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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

JNU पर इसलिए हो रहा हमला


जेएनयू के 44 वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2013 -2014 में इसकी कुल विद्यार्थियों की संख्या 7677 में से 3648 विद्यार्थी वंचित समुदाय से थे। इनमें 1058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति और 1948 ओबीसी से थे। कुल मिलाकर लगभग आधे विद्यार्थी ऊंची जातियों से बाहर के थे। यह संख्या और बेहतर होती जा रही है...
संजीव चंदन
बात 2006 की गर्मी के दिनों की हैजब कांग्रेसी दिग्गज अर्जुन सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में उच्च शिक्षा में ओ बी सी के लिए आरक्षण लागू कर दिया था. देश भर में इस निर्णय के खिलाफ आंदोलन हो रहे थेअगुआई कर रहा था छात्र संगठनों के बीच तेजी से उभरा यूथ फॉर इक्वालिटी.जे एन यू में भी उसका असर दिखा. वहां भी भी समर्थन और विरोध की मुहीम तेज थी. तब मैं महाराष्ट्र के केन्द्रीय विश्वविद्यालय का छात्र था और उन दिनों जे एन यू में प्रवासी था. हम कई लोग अर्जुन सिंह के निर्णय के पक्ष में वहां सक्रिय थे. पंपलेटपोस्टर और बैठकें कर रहे थे,. उस समय सबसे विचित्र था यूथ फॉर इक्वालिटी के आन्दोलनों में ऊंची जाति की पृष्ठभूमि से आने वाले उन छात्र छात्राओं के देखन जो पारंपरिक तौर पर वाम छात्र संगठनों के सदस्य या समर्थक थे. तब एबीवीपी भी हाशिये पर थीउनका समर्थक वर्ग यूथ फॉर इक्वालिटी की और शिफ्ट कर गया था. और हुआ भी यह कि बाद के छात्र संघ चुनावों में इस नये उभरे छात्र संगठन ने उम्मीद से ज्यादा मत हासिल किये.

आरक्षण और फेलोशीप ने बदली तस्वीर

लेकिन तब से लगातार जे एन यू बदला है क्योंकि तब दूसरे विश्वविद्यालयों की तरह यहाँ भी दलित आदिवासी पिछड़े-पश्मान्दा विद्यार्थियों के हक में इतिहास ने करवट ले लिया था, जो और मजबूत और हस्तक्षेपकारी होती गई. इन्हीं दिनों एक और महत्वपूर्ण घटना घटी, उच्च शिक्षा के नियामक संस्थान, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, के अध्यक्ष के रूप में दलित अर्थशास्त्री सुखदेव थोराट की नियुक्ति. उन्होंने दलित विद्यार्थियों के लिए राजीव गांधी फेलोशिपकी शुरुआत की . इस पहल का आगे विस्तार मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए मौलाना आज़ाद फेलोशिप’, लडकियों के लिए फेलोशिप, ओ बी सी विद्यार्थियों के लिए फेलोशिपतथा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शोधरत सभी विद्यार्थियों के लिए फेलोशिप के रूप में होता गया. राजीव गांधी फेलोशिप सहित सारे शोध- छात्रवृत्तियों ने उच्च शिक्षा में ड्राप आउट’ ( बीच में पढाई छोड़ने ) की समस्या का स्थाई समाधान दे दिया. कैम्पस में सामाजिक रूप से वंचित उपेक्षित विद्यार्थियों के स्थाई होने और उनके सकारात्मक दवाब की शुरुआत की कहानी यहीं से शुरू होती है- विश्वविद्यालय कैम्पस बदल गये, बदलने लगे, जे एन यू कैम्पस भी. छात्र राजनीति में मुद्दों की केन्द्रीयता का स्वरूप बदला, शिक्षक राजनीति की दिशा बदली.

विद्यार्थियों की समाजिकी

जे एन यू के 44 वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2013 -2014 में इसकी कुल विद्यार्थियों की संख्या 7677 में से 3648 विद्यार्थी वंचित समुदाय से थे. (1058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति और 1948 ओ बी सी). कुल मिलाकर लगभग आधे विद्यार्थी ऊंची जातियों से बाहर के थे. यह संख्या और बेहतर होती जा रही है.

विद्यार्थियों की बदली सामाजिक पृष्ठभूमि का ही असर है कि वहां छात्र राजनीति भी बदल रही है. यूथ फॉर इक्वालिटी जैसे संगठनों का वजूद हाशिये पर है . जे एन यू छात्र संघ के अध्यक्ष और अन्य पदों पर वंचित समुदायों से आये छात्र काबिज हो रहे हैं.

फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक और जे एन यू में बहुजन साहित्य इतिहास पर पी एच. डी. कर रहे प्रमोद रंजन के अनुसार इस कारण से ही समता आधारित बहुजन विचारों का प्रभाव कैम्पसों में दिख रहा है फुले आम्बेडकर-सावित्री बिरसाजिंदावाद के नारों ने मार्क्स- लेनिन जिंदावाद के नारों का स्पेस कम किया है. और ऐसा वामपंथी छात्र संगठनों की अगुआई में भी हो रहा है. ’’

डा. आम्बेडकर से खौफ

इसका असर मुद्दों के बदलने में भी दिख रहा है. पिछले 6 -7 सालों से जे एन यू बीफ पोर्क फेस्टिवल मनाने या दुर्गा पूजा के विरोध और महिसासुर शहादत दिवस मनाने की घटनाओं के कारण सुर्खियों में रहा है. यही कारण है कि संघ परिवार इसे लेकर काफी आक्रामक रहा है.
जे एन यू के पूर्व छात्र कुमार सुंदरम के अनुसार जे एन यू में आम्बेडकर और मार्क्स को मानने वाले विद्यार्थी एक साथ आये हैं. संघियों की बेचैनी का कारण यही है. सरकार इसी कारण से घबराई हुई है.’ 

यह सच है कि हिंदुत्व की सीधी आलोचना के कारण और सत्ता में बैठी हिन्दुत्ववादी ताकतें डा. आम्बेडकर से ज्यादा घबराती हैं, और पोस्टरों से पटे जे एन यू की दिवालों पर पिछले कुछ वर्षों से फुले ( जोतिबा और सावित्रीबाई फुले) आम्बेडकर-बिरसा की तस्वीरों और विचारों से भरे पड़े हैं.

खुफिया रिपोर्ट

जे एन यू पर हुई पुलिसिया कार्रवाई और सरकारी संरक्षण में दक्षिणपंथी हमले का आख़िरी हस्र चाहे जो भी हो , लेकिन इसके साथ ही पुलिस के खुफिया विभाग द्वारा जारी रिपोर्ट से यह तो स्पष्ट ही है कि हिन्दुत्ववादी ताकतों का आख़िरी एजेंडा क्या है? रिपोर्ट में जे एन यू में मनाये जाने वाले ' महिषासुर दिवस' को माओवादी संगठनों की कार्रवाई के रूप में चिह्नित किया गया है. यह कोई पुलिसिया चूक नहीं है कि भूलवश इसे मूलतः मनाने वाले संगठन आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम की जगह डी एस यू से जोड़ा जा रहा है . बल्कि सत्ता में बैठी हिन्दुत्ववादी ताकतें देश भर में दलित -बहुजनों के अपने सांस्कृतिक संघर्ष के दमन का आधार बना रही हैं, जे एन यू इस संघर्ष का केंद्र है , क्योंकि यहाँ फुले आम्बेडकर बिरसा की विचारधारा प्रभावी और ऐत्तिहासिक पहलें ले रही है .


साभारः दैनिक जन उदय

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सत्ता का धंधाः दलित, आदिवासी, किसान और अल्पसंख्यक

2012 में 33,655 मामले दलित उत्पीड़न के थे तो 2015 में यह आंकड़ा 50 हजार पार कर गया। किसानों की खुदकुशी में भी तेजी आ गई। सिर्फ 2015 में ही हर दो घंटे एक किसान देश में खुदकुशी करने लगा। करीब साढे चार हजार किसानो ने खुद को इसलिये मार लिया कि जिन माध्यमों से उन्होंने पैसा लेकर खेती की, वह पैसा लौटाने की स्थिति में वह नहीं थे। और कर्ज बढता जाता। कर्ज लौटाने की धमकी को सहने की ताकत उनमें थी नहीं तो खुदकुशी कर ली। खुदकुशी करने वाले बारह सौ किसानो ने ग्रामीण बैक से कर्ज लिया था। यानी साहूकारी या दूसरे निजी माध्यम उनके बीच नहीं थे। बल्कि खुद सरकार ही थी। उसी का तंत्र था। वही तंत्र जो बैंकों के जरीये कारपोरेट और बडी कंपनियों को करीब तेरह लाख करोड़ दे चुका है और वह आजतक लौटाया नहीं गया...

पुण्य प्रसून वाजपेयी

लित, किसान और अल्पसंख्यक । तीनों वोट बैक की ताकत भी और तीनों हाशिये पर पड़ा तबका भी । आजादी के बाद से ऐसा कोई बजट नहीं । ऐसी कोई पंचवर्षीय योजना नहीं , जिसमें इन तीनो तबके को आर्थिक मदद ना दी गई हो और सरकारी पैकेज देते वक्त इन्हे मुख्यधारा में शामिल करने का जिक्र ना हुआ हो । नेहरु को भी आखिरी दिनों [ 1963-64 ] में किसानों के बीच राजनीतिक रैली के लिये जाना पड़ा और लालबहादुर शास्त्री ने तो जय जवान के साथ जयकिसान का नारा लगाया। पटेल से लेकर मौलाना कलाम तक मुस्लिमों को हिन्दुस्तान से जोड़ते हुये उन्हे उनके हक को पूरा करने का वादा करते रहे । आंबेडकर से लेकर वीपी सिंह तक दलितो के हक के सवालों को उठाते रहे । साधते रहे । तो मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी अगर किसान रैली की तैयारी कर रहे हैं और राहुल गांधी दलित अधिवेशन करना चाह रहे है तो कई सवाल एक साथ निकल सकते है । पहला , क्या देश को देखने का नजरिया अभी भी जाति , धर्म या किसान-मजदूर में बंटा हुआ है । दूसरा , राजनीतिक मलहम में ऐसी कौन सी खासियत है जो सियासत को राहत देती है लेकिन समाज को घायल करती है । तीसरा, अगर हिन्दू राष्ट्र की सोच तले मुसलमान खुद को असुरक्षित मानता है तो फिर बढती विकास दर के बीच भी किसानो की खुदकुशी अगर बढ़ती है । गरीबो के हालात और बदतर होती जाती है । तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठ पाता कि सांप्रदायिकता हो या अर्थ नीति दोनो में ही अगर नागरिकों की ही जान जा रही है तो फिर सवाल हिन्दू-मुस्लिम या गरीब-बीपीएल में क्यों उलझा दिया जाता है ।

यानी अपराध है क्या और देश के विकास के लिये कौन सा मंत्र अपनाने की जरुरत है । इस पर संविधान कुछ नहीं कहता या फिर राजनीतिक सत्ता पाने के तौर तरीको ने संविधान को भी हड़प लिया है ।  क्योंकि जिस रास्ते पर मौजूदा राजनीति चल रही है अगर इसके असर को ही देख लें तो दलित उत्पीड़न के मामले बीते तीन बरस में ही पचास फिसदी बढ़ गये । 2012 में 33,655 मामले दलित उत्पीडन के थे । तो 2015 में यह आंकडा 50 हजार पार कर गया । किसानों की खुदकुशी में भी तेजी आ गई । सिर्फ 2015 में ही हर दो घंटे एक किसान देश में खुदकुशी करने लगा । करीब साढे चार हजार किसानो ने खुद को इसलिये मार लिया क्योंकि जिन माध्यमों से उन्होंने पैसा लेकर खेती की । वह पैसा लौटाने की स्थिति में वह नहीं थे । और कर्ज बढता जाता । कर्ज लौटाने की धमकी को सहने की ताकत उनमें थी नहीं तो खुदकुशी कर ली । 

खुदकुशी करने वाले बारह सौ किसानो ने ग्रामीण बैक से कर्ज लिया था । यानी साहूकारी या दूसरे निजी माध्यम उनके बीच नहीं थे । बल्कि खुद सरकार ही थी । उसी का तंत्र था । वही तंत्र जो बैंकों के जरीये कारपोरेट और बडी कंपनियों को करीब तेरह लाख करोड़ दे चुका है और वह आजतक लौटाया नहीं गया । और एनपीए की यह रकम लगातार बढ़ ही रही है।  इससे हटकर सरकार ही औद्योगिक संस्थानों या कारपोरेट सेक्टर को हर बरस अलग अलग टैक्स में ही तीन लाख करोड़ माफ कर देती है । लेकिन खेती और उससे जुडे संस्थानो पर दो लाख करोड़ की सब्सिडी सरकार को भारी लगती है । इसी तर्ज पर अलग दलित और मुस्लिमों के आर्थिक-सामाजिक हालात को परख लें तो हैरत होगी कि सांप्रदायिक हिंसा में 70 फिसदी मौत अगर इस तबके की हुई तो देश में दरिद्रता की वजह से होती मौतों में दलित आदिवासी और मुस्लिमों की तादाद 90 फिसदी के पार है । तो अगला सवाल कोई भी कर सकता है कि क्या हिन्दुस्तान का मतलब सिर्फ वहीं 12 से 20 फीसदी है जिसकी जेब में जीने के सामान खरीदने की ताकत है । जिसके पास पढने के लिये पूंजी है ।

जिसके पास इलाज के लिये हेल्थ कार्ड है । कह सकते है हालात तो यही है । क्योंकि मौजूदा वक्त में किसी राज्य के पास किसानों के लिये कोई नीति नहीं है । दलित उत्पीड़न रोकने की कोई सोच नहीं । हिन्दू-मुस्लिमों के सवाल को साप्रदायिक हिंसा के दायरे से बाहर देखने का नजरिया नहीं है । क्योंकि सत्ता पाना और सत्ता में टिके रहने का हुनर ही अगर गवर्नेंस है तो हर की हालत एक सरीखी है । चाहे वह सरकार कर्नाटक में कांग्रेस की हो या फिर गुजरात झारखंड, महाराष्ट्र,हरियाणा , छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में बीजेपी की । या फिर आंधप्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू की या तेलगांना में केसीआर की । या फिर उडिसा में नवीन पटनायक की या यूपी में अखिलेश यादव । हर राज्य में सूखा है । आलम यह है कि देश के 676 जिले में ले 302 जिले सूखाग्रस्त है । और इनकी पहचान उस शाईनिग इंडिया की सोच से बिलकुल अलग है जो हर राज्य का सीएम राजधानी में बेठकर देखना चाहता है । बारिकी को समझे तो हर सीएम चकाचौंध खोजने के चक्कर में गांव और किसान को अंधेरे में ढकेल रहा है । यही वजह है कि न्यूनतम जरुरत पूरी करने के लिये बनाये गये कार्यक्रम मनरेगा और खाद्द सुरक्षा मौजूदा वक्त में इतना महत्वपूरण हो गया है कि सुप्रिम कोर्ट को भी कहना पड रही है कि इसे लागू क्यो नहीं किया गया । 

मुश्किल इतनी भर नहीं है कि 2013-14 में जो कृर्षि विकास दर 3.7 फिसदी थी । वह 2014-15 में घटकर 1.1 फिसदी हो गई । मुश्किल यह है कि एक तरफ वित्त मंत्री देश की विकास दर 8 से 9 फिसदी तक पहुंचाने को बेहद आसान मान रहे है तो दूसरी तरफ भारत सूखे की वजह से जमीन के नीचे पानी इतना कम हो गया है कि हैडपंप की बिक्री में 30 फीसदी की कमी आ गई है । टैक्टर की बिक्री में 20 फिसदी की कमी आ गई है 20 फिसदी किसान मजदूर का पलायन बढ गया है । जो किसान गांव में हैं, वे हार्ट्रीकल्चर और पेड़ लगाने के काम से जा जुड़े हैं । यानी काम वहा भी कम हो रहा है । दूसरी तरफ शहरो में मजदूरो के बढ़ते बोझ ने उनकी मजदूरी को स्थिर कर दिया है । यानी न्यूनतम मजदूरी में कोई वृद्दि नहीं है । और हर राज्य सरकार का रुख भी उस इक्ननामी पर जा टिका है जो अपनी जमीन , अपने मानव संसाधन और अपने उत्पाद से दूर हो । यानी विदेशी निवेश के जरीये शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर की प्रथमिकता तले ही बेहाल भारत की यह तस्वीर उभर रही है । तो फिर गडबडी महज सिस्टम की नहीं है बल्कि सिस्टम को किस तंत्र के तहत चलाना है गड़बडी वहीं है । और सिस्टम का मतलब ही राजनीतिक सत्ता पाना हो जाये तो उस  नमूना पहले बिहार में नजर या अब असम में नजर  रहा है । 

बिहार से पहले दिल्ली चुनाव में केन्द्र के 39 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर वोटरो को सरकार के करीब लाने की कोशिश की । फिर बिहार में 27 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर बिहार में चुनाव जीतने में मशक्कत की । और अब असम चुनाव है तो प्रधानमंत्री मोदी 5 परवरी की रैली के बाद सात कैबिनेट मंत्रियो की रैली की तैयारी में असम है । सुषमा स्वराज , नीतिन गडकरी, धर्मेन्द्र प्रधान, निर्मला सीतारमण, नजमा हेपतुल्ला के अलावे बंगाल और असम के जो भी मोदी सरकार में मंत्रीन है सभी को चुनाव एलान से पहले जाकर असम में रैली करनी है । वादे करने है । यानी चुनाव होगें तो केन्द्रीय मंत्री भी पहुंचेगें लेकिन सरकारो के पास अगर कोई नीति ही नहीं है कि देश किस रास्ते जाना है तो एक दौर का असफल मनरेगा भी अन्हे सफल वगेगा और राजनीतिक जीत के लिये केन्र्य मंत्रियो का समूह ही उम्मीद जगायेगा । जाहिर में ऐसे में समाज के भीतर अंसतोष तो पनपेगा ।

वजह भी यही है कि न्यूनतम के लिये ही 2005 में नरेगा को समाज की भीतर शाकअब्जरवर माना गया । यानी किसान-मजदूर, दलित मजदूर, गरीबी में जिन्दगी गुजारने वाले अल्पसंख्यक तबके के भी   राजनीतिक सत्ता को लेकर अंसतोष ना पनपे इसके लिये नरेगा लाया गया था । जिसके पांच बरस पूरे हुये तो याद किजिये देश में राजनीतिक बहस क्या छिडी । बहस थी नरेगा से मनरेगा होने वाली स्कीम के फेल होने का । क्योकि मजदूरी बढी नहीं , किसानी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई । मनरेगा रोजगार से किसी योजना को अमली जामा पहनाया नहीं गया । 

मनरेगा बजट की लूट हर स्तर पर हुई । फिर एक वक्त मनमोहन सिंह को भी समझ में नही आया था कि मनरेगा और फूड सिक्यूरिटी को लेकर वह बजट कहां से लायेगा । और मनरेगा को लेकर यह सवाल प्रधानमंत्री मोदी का भी सत्ता संभालते वक्त रहा । लेकिन जिस इक्नामी को मोदी सरकार अपनाये हुये है उसमें गांवों में अंसतोष ना पनपे इसके लिये मनरेगा मोदी सरकार के लिये भी शाकअब्जर्वर का काम करने लगी ।यानी असफल योजना के सामने खुद सफल ना हो तो इसके लिये योजनायें कैसे सफल हो जाती है इसका हर चेहरा नेहरु के दौर से लेकर अभी तक की योजनाओ तले समझा जा सकता है क्योकि दलितो और आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर बीते 68 बरस में 2450 से ज्यादा योजनाएं बनायी गई । 

दस हजार से ज्यादा कार्यक्रमों का एलान किया गया लेकिन 1952 के पहले चुनाव और 2014 के चुनाव के बीच अंतर यही आया कि धीरे धीरे हर संस्था चाहे वह संवैधानिक संस्था हो या दबाब समूह के तौर पर काम करने वाली सामाजिक संस्था। हर संस्था राजनीतिक सत्ता की जद में आ गई। और राजनीति सत्ता के लिये ही दलित, आदिवासी, किसान, मुस्लिमों की पहचान बना दी गई।
(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं।)