रविवार, 26 जनवरी 2014

‘गण’ की ताकत पर ‘तंत्र’ का कुहासा

सियासी धुरी पर घूमता भारतीय गणतंत्र का पहिया निरंतर चल रहा है लेकिन करीब 64 साल पहले अंगीकार किए भारतीय संविधान के अनुपालन की दूरी तय नहीं कर पा रहा...
64 साल का गणतंत्र। भारतीय संविधान में 100 से ज्यादा संशोधन। फिर भी नहीं बदली गण की तस्वीर। कुपोषण, भुखमरी, हत्या, बलात्कार, गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार और गंभीर बीमारियों की सौगात। कभी चार मिनट में चौबिस डंडे बरसाती दिल्ली पुलिस तो कभी चलती बस में मानवता की हद को पार कर जाने वाला सामुहिक दुष्कर्म। कहीं न्याय के लिए संघर्ष करते परिवार पर लाठियां बरसाती पुलिस तो कहीं तथाकथित राजनेताओं और उनके नुमाइंदों का लात-घूंसा खाती जनता। कहीं प्राकृतिक संसाधनों का अवैध दोहन तो कहीं जाति और धर्म के नाम पर बदलता कानून। कभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाती सरकार की नीतियां तो कभी गरीबों और आदिवासियों के घुमंतू बनाने की कार्यवाही। यूं कहें कि सामाजिक कुरीतियों के दलदल में फंसा गण और उनकी झटपटाहट पर मौज करता तंत्र। 
कुछ ऐसी ही तस्वीर है हमारे 64 सालाना भारतीय गणतंत्र का। ‘गण’ की अपार ताकत पर ‘तंत्र’ मौज कर रहा है लेकिन उसे इसका आभास नहीं होने देता। संसाधनों की कमी के साथ बदहाली का चादर फेंककर तंत्र, गण की ताकत का इस्तेमाल कर रहा है। वहीं गण दो वक्त की रोटी के लिए तंत्र की राह देख रहा है। तंत्र के कुहासे में फंसा गण हर दिन एक सपना देखता है लेकिन अगले ही पल उसका सपना मुंगेरी लाल का सपना साबित होता है। कभी वह तंत्र के लॉलीपॉप के पीछे दौड़ता है तो कभी खुद को तंत्र का हिस्सा बना लेता है। फिर भी तंत्र का कुहासा नहीं छंटता। आवारा पूंजी अपना खेल दिखा रही है। भारतीय तंत्र उसका हिस्सा है जो हर दिन एक नया पैतरा बदल रहा है। वहीं गण अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। सियासी धुरी पर घूमता भारतीय गणतंत्र का पहिया निरंतर चल रहा है लेकिन आज से करीब 64 साल पहले अंगीकार किए भारतीय संविधान के अनुपालन की दूरी तय नहीं कर पा रहा। गण पूरी जिन्दगी संविधान और कानूनों के अनुपालन में गुजार देता है लेकिन उसमें उसे प्रदत्त सामाजिक सुरक्षा आखिरी सांस तक मयस्सर नहीं होती। पूंजी के बल पर खंडे भारतीय तंत्र एक नया इतिहास लिख दिया है लेकिन उसका कुहासा अभी नहीं छंटा है। गण कमाई कर रहा है लेकिन बचा नहीं पा रहा। उसे हारकर अपनी पूरी कमाई तंत्र को देना पड़ जा रहा है। कभी कर के रूप में तो कभी ब्याज के रूप में। गण पर तंत्र की हजारों रुपये की उधारी है जबकि उसने कभी उससे लिया ही नहीं। गण की आमदनी तंत्र अपनी खुराक पैदा कर रहा है लेकिन उसे देने के लिए उसके पास खजाना नहीं है। वह खुद की सामाजिक सुरक्षा तो तय करता है लेकिन गण की सामाजिक सुरक्षा देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए खतरा बन जाती है। तंत्र खुद की खुराक बढ़ाने के लिए विदेशों से नीतियां उधार लेता है लेकिन गण की सुरक्षा में बनी विदेशी नीतियां उसे बेकार लगने लगती हैं। तंत्र के कुहासे में सिमटे गण की ताकत के उभार का इंतजार हमें भी है और भारतीय गणतंत्र को भी। कभी न कभी तो वह सुबह आएगी, जब सब बोलेंगे...जय जनतंत्र...जय गणतंत्र। 
(यह लेख वनांचल एक्सप्रेस के 16वें अंक में प्रकाशित हो चुका है।)