबराती हैं, और पोस्टरों से पटे जे एन यू की दिवालों पर पिछले कुछ वर्षों से फुले ( जोतिबा और सावित्रीबाई फुले) आम्बेडकर-बिरसा की तस्वीरों और विचारों से भरे पड़े हैं.

खुफिया रिपोर्ट

जे एन यू पर हुई पुलिसिया कार्रवाई और सरकारी संरक्षण में दक्षिणपंथी हमले का आख़िरी हस्र चाहे जो भी हो , लेकिन इसके साथ ही पुलिस के खुफिया विभाग द्वारा जारी रिपोर्ट से यह तो स्पष्ट ही है कि हिन्दुत्ववादी ताकतों का आख़िरी एजेंडा क्या है? रिपोर्ट में जे एन यू में मनाये जाने वाले ' महिषासुर दिवस' को माओवादी संगठनों की कार्रवाई के रूप में चिह्नित किया गया है. यह कोई पुलिसिया चूक नहीं है कि भूलवश इसे मूलतः मनाने वाले संगठन आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम की जगह डी एस यू से जोड़ा जा रहा है . बल्कि सत्ता में बैठी हिन्दुत्ववादी ताकतें देश भर में दलित -बहुजनों के अपने सांस्कृतिक संघर्ष के दमन का आधार बना रही हैं, जे एन यू इस संघर्ष का केंद्र है , क्योंकि यहाँ फुले आम्बेडकर बिरसा की विचारधारा प्रभावी और ऐत्तिहासिक पहलें ले रही है .


साभारः दैनिक जन उदय