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मंगलवार, 9 जून 2020

गैर-आदिवासी इतिहासकारों के फुटनोट में सिमटा 'उलगुलान' का नायक बीरसा, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ कहां?

बीरसा मुंडा
अमर शहीद बीरसा मुंडा 19वीं सदी के अंतिम दशक में हुए स्वतंत्रता आंदोलन के महान लोकनायक थे। उनका ‘उलगुलान’ (आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। इस आंदोलन ने आधे दशक से भी अधिक समय तक अंग्रेजी हुकूमत के दाँत खट्टे कर दिये थे। जिस ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, उसके खिलाफ़ इतने लंबे समय तक उलगुलान को टिका लेना कोई आसान कार्य नहीं था। बावजूद इसके लिखित इतिहास में इसे एक प्रमुख अध्याय के रूप में स्थान देने के बजाय महज ‘फुटनोट’ तक ही सीमित कर दिया गया। इतिहास लेखन पर साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ-साथ ‘दिकू’ (गैर-आदिवासी) वर्चस्व के कारण ही संभवतः ऐसा देखने में आता है। यही कारण है कि आज बीरसा मुंडा के बारे में हमारे पास बहुत सीमित जानकारी है...

written by डॉ. मुकेश कुमार

बीरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले में उलिहातु गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम करमी हातू और पिता का नाम सुगना मुंडा था। बीरसा पढ़ाई में बहुत होशियार थे इसलिए उनका दाखिला चाइबासा के जर्मन मिशन स्कूल में कराया गया। उस वक्त ईसाई मिशन स्कूल में दाखिला लेने हेतु उनका धर्म अपनाना जरूरी हुआ करता था तो बीरसा का नाम परिवर्तन कर बीरसा डेविड रख दिया गया। कुछ दिनों तक उन्होंने उस मिशन स्कूल में पढ़ाई की किन्तु उन्होंने महसूस किया कि मुंडाओं के प्रति ईसाई मिशनरी का रवैया सरकार से बहुत अलग नहीं है। उस समय आदिवासियों का शोषण-उत्पीड़न चरम पर था। इस शोषण में अंग्रेजी हुकूमत, जमींदार और सेठ-साहूकार सभी सहभागी थे। इस कारण आदिवासियों की बदहाली और भुखमरी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। बीरसा के परिवार की आर्थिक स्थिति भी काफी चिंताजनक थी। लगभग सारे आदिवासियों की यही हालत थी। इसी हालात को बदलने के लिए बीरसा ने तमाम शोषकों के खिलाफ उलगुलान का नेतृत्व किया था। यह उलगुलान तकरीबन 6 वर्षों तक चला था।