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सोमवार, 28 जून 2021

COVID-19: अतिथि शिक्षक संघ ने केन्द्र और दिल्ली सरकार को लिखा पत्र, महामारी के शिकार अतिथि शिक्षकों के लिए मांगा मुआवजा

मेडिकल और पूरा चिकित्सीय खर्च वहन करने के साथ मृतक आश्रितों को हर मार 10,000 रुपये देने की भी मांग।

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो

दिल्ली विश्वविद्यालय के अतिथि शिक्षकों के संघ ने विश्वविद्यालय प्रशासन पर भेदभाव और शोषण का आरोप लगाया है। साथ ही उसने केंद्र और दिल्ली सरकार को पत्र लिखकर कोरोना महामारी से ग्रसित अतिथि शिक्षकों के इलाज और मेडिकल का पूरा खर्च वहन करने के साथ इस बीमारी से मरे अतिथि शिक्षकों के परिजनों को हर माह 10000 रुपए देने की मांग की है। 

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

मोदी साहब को एक अदद गोधरा चाहिए?

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री का लाल किला का पूरा भाषण बता रहा था कि वह हताशा में हैं। दो सालों के बाद अब भक्त भी सवाल खड़े करने लगे हैं। हवाई गुब्बारे की भी सीमा होती है। जुमलों की भी मियाद होती है। ऐसे में अब किसी बड़े राग की जरूरत थी। गुजरात के विकास का गुब्बारा फूटने के बाद कुछ बचा नहीं था। गाय और गोबर ने ऊपर से मिट्टी पलीद कर दी। मजबूरी बश एक बयान क्या दिया अपने ही मधुमक्खी की तरफ घेर लिए। ऐसे में मोदी साहब को एक अदद गोधरा चाहिए... 

महेंद्र मिश्रा

न्हें न विकास से लेना-देना है और न मेडल से। इन्हें युद्ध चाहिए। इसीलिए जो आज तक किसी प्रधानमंत्री ने लाल किले से नहीं किया। उसको इन्होंने कर दिखाया। वो है बलूचिस्तान के अलवगाववादियों का खुला समर्थन। पीएम साहब ने इस मौके पर न ओलंपिक का जिक्र किया और न ही मेडल का। एक अरब 30 करोड़ आबादी और एक भी मेडल नहीं। यह बात पीएम साहब को परेशान नहीं करती। चलिए देश के दूसरे हिस्सों में दूसरी नकारी सरकारें थीं। लेकिन गुजरात में तो 20 सालों से आप हैं। कम से कम एक खिलाड़ी पैदा कर दिए होते। एक मेडल वहां से आ जाता। इस पर आप क्या बोलेंगे? अब पूरा गुजरात बोल रहा है। विकास का बुलबुला फूट गया। न वहां दलितों को सम्मान मिला। न ही पटेलों को रोजी-रोटी।

शनिवार, 16 जनवरी 2016

डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान की स्टाल से नहीं बेची जा रही 'अनाइलेशन ऑफ कास्ट'

प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला-2016 में लगी डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान की बुक स्टाल।           

अंबेडकर वांग्मय के अब तल छपे 21 अंकों में से केवल 11 अंक उपलब्ध।

Shiv Das

नई दिल्ली। डॉ. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर सांसदों को अंबेडकर के विचारों के प्रचार-प्रसार का पाठ पढ़ाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार के मंत्री और नौकरशाह खुलेआम उनके विचारों की हत्या कर रहे हैं। प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेला-2016 में केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय के करीब एक दर्जन अंक गायब हैं। इनमें जातिप्रथा का उन्मूलन, हिन्दू धर्म की पहेलियां, अस्पृश्य होने का अर्थ, अछूतों की जनसंख्या, जाति और संविधान, आदि पुस्तकें शामिल हैं। इसके अलावा अंबेडकर वांग्मय के 22 से 40 अंकों के किताबों को पिछले 15 वर्षों से छपने का इंतजार है। इससे अंबेडकर के विचारों को जानने के इच्छुक पाठकों में मायूसी देखी जा रही है और वे इसके लिए केंद्र की मोदी सरकार और आरएसएस को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

मेला में डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय के अब तल छपे 21 अंकों में से केवल 11 अंक ही मौजूद है। वह भी काफी कम मात्रा में। शेष 10 अंकों की प्रतियां उपलब्ध क्यों नहीं होने के सवाल पर वहां कार्यरत कर्मचारी आलाधिकारियों से बात करने की बात कहकर जानकारी देने से कतरा रहे हैं। प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित की जाने वाली मासिक पत्रिका 'सामाजिक न्याय सन्देश' का अक्टूबर, 2015 के बाद कोई भी अंक बाजार में नहीं आया है। इसके अलावा अंबेडकर वांग्मय के 22 से 40 अंक के किताबों को प्रकाशित करने का काम 15 साल पहले ही पूरा हो चुका है लेकिन उन्हें अभी तक छपने का इंतजार है। प्रतिष्ठान में कार्यरत विश्वसनीय सूत्रों की मानें तो संस्थान के पास हर साल पर्याप्त फंड होता है लेकिन अंबेडकर वांग्मय के प्रकाशक और संपादक दिल्ली के दबाव में इसमें रुचि नहीं ले रहे। हर साल प्रतिष्ठान को आबंटित होने वाले फंड में महज दस फीसदी ही खर्च हो पाता है। शेष धनराशि लैप्स हो जाती है। इसके बावजूद स्टाल पर कार्यरत कर्मचारी अम्बेडकर से जुड़ी पुस्तकों को सस्ती और विश्वसनीय रूप में पाठकों तक पहुचाने के कार्य का दावा कर रहे हैं।  

टीवी पत्रकार महेंद्र मिश्र
विश्व पुस्तक मेला में डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान के बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय का संकलन लेने पहुंचे टीवी पत्रकार महेंद्र मिश्रा किताब का पूरा संकलन नहीं मिलने से निराश दिखे। उन्होंने बातचीत में बताया कि मैं अंबेडकर के विचारों को समझना चाहता हूं। इसके लिए मैं उनके विचारों का संग्रह लेने आया था लेकिन वह एक किताब के रूप में नहीं है। मैं अंबेडकर वांग्मय के अबतक मौजूद सभी अंकों को खरीदना चाहता हूं लेकिन केवल 11 अंक ही मौजूद हैं। इनमें जाति के उन्मूलन पर लिखी गई डॉ. अंबडकर की सबसे महत्वपूर्ण किताब नहीं है। फिलहाल यहां उपलब्ध सभी 11 अंक मैंने खरीद लिए हैं लेकिन पूरे अंक मिल जाते तो अच्छा होता।


वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल
वहीं वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल भी बुक स्टाल पर अंबेडकर वांग्मय की सीरिज लेने पहुंचे लेकिन डॉ. अंबेडकर की चुनिंदा किताबों को स्टाल पर उपलब्ध नहीं होने पर हतप्रभ हो गए। उन्होंने आगंतुक रजिस्टर में अपनी टिप्पणी लिख मारी। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, भारत सरकार इस साल बाबा साहेब की किताबों का पूरा सेट नहीं बेच रही है, यह कहने से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती। वह 21 में से 10 चुनींदा किताबें नहीं बेच रही है। सिर्फ़ 11 किताबें बेची जा रही हैं। अंदाज़ा लगाइए कि क्या नहीं बेचा जा रहा है। इस स्टाल पर बाबा साहेब की रचनाओं का जो सेट मिल रहा है, उनमें वे सारी किताबें गायब हैं जिनमें उन्होंने जाति व्यवस्था, हिंदू पोंगापंथ, ब्राह्मणवाद की समीक्षा की है। एनिहिलेशन ऑफ कास्ट से लेकर रिडल्स इन हिंदुइज्म सब गायब। बुद्ध एंड हिज धम्मा तो हिंदी में इन्होंने छापी ही नहीं। यह बात ज्यादा चिंताजनक इसलिए है कि बाबा साहेब रचना समग्र को हिंदी में छापने का अधिकार इनके पास है।

युवा पत्रकार अरविंद शेष
इसी दौरान पत्रकार अरविंद शेष भी स्टाल पर पहुंचे। उन्होंने बताया कि पटना पुस्तक मेला में इस बार आंबेडकर फाउंडेशन के पास आंबेडकर वांग्मय का सेट नहीं मिला। शायद इस बार आंबेडकर फाउंडेशन के पास यह है ही नहीं। यह कृपा महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की है और केंद्र में भी भाजपा की सरकार है। दरअसल, आंबेडकर फाउंडेशन के स्टॉल पर बताया गया कि इस बार आंबेडकर के संपूर्ण वांग्मय को छापने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने एनओसी यानी अनापत्ति प्रमाण-पत्र नहीं दिया (शायद किताब छापना महाराष्ट्र सरकार से जुड़ा मामला होगा)। 

बॉक्सः

अन्य प्रकाशन उठा रहे मौके का फायदा

नई दिल्ली। अम्बेडकर प्रतिष्ठान पर पुस्तकों के न मिलने का फायदा अन्य प्रकाशन उठा रहे हैं। अम्बेडकर की जीवनी पर आधारित 'अम्बेडकर संचयन' 1200 रुपये में मिल रही है जबकि अम्बेडकर वांग्मय की पूरी सिरीज मात्र 500-600 रुपये में मिल जाती है। 
                                                                                      (सूचना संकलन और रिपोर्टिंग सहयोग: बिपिन दुबे)

रविवार, 3 अगस्त 2014

आंकड़ों की गरीबी

सरकार के आंकड़े वास्तव में उन कागजी पुलिंदों की तरह हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना को शांत तो कर सकते हैं लेकिन गरीब परिवार को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा सकते...

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक सदस्यीय समिति ने देश में गरीबी के स्तर के तेंदुलकर समिति के आकलन को खारिज कर दिया है। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2011-12 में भारत की आबादी में गरीबों का अनुपात कहीं ज्यादा था। उस समय भारत में साढ़े उन्तीस फीसदी लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे यानी देश में हर दस में से तीन व्यक्ति गरीब हैं। 

योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह को सौंपी रिपोर्ट में समिति ने सिफारिश की है कि शहरों में प्रतिदिन सैंतालीस रुपये से कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब की श्रेणी में रखा जाना चाहिए जबकि तेंदुलकर समिति ने प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तैंतीस रुपये का पैमाना निर्धारित किया था। 

रंगराजन समिति के अनुमानों के अनुसार, 2009-10 में 38.2 फीसदी आबादी गरीब थी जो 2011-12 में घटकर 29.5 फीसदी पर आ गई। इसके उलट तेंदुलकर समिति ने कहा था कि 2009-10 में गरीबों की आबादी 29.8 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 21.9 फीसदी रह गई। योजना आयोग ने दो साल पहले रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था जिसे गरीबी के आकलन पर सुरेश तेंदुलकर समिति के तरीके की समीक्षा करनी थी।

उक्त आंकड़ों पर गौर करें तो दोनों समितियों के आंकड़े हास्यास्पद प्रतीत होते हैं। केंद्र की सत्ता में काबिज विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सरकारें समय-समय पर इन आंकड़ों की बाजीगरी के सहारे अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश करती नजर आती हैं। वे संविधान में प्रदत्त अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की जगह आंकड़ेबाजी में गरीबी का हल ढूढ़ते हैं और उसी के सहारे गरीबी के स्तर को ऊपर उठाकर विकसित देशों की कतार में खड़ा होना चाहते हैं। 

वे भूल जाते हैं कि देश की करीब आधी आबादी अभी भी ऐसी है जो शहरों की विभिन्न सड़कों पर उनकी पोल खोलती नजर आती है। कभी भिखारी के रूप में तो कभी कुपोषित रिक्शाचालक के रूप में। किसी के पास घर जाने के लिए पैसा नहीं है तो किसी के पास पेट की आग बुझाने के लिए रोटी। सरकार की नाकामियों में चार चांद लगाने के लिए लाखों बेजरोगारों की फौज हर दिन रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर मुस्तैद नजर आती है। सैंतालीस रुपये तो दूर उन्हें रेहड़ी पर मिलने वाली तीन रुपये की रोटी भी मयस्सर नहीं होती। 

हकीकत में कोई भी चार सदस्यीय परिवार सैंतालीस रुपये या तैंतीस रुपये में एक दिन का भोजन नहीं कर सकता। खुले बाजार में रसोई से जुड़े सामानों में हर दिन उछाल हो रहा है। छोटे से छोटे शहर में खाने की थाली पचास रुपये की दर को पार करने को आतुर है। इसके बावजूद गरीबी का सरकारी आंकड़ा पचास रुपये की सीमा पार नहीं कर रहा। 

सरकार के आंकड़े वास्तव में उन कागजी पुलिंदों की तरह हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना को शांत तो कर सकते हैं लेकिन गरीब परिवार को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा सकते। सरकार की ओर से पेश किए जाने वाले वर्तमान आंकड़ों और उसकी पद्धति से आम आदमी के हालात से कोई वास्ता नहीं है। 

सरकार को एक ऐसी पद्धति विकसित करने की जरूरत है जो एक गरीब परिवार की वास्तविक स्थिति का आकलन करे और उसी आंकड़े को जनता के सामने पेश करे। जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक गरीबी के आंकड़े वातानुकूलित कमरों में बहस की शोभा बढ़ाते रहेंगे और लोग सरकार को कोसते रहेंगे।