बुधवार, 16 मार्च 2016

रिहाई मंच के ‘जन विकल्प मार्च’ पर लाठी चार्ज, महिलाओं समेत दर्जनों घायल, सैकड़ों गिरफ्तार


कार्यकर्ताओं पर लाठी चार्ज और महिला कार्यकर्ताओं से बदसलुकी ।
मनुवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ नया राजनीतिक विकल्प खड़ा कर रहा मंच।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। आतंकवाद के नाम पर देश की विभिन्न जेलों में बंद बेगुनाहों की रिहाई के लिए अभियान चला रहे रिहाई मंच ने आज सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ जन विकल्प मार्चनिकाला। विधानसभा की ओर जा रहे मार्च को पुलिस ने बीच में ही रोक दिया जिससे मंच के नेताओं और पुलिस के बीच नोकझोंक भी हुई। विधानसभा तक मार्च करने की जिद पर अड़े रिहाई मंच के सैकड़ों कार्यकर्ताओं और नेताओं पर पुलिस ने आखिरकार लाठीचार्ज कर दिया जिससे भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई। पुलिस के लाठीचार्ज में महिलाओं समेत दर्जनों लोग घायल हो गए। पुलिस ने मार्च में शामिल नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें पुलिस लाइन ले गई। जिन्हें बाद में निजी मुचलके पर छोड़ दिया गया। मंच का दावा है कि पुलिस ने इस दौरान रिहाई मंच के कार्यकर्ताओं के साथ महिला नेताओं के साथ अभद्रता की और उन पर भी लाठीचार्ज किया।


मंच ने कहा कि प्रदेश में सत्तारुढ़ अखिलेश सरकार द्वारा सरकार के चार बरस पूरे होने पर जन विकल्प मार्च निकाल रहे लोगों को रोककर तानाशाही का सबूत दिया है। मंच ने अखिलेश सरकार पर आरोप लगाया कि जहां प्रदेश भर में एक तरफ संघ परिवार को पथसंचलन से लेकर भड़काऊ भाषण देने की आजादी है लेकिन सूबे भर से जुटे इंसाफ पसंद अवाम जो विधानसभा पहुंचकर सरकार को उसके वादों को याद दिलाना चाहती थी को यह अधिकार नहीं है कि वह सरकार को उसके वादे याद दिला सके। मुलायम और अखिलेश मुसलमानों का वोट लेकर विधानसभा तो पहुंचना चाहते हंै लेकिन उन्हें अपने हक-हुकूक की बात विधानसभा के समक्ष रखने का हक उन्हें नहीं देते। अखिलेश सरकार पर लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने का आरोप लगाते हुए मंच ने कहा कि इस नाइंसाफी के खिलाफ सूबे भर की इंसाफ पसंद अवाम यूपी में नया राजनीतिक विकल्प खड़ा करेगी।


रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि जिस तरीके से इंसाफ की आवाज को दबाने की कोशिश और मार्च निकाल रहे लोगों पर हमला किया गया उससे यह साफ हो गया है कि यह सरकार बेगुनाहों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों के दमन पर उतारु है। उसकी वजहें साफ है कि यह सरकार बेगुनाहों के सवाल पर सफेद झूठ बोलकर आगामी 2017 के चुनाव में झूठ के बल पर उनके वोटों की लूट पर आमादा है। सांप्रदायिक व जातीय हिंसा, बिगड़ती कानून व्यवस्था, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, महिला, किसान और युवा विरोधी नीतीयों के खिलाफ पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत पूरे सूबे से आई इंसाफ पसंद अवाम की राजधानी में जमावड़े ने साफ कर दिया कि सूबे की अवाम सपा की जन विरोधी और सांप्रदायिक नीतियों से पूरी तरह त्रस्त है। उन्होंने कहा कि सपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था कि आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों को रिहा करेगी, उनका पुर्नवास करेगी और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करेगी। पर उसने किसी बेगुनाह को नहीं छोड़ा उल्टे निमेष कमीशन की रिपोर्ट पर कार्रवाई न करते हुए मौलाना खालिद मुजाहिद की पुलिस व आईबी के षडयंत्र से हत्या करवा दी। कहां तो सरकार का वादा था कि वह सांप्रदायिक हिंसा के दोषियों को सजा देगी लेकिन सपा के राज में यूपी के इतिहास में सबसे अधिक सांप्रदायिक हिंसा सपा-भाजपा गठजोड़ की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति द्वारा करवाई गई। भाजपा विधायक संगीत सोम, सुरेश राणा को बचाने का काम किया गया। उन्होंने कहा कि सपा सैफई महोत्सव से लेकर अपने कुनबे की शाही विवाहों में प्रदेश के जनता की गाढ़ी कमाई को लुटाने में मस्त है। दूसरी तरफ पूरे सूबे में भारी बरसात और ओला वृष्टि के चलते फसलें बरबाद हो गई हैं और बुंदेलखंड सहित पूरे प्रदेश का बुनकर, किसान-मजदूर अपनी बेटियों का विवाह न कर पाने के कारण आत्महत्या करने पर मजबूर है।

रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने कहा कि दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या और जेएनयू में कन्हैया कुमार, उमर खालिद, अनिर्बान को देशद्रोही घोषित करने की संघी मंशा के खिलाफ पूरे देश में मनुवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़े हो रहे प्रतिरोध को यह जन विकल्प मार्च प्रदेश में एक राजनीतिक दिशा देगा। उन्होंने कहा कि बेगुनाहों, मजलूमों के इंसाफ का सवाल उठाने से रोकने के लिए जिस सांप्रदायिक जेहनियत से जन विकल्प मार्चको रोका गया अखिलेश की पुलिस द्वारा जन विकल्प मार्चपर हमला बोलना वही जेहनियत है जो जातिवाद-सांप्रदायिकता से आजादी के नाम पर जेएनयू जैसे संस्थान पर देश द्रोही का ठप्पा लगाती है। उन्होंने कहा कि सपा केे चुनावी घोषणा पत्र में दलितों के लिए कोई एजेण्डा तक नहीं है और खुद को दलितों का स्वयं भू हितैषी बताने वाली बसपा के हाथी पर मनुवादी ताकतें सवार हो गई हैं। प्रदेश में सांप्रदायिक व जातीय ध्रुवीकरण करने वाली राजनीति के खिलाफ    रिहाई मंच व इंसाफ अभियान का यह जन विकल्प मार्च देश और समाज निर्माण को नई राजनीतिक दिशा देगा।

इंसाफ अभियान के प्रदेश प्रभारी राघवेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि सपा सरकार के चार बरस पूरे होने पर यह जन विकल्प मार्च झूठ और लूट को बेनकाब करने का ऐतिहासिक कदम था। सरकार के बर्बर, तानाशाहपूर्ण मानसिकता के चलते इसको रोका गया क्योंकि यह सरकार चैतरफा अपने ही कारनामों से घिर चुकी है और उसके विदाई का आखिरी दौर आ गया है। अब और ज्यादा समय तक सूबे की इंसाफ पसंद आवाम ऐसी जनविरोधी सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगी।

सिद्धार्थनगर से आए रिहाई मंच नेता डॉ. मजहरूल हक ने कहा कि मुसलमानों के वोट से बनी सरकार में मुसलमानों पर सबसे ज्यादा हिंसा हो रही है। हर विभाग में उनसे सिर्फ मुसलमान होने के कारण अवैध वसूली की जाती है। उन्हें निरंतर डराए रखने की रणनीति पर सरकार चल रही है। लेकिन रिहाई मंच ने मुस्लिम समाज में साहस का जो संचार किया है वह सपा के राजनीतिक खात्में की बुनियाद बनने जा रही है। वहीं गोंडा से आए जुबैर खान ने कहा कि इंसाफ से वंचित करने वाली सरकारें इतिहास के कूड़ेदान में चली जाती हैं। सपा ने जिस स्तर पर जनता पर जुल्म ढाए हैं, मुलायाम सिंह के कुनबे ने जिस तरह सरकारी धन की लूट की है उससे सपा का अंत नजदीक आ गया है। इसलिए वह सवाल उठाने वालों पर लाठियां बरसा कर उन्हें चुप कराना चाहती है।

मुरादाबाद से आए मोहम्मद अनस ने कहा कि आज देश का मुसलमान आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा डरा और सहमा है। कोई भी उसकी आवाज नहीं उठाना चाहता। ऐसे में रिहाई मंच ने आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों के फंसाए जाने को राजनीतिक मुद्दा बना दिया है वह भविष्य की राजनीति का एजेंडा तय करेगा। बम्बई से आए मोहम्मद इस्माईल ने कहा कि सपा की अपनी करनी के कारण आज पूरे सूबे में जो माहौल बना है वह उससे झंुझलाई सरकार अब उससे सवाल पूछने वालों पर हमलावर हो गई है। रिहाई मंच इस जनआक्रोश को जिस तरह राजनीतिक दिशा देने में लगा है वह प्रदेश की सूरत बदल देगा।


प्रदर्शन को मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित संदीप पांडे, फैजाबाद से आए अतहर शम्सी, जौनपुर से आए औसाफ अहमद, प्यारे राही, बलिया से आए डाॅ अहमद कमाल, रोशन अली, मंजूर अहमद, गाजीपुर से आए साकिब, आमिर नवाज, गोंडा से आए हादी खान, रफीउद्दीन खान, इलाहाबाद से आए आनंद यादव, दिनेश चैधरी, बांदा से आए धनन्जय चैधरी, फरूखाबाद से आए योगेंद्र यादव, आजमगढ़ से आए विनोद यादव, शाहआलम शेरवानी, तेजस यादव, मसीहुद््दीन संजरी, सालिम दाउदी, गुलाम अम्बिया, सरफराज कमर, मोहम्मद आमिर, अवधेश यादव, राजेश यादव, उन्नाव से आए जमीर खान, बनारस से आए जहीर हाश्मी, अमित मिश्रा, सीतापुर से आए मोहम्मद निसार, रविशेखर, एकता सिंह, दिल्ली से आए अजय प्रकाश, प्रतापगढ़ से आए शम्स तबरेज, मोहम्मद कलीम, सुल्तानपुर से आए जुनैद अहमद,कानपुर से आए मोहम्मद अहमद, अब्दुल अजीज, रजनीश रत्नाकर, डाॅ निसार, बरेली से आए मुश्फिक अहमद, शकील कुरैशी, सोनू आदि ने भी सम्बोधित किया। संचालन अनिल यादव ने किया।
(प्रेस विज्ञप्ति)

'शून्यकाल में बजता झुनझुना' को मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015

2006 में प्रकाशित हुआ था रमेश प्रजापति का पहला कविता संग्रह पूरा हँसता चेहरा

वनांचल न्यूज नेटवर्क

अलीगढ़। मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015 के लिए युवा कवि और शिक्षक रमेश प्रजापति के कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' का चयन किया गया है। केपी सिंह मेमोरियल ट्रस्ट की ओर से 2 अप्रैल को अलीगढ़ में आयोजित कार्यक्रम में उन्हें यह पुरस्कार दिया जाएगा। ट्रस्ट की अध्यक्ष नमिता सिंह ने यह जानकारी दी। 


ट्रस्ट की ओर से जारी विज्ञप्ति में कहा नमिता सिंह ने जानकारी दी है कि कविता पुरस्कार के निर्णायक मण्डल में प्रख्यात कवि नरेश सक्सेना और युवा समीक्षक प्रोफेसर वेद प्रकाश ने युवा कवि रमेश प्रजापति के कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' का चयन किया। निर्णायक मंडल के निर्णय से ट्रस्ट के पदाधिकारी भी सहमत हैं। आगामी 2 अप्रैल को अलीगढ़ में ट्रस्ट की ओर से एक कार्यक्रम किया जा रहा है जिसमें मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015 प्रदान किया जाएगा। 

रमेश प्रजापति
गौरतलब है कि रमेश प्रजापति जन-जीवन से जुड़ी लोकधर्मी कविताओं के लिए चर्चित हैं। 2006 में उनका पहला कविता संग्रह पूरा हँसता चेहराप्रकाशित हुआ था। उनकी अनेक कविताओं का मलयालम, पंजाबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। जीवन संघर्षों से जुड़े कवि रमेश प्रजापति की कविताओं में साधारणजन के संघर्षों के स्वर मुखर होते हैं। शून्यकाल में बजता झुनझुनाकी कविताएँ अपने समय को प्रतिबिंबित करती हैं। 

कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' की समीक्षा

लड़की के रूखे बालों में यूँ ही ठूंसा कनेर का फूल

डा. कृष्ण चंद्र गुप्त

फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा था- ‘बज़्में ज़िंदगी बदली कि रंगे शायरी बदली।’’ ज़िंदगी की बज़्म का रंगरूप दिन-प्रतिदिन बदल रहा है। उस हिसाब से अधिकांश शायरी के मिजाज़ से बदलाव नहीं पड़ता लेकिन जो समय की नब्ज़ पकड़ने में सफल हुए हैं, उनमें बदलाव दिखाई पड़ता है। रमेश ऐसे ही रचनाकारों में से हैं। ‘‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’’ उनका दूसरा कविता संकलन है। इसकी कविताओं में जनजीवन ही क्या लोक जीवन की धड़कनें साफ सुनी जा सकती हैं। वहाँ से भी वे कविता निकाल लेते हैं जहाँ पर अभिजात वर्ग क्या सामान्य वर्ग की दृृष्टि पड़ती नहीं। रमेश प्रजापति व्यक्तिगत जीवन की उलझनों, सामाजिक जीवन की उथल-पुथल को अनदेखा नहीं कर पाते, क्योंकि वहीं से उनकी संवेदनाएँ दाना-पानी ग्रहण करती है बड़ी ही सहजता से। केवल अव्यवस्था, शोषण, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक हिंसा ही नहीं उन्हें चुभती, अपितु प्राकृतिक सौन्दर्य,मानवीय शील, शक्ति और सौन्दर्य की एक झलक भी उन्हें भाव-विभोर कर जाती है। निर्धनता और सामाजिक भेदभाव के शिकार भी उन्हें उद्वेलित कर जाते हैं। मुक्तिबोध को चाँद का मुँह टेढ़ा लगा था अपनी मानसिकता के कारण। तो रमेश प्रजापति को चाँद मज़दूर की दराँती लगता है। आधुनिकतम मनोदशाओं की जटिलता प्रकृति को इस अपरम्परागत रूप में देखती है। नई कविता की जटिलता और जनवादी कविता की नारेबाजी से हटकर रमेश की कविता अपने ही रंगरूप में व्यक्त होती है।

कुछ उदाहरण इसकी गवाही देते हैं। सामान्य जनजीवन के दुख दर्द से तटस्थ रहने वाले ईश्वर से तीखा प्रश्न है यह- ‘‘तू अगर ईश्वर है/तो क्यों आराम फरमाता है पूजाघरों में।’’ इस मज़दूर की जिजीविषा तो देखिए-‘‘फुटपाथ पर बैठा/टांग हिलाता मज़दूर/ बुरे दिनों को चबा जाता है/मुट्ठी भी चनों-सा।’’ माँ का यह चित्र कितना भेदक है-‘‘माँ की उदास आँखों में/आज भी टहलते रहते हैं पिता/कंधे पर अंगोछा डाले/बीड़ी फूँकते /और मुझे डाँटते-डपटते।’’ किसानी जीवन की देखिए क्या विडम्बना है-‘‘फिर तीन बेटियों और एक बेटे के साथ/किसान ने की है आत्महत्या/दुनिया की संवेदना बटोरने/या अपने चैनल को सर्वश्रेष्ठ साबित करने/इलेक्ट्रोनिक मीडिया में मची है होड़/ मातम में डूबी कश्मीरी बाई की फोटो खींचने में।’’ लाशों की सौदागिरी शायद इसी को कहते हैं।

आदिवासी माँ के जीवन का यह दृश्य अविस्मरण्ीय है-‘‘ऐसे निचोड़ रहा है सूखा नदी की देह/जैसे भूख से बिलबिलाता साँवला बच्चा/निचोड़ रहा है / जीवन के उजाड़ चैराहे पर बैठी/मरियल देहवाली आदिवासी माँ का स्तन/ कांप रहा है समुद्र का कलेजा।’’ सांप्रदायिक उन्माद की आँधी ने कितना अकेला कर दिया है इस माँ को-‘‘कैसी है हफीजन ताई/रूखे गले से सुबकती हुई माँ बस इतना ही कह पाई/कि अब वे चले गए हंै गाँव छोड़कर/मेरी आत्मा में बैठ गई लम्बी उदासी।’’ यह दृश्य भी कितना कारुणिक है-‘‘रात के सन्नाटे में गूँज रही है/शहर गई बेटी की प्रतीक्षा में /माँ की धड़कनों की धुकधुकी।’’ पितरों का श्राद्ध करते हुए यह अपराधबोध मन को मथ रहा है-‘‘आओ पितरो!/ अभी-अभी हमने छीना है बच्चों के मुँह से निवाला/एक लाचार स्त्री के सपनों का बेझिझक किया है ख़ून/एक बूढ़े कों अभी ठोकर मारकर /गिराया है तेज दौड़ती सड़क पर/एक अपाहिज मज़दूर को नहीं दी है हमने/ उसके पसीने की सही-सही कीमत/परन्तु तुम्हारे वास्ते खले हैं इन दिनों/दान के सभी रास्ते।’’ घर के विभाजन की यह त्रासदी-‘‘दीवार उठती है जो बाँटती हुई आँगन /भालू की जीभ-सी चाटती है मेरा अंतःकरण।’’

अच्छे दिनों की यह अभिव्क्त दर्शनीय है-‘‘अच्छे दिन/झरते है माँ के सूनेपन में /झटकते हुए धूल से सनी पिता की कमीज़।’’ निर्धनता का यह झेला गया अभिशाप रह-रहकर चुभता है-‘’बेदर्द सुख/भरा पूरा खड़ा खेत में पुकार रहा था/घर के कोठी-कुठलों को/ और चिड़ियाँ गा रही थीं स्वागत गीत/हमसे पहुँचने से पहले ही /बनिए तक पहुँच गई थी उसकी हाँक/ कसमसाकर हाथ मलता रह गया था पूरा घर।’’ निम्न मध्यम परिवार में जन्म लेने और बड़े होने पर ही यह दृश्य दिखाई पड़ता है। मज़दूर की यह दिनचर्या -‘‘मज़दूर ढोते हुए अपनी नंगी पीठ पर/घर की जरुरतों का बोझ/बीड़ी के धुएँ में उड़ा देता है थकान ।’’ आदिवासी जीवन का भोगा हुआ यह यथार्थ हृदय को आज भी चीर जाता है-‘‘पूँजीपतियों की रातें जगमग करने के लिए/बाँध दी गई है नदी की रवानी/जंगल सेे बिछड़ी मटमैली आदिवासी औरत की देह भी/चुभती है हवस से भरी कुछ शातिर आँखों में।’’ जीवन-संघर्ष के लिए भीतरी आग बहुत ही जरुरी है-‘‘अंतिम हथियार साबित होती है आग/वक़्त-बेवक़्त जरुरत के वास्ते/जलने दो इसे भीतर के अलाव में।’’ सुख की यह अनुभूति कितनी क्षणिक लेकिन आल्हादिक है-‘‘जंगले से कूदकर/गुनगुनी धूप और खुनक हवा का/चुपके से आकर मस्तक सहलाना।’’ रोज़ी-रोटी की चक्की में पिसते हुए लोगों के बीच में ही कवि रहना चाहता है-‘‘वहा ँसे देखो मुझे/जहाँ चकमा देकर/कुछ पिता/कुछ माँएँ/कुछ भाई /छीन लाते हैं/ मृत्यु के विकराल मुँह से/जीवन के कुछ खुशनुमा रंग।’’ वैसा ही झेले गये अभिशाप का यह दृश्य अविस्मरण्ीय है-‘‘इनकी आँखों में झाँकती है/उस भूखी माँ की लाचारी/जिसने कुछ दिन पहले /वक़्त के हाथों मासूम बेटियों को बेच दिया/कौड़ियों के भाव।’’ आज के कबीर की यह विडम्बना-‘‘कुर्तक और सांप्रदायिक वेदी की धूल में/रेंग रहे हैं विषधर/ज्ञान की आँधी/किरकिरा रही है कबीर की आँखों में/अंतःकरण के लहू से/तरबतर हो गई है कबीर की कुरती।’’ हीये की आँखों से ही यह दिखाई पड़ता है।

पाश्चात्य सभ्यता की चकाचैंध में यह दृश्य -‘‘आधुनिकता से दूर/मेरे गाँव की भोली लड़की के रूखे बालों में/ यूँ हीं ठुँसा कनेर का फूल/पश्चिम की खिड़की से कूदकर आए/ चालाक समय को दिखाता है ठेंगा।’’ परम्परागत और अभिजात सौन्दर्य के मानदंड़ों से इसे नहीं परखा जा सकता। ऐसे ही प्रकृति का यह बिम्ब-‘‘किसी नटखट बच्चे की दवात से/बूँद-बूँद टपक रही है रात/आवारा कुत्ते-सा सन्नाटा टहल रहा है गलियों में।’’एक निम्नवर्गीय परिवार का यह दृश्य-‘‘ढिबरी/रोशन रखती है घर का पूरा संसार/ताज़ा रखती है पूर्वजों की याद।’’ महानगरीय जीवन को झेलते हुए ही इसकी अनुभूति हो सकती है। बूढ़ों की उपेक्षा कितनी मार्मिकता से व्यक्त हुई है-‘‘अपने दुखों में डूबते-उतराते/हमारे बुजुर्ग / फिर भी चिंतित रहते हैं/ प्रतिदिन हमारे लिए।’’

एक ओर सीलमपुर की झुग्गियाँ हैं-‘‘यहाँ टूटती हैं भ्रम की सारी गाँठें/यहाँ धसक जाती है बीड़ी-गुटकों के दलदल में/ दुख भरी हाँफती-खाँसती रातें/ टूट जाता है बासी रोटी-सा/ इनकी खुरदरी हथेली पर रखा दिन/ कड़वे अनुभवों से भरे मटमैले धब्बों का इतिहास/पढ़ा जा सकता है मकड़ी के जाले से बुने/इनके झुर्रादार चेहरों पर।’’ दूसरी ओर धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले डल झीलवाला कश्मीर की वास्तविकता निगाहों में चुभे बिना नहीं रहती-‘‘थके हुए मज़दूर की मानिंद/झुकने लगी थी दिन की पीठ/.../ सैलानियों और यहाँ के बाशिंदों की चहल-पहल से/ झील की कोढ़िन देह/जरा कान लगाकर सुनो!/इनकी आत्मा की कुढ़न से/ रिसती रहती हैं वैभवशाली दिनों की स्मृतियाँ।’’

ऐसा व्यापक फलक है रमेश प्रजापति की काव्य संवेदनाओं का, जिसमें आज की दुनिया का घिनौना चेहरा चाहे-अनचाहे एक संवेदनशील पाठक को उद्वेलित कर ही जाता है।