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सोमवार, 27 जुलाई 2020

अपील: 'वनांचल एक्सप्रेस' को आपके सहयोग की जरूरत

जैसा कि आप जानते हैं साप्ताहिक 'वनांचल एक्सप्रेस' विभिन्न मीडिया संस्थानों में 10-15 सालों तक काम कर चुके वंचित समुदाय के अनुभवी पत्रकारों और उनके साथियों की पहल है। 13 अक्टूबर 2013 से लेकर आज तक वह अपनी प्रतिबद्धता के साथ देश के पिछड़े इलाकों , खासतौर से पहाड़ी एवं जंगली इलाकों के साथ वंचित वर्गों के विकास के लिए जरूरी मुद्दों पर केंद्रित खबरों और विचारों को कवर करने की कोशिश कर रहा है। संसाधनों के अभाव में 'वनांचल एक्सप्रेस' का प्रिंट एडिशन निकालना संभव नहीं हो पा रहा था तो इसके प्रकाशन को स्थगित कर दिया गया। हालांकि इसके वेब पोर्टल पर काम जारी है।

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

ग्रामीणों की आवाज को दबाने के लिए सोनभद्र प्रशासन ने फोड़ा 'रिपोर्ट बम'

बिल्ली-मारकुंडी खनन हादसे में तीन सालों से अधिक समय से लंबित मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट के अंशों को जिलाधिकारी ने किया सार्वजनिक। हादसे में मरने वाले मजदूरों और अवैध खननकर्ताओं के नामों पर जिला प्रशासन ने साधी चुप्पी। प्रभारी खनन अधिकारी और मुख्य विकास अधिकारी की संयुक्त मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट की छायाप्रति उपलब्ध कराने से कतरा रहे जिलाधिकारी। बिल्ली-मारकुंडी खनन हादसे में दस मजदूरों की हुई थी मौत। 27 फरवरी 2012 को बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र के शारदा मंदिर के पीछे पत्थर की एक अवैध खदान में हुआ था हादसा।

written by Shiv Das Prajapati

सोनभद्र। दुद्धी तहसील के अमवार गांव के पास कनहर और पांगन नदियों के संगम पर बन रही कनहर सिंचाई परियोजना के डूब क्षेत्र के ग्रामीणों की आवाज को दबाने के लिए जिला प्रशासन ने 'रिपोर्ट बम' का सहारा लिया है। जिलाधिकारी संजय कुमार ने पिछले तीन सालों से अधिक समय से लंबित बिल्ली-मारकुंडी खनन हादसे की मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट के अंशों पर आधारित प्रेस विज्ञप्ति पिछले दिनों जारी की। इसमें निर्धारित प्रक्रिया और मानकों का अनुपालन नहीं होने के साथ अवैध खनन को हादसे के लिए जिम्मेदार बताया है। साथ ही अपनी जिम्मेदारियों में लापरवाही बरतने के आरोप में दो पूर्व जिला खान अधिकारियों, दो खनन सर्वेक्षकों, तत्कालीन प्रभागीय वनाधिकारी, तत्कालीन ओबरा थाना प्रभारी समेत तत्कालीन क्षेत्रीय लेखपाल और ग्राम प्रधान को नामजद किया गया है। हालांकि जिलाधिकारी ने अपनी विज्ञप्ति में यह स्पष्ट नहीं किया है कि मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट में खनन हादसे में कितने मजदूरों की मौत हुई थी, उनका नाम क्या है और वे कहां के रहने वाले हैं। साथ ही अवैध खननकर्ताओं का नाम भी विज्ञप्ति में नहीं है। उन्होंने यह भी नहीं स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट में अपनी जिम्मेदारियों में लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ उन्होंने क्या कार्रवाई की है। जिलाधिकारी संजय कुमार से जब मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट की छायाप्रति मांगी गई तो वह कल-परसों देने की बात कहकर अपना पीछा छुड़ाते नजर आए। हालांकि उन्होंने अभी तक मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट की छायाप्रति मुहैया नहीं कराई है।

जिला सूचना और जन संपर्क विभाग की ओर से गत 21 अप्रैल को जारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि रॉबर्ट्सगंज तहसील के बिल्ली-मारकुंडी ग्राम में 27 फरवरी, 2012 को हुई खनन दुर्घटना में अपर जिला मजिस्ट्रेट, सोनभद्र और मुख्य विकास अधिकारी, सोनभद्र ने न्यायिक जांच की। मुख्य विकास अधिकारी महेंद्र सिंह ने मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट गत 18 अप्रैल को जिला अधिकारी के सामने प्रस्तुत की जिसमें पाया गया कि खदान धंसने की घटना अवैध खनन होने के साथ खनन कार्य में निर्धारित प्रक्रिया और मानकों की पालन नहीं होने के कारण हुई है। यह अवैध खनन कुछ व्यक्तियों ने बिना पट्टे वाली भूमि पर और कुछ पट्टाधारकों द्वारा अपने पट्टा क्षेत्र से अधिक भूमि पर किया गया। राजस्व एवं खनिज विभाग के अधिकारियों द्वारा किये गये संयुक्त निरीक्षण में यह पाया गया कि 27 फरवरी 2012 की घटना आराजी संख्या-4452 में हुई है जिसमें कोई पट्टा नहीं है और इस नम्बर के समीप आराजी संख्या-4449 तथा 4471 में भी अवैध खनन हुआ है जो पहाड़ खाते की भूमि, सुरक्षित वन भूमि तथा काश्तकारों की भूमि है। समीप के आराजी संख्या-4448, 4450 तथा 4471घ के पट्टाधारकों द्वारा भी नियमों के विपरीत खनन किया जाना पाया गया। उक्त घटना के संबंध में थाना ओबरा में जो प्रथम सूचना रिपोर्ट अंकित करायी गई थी, उसमें आरोप पत्र दाखिल किया जा चुका है।
          
विज्ञप्ति में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट जांच में उक्त आराजी संख्याओं में अवैध खनन के साथ-साथ खनन कार्य में निर्धारित प्रक्रिया और मानकों का पालन नहीं किया गया है। नियमों के विपरीत खनन कार्य होने के लिए उत्तरदायी खनिज विभाग के तत्कालीन खान अधिकारी एके सेन, पूर्व खान अधिकारी वीपी यादव, तत्कालीन वरिष्ठ खनन सर्वेक्षक धीरेंद्र कुमार शर्मा, खनन सर्वेक्षक दयाराम, वन भूमि पर अवैध खनन होने के लिए उत्तरदायी तत्कालीन प्रभागीय वनाधिकारी, ओबरा एसपी चौरसिया, अवैध खनन होने और दबंगई के बल पर खनन कार्य करने की शिकायतें प्राप्त होने पर कोई कार्यवाही नहीं करने के लिए उत्तरदायी तत्कालीन थाना प्रभारी ओबरा शेषधर पाण्डेय, ग्रामसभा की पहाड़ और परती भूमि पर अवैध खनन की सूचना नहीं देने तथा उसे रोकवाने का प्रयास नहीं करने के लिए उत्तरदायी ग्राम पंचायत बिल्ली-मारकुण्डी के प्रधान राजाराम और ग्रामसभा की पहाड़, परती भूमि पर अवैध खनन होने की सूचना नहीं देने या उसे रोकवाने की कार्यवाही नहीं करने के लिए उत्तरदायी तत्कालीन क्षेत्रीय लेखपाल श्रीराम के विरुद्ध कार्रवाई प्रस्तावित की गई है। उक्त अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई के बाबत जब जिलाधिकारी संजय कुमार से बात की गई तो वे पूर्व के एफआईआर का हवाला देकर पल्ला झाड़ते नजर आए।


गौतरलब है कि सोनभद्र में कनहर सिंचाई परियोजना को लेकर विस्थापितों और जिला प्रशासन के नुमाइंदों में घमासान मचा हुआ है। गत 14 अप्रैल को विस्थापितों और पुलिस प्रशासन के नुमाइंदों के बीच झड़प और गोलीबारी की घटना भी हुई थी जिसमें सुंदरी गांव निवासी विस्थापित अकलू चेरो को पुलिस ने गोली मार दी थी। उसका इलाज वाराणसी स्थित सर सुंदरलाल चिकित्सालय, बीएचयू में चल रहा है। इसके बाद गत 18 अप्रैल की सुबह परियोजना स्थल पर धरना दे रहे विस्थापितों और पुलिस प्रशासन के बीच एक बार झड़प हुई जिसमें पुलिस और पीएसी के जवानों ने धरनारत विस्थापितों पर लाठीचार्ज किया। इतना ही नहीं उन्होंने उनके उपर रबर की गोलियां दागी और आंसू गैस के गोले छोड़े जिसमें करीब डेढ़ दर्जन लोग घायल हो गए। पुलिस प्रशासन ने घायलों को गिरफ्तार कर लिया। साथ ही धरनारत विस्थापितों को परियोजना स्थल से करीब दो किलोमीटर परिधि से दूर खदेड़ दिया है और पूरे इलाके को सीज कर उनकी आवाज को दबाने की कोशिश कर रही है। पिछले दिनों दिल्ली से सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की स्वतंत्र जांच टीम विस्थापितों पर गोली चलाने की घटना की जांच करने डूब क्षेत्र के गांवों का दौरा करने जा रही थी लेकिन पुलिस ने उन्हें हिरासत में लिया। 

जिलाधिकारी के हस्तक्षेप के बाद उन्हें वापस दिल्ली रवाना कर दिया गया। इस बीच स्वतंत्र जांच दल को कनहर सिंचाई परियोजना निर्माण समर्थकों और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने करीब दो घंटे दुद्धी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बंधक बनाये रखा। बाद में दुद्धी तहसील के उपजिलाधिकारी ने अपने वाहन से उन्हें शहर से बाहर निकाला। जांच दल के साथ हुई इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर विस्थापितों की आवाज पहुंचा दी जिससे जिला प्रशासन सकते में आ गया। राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच रही विस्थापितों की आवाज से ध्यान बंटाने के लिए जिला प्रशासन ने आनन-फानन में पिछले तीन सालों से अधिक समय से लंबित बिल्ली-मारकुंडी खनन हादसे से संबंधित मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट के अंशों को सार्वजनिक कर दिया। हालांकि उसकी यह रणनीति कारगर होती दिखाई नहीं दे रही है। उधर नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटेकर 25 अप्रैल को कनहर परियोजना के विस्थापितों से मिलने डूब क्षेत्र पहुंची। वहां उन्होंने लोगों से बात कीं। उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन को लोगों से संवाद स्थापित करनी चाहिए। जबरदस्ती करने से संघर्ष और तेज होगा। उन्होंने पुलिस प्रशासन द्वारा ग्रामीणों के खिलाफ की गई कार्रवाई की निंदा कीं।

रविवार, 10 अगस्त 2014

पीयूसीएल के जिला सम्मेलन में उठा मानवाधिकार को परिभाषित करने का मुद्दा

सत्ता में काबिज सरकारें और उनकी पुलिस संगठित रूप से कर रहीं मानवाधिकारों का उल्लंघन।

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो

दुद्धी (सोनभद्र) लोक स्वतंत्र मानवाधिकार संगठन "पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल)" की सोनभद्र इकाई के वार्षिक सम्मेलन में मानवाधिकार को परिभाषित करने का मुद्दा उठा। स्थानीय इच्छितापुरम् कॉलोनी स्थित एक गेस्ट हाउस में शनिवार को आयोजित सम्मेलन में संगठन के प्रदेश अध्यक्ष चितरंजन सिंह ने कहा कि सरकार ने आज तक मानवाधिकार का परिभाषा घोषित नहीं किया है। इस वजह से मानव अधिकारों को लेकर हमेशा संशय बना रहता है। मनुष्य के लिए जो जरूरत की चीजें हैंसत्ता ने लोगों को उससे दूर रखा है। देश और प्रदेश में बड़े पैमाने पर मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है। इसलिए मानवाधिकार को नए सिरे से परिभाषित किए जाने की जरूरत है।

पीयूसीए की सोनभद्र इकाई के वार्षिक
सम्मेलन को संबोधित करते संगठन
के प्रदेश अध्यक्ष चितरंजन सिंह।
उन्होंने देश में किसानों और गरीबों की स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा कि देश में साढ़े चार लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। करीब सवा एक लाख लोगों की मौत हर साल भूख से हो रही है। इसलिए विकास के मॉडल को मानवाधिकार के नजरिए से भी देखने की जरूरत है। हमें मानवाधिकार के क्षेत्र को और अधिक विकसित करना पड़ेगा।वहींसंगठन के प्रदेश उपाध्यक्ष अजीत सिंह ने कहा कि भारतीय बाजार विदेशियों के लिए खोला जाना चिंताजनक है। इसने भारतीय बाजार को तबाह कर दिया है जिससे मानवाधिकारों का उल्लंघन बड़े पैमाने पर हो रहा है।

पीयूसीएल के प्रदेश संगठन सचिव और अधिवक्ता विकास शाक्य ने संगठन का परिचय देते हुए कहा कि मानवाधिकार स्वतंत्र रूप से अपने फैसले को लागू नहीं करा सकता है और ना ही वह किसी मामले की जांच करा सकता है। उसे अपने फैसले को लागू कराने के लिए सरकारी एजेंसियों और निर्वाचित सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। इस वजह से लोगों के मानवाधिकार उल्लंघन पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। वास्तव में मानवाधिकार उल्लंघन के लिए एक स्वतंत्र जांच एजेंसी होनी चाहिए और कानून में यह प्रावधान होना चाहिए कि वह अपने फैसले का अनुपालन सुनिश्चित करा सके। 

गैर-सरकारी संस्था गुड़िया के निदेशक अजीत सिंह 
"वनांचल एक्सप्रेस" का अवलोकन करते हुए
पीयूसीएल के प्रदेश संगठन
 सचिव विकास शाक्य

पीयूसीएल के प्रदेश सचिव चितरंजन सिंह
को सम्मानित करते हुए लवकुश प्रजापति
पीयूसीएल की दुद्धी इकाई के संरक्षक डॉ. लवकुश प्रजापति ने मानवाधिकार के साथ-साथ मनुष्य की बुनियादी जरूरतों पर भी ध्यान देने की बात कही। उन्होंने कहा कि हमें इस बात पर भी चिंतन करना चाहिए कि मनुष्य की जो जरूरते हैंउसके आधार पर मानवाधिकार को परिभाषित किया जाए। पूर्व छात्र नेता और सामाजिक कार्यकर्ता विजय शंकर यादव ने कहा कि मानवाधिकारों की सुरक्षा एवं सम्मान के लिए भारत के प्रत्येक नागरिक को जागरूक होना पड़ेगा। जबतक हर नागरिक अपने अधिकारों के लिए लड़ने का जज्बा नहीं बना लेतातब तक सही मायने में मानव अधिकारों को सुरक्षा नहीं मिल पाएगा। इसके लिए अभियान चलाने की जरूरत है। 

आदिवासी बहुल सोनभद्र से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक समाचार-पत्र "वनांचल एक्सप्रेस" के संपादक शिव दास प्रजापति ने कहा कि सत्ता में काबिज सरकारें और उनकी पुलिस संगठित रूप से मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही हैं। देश और प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ों में खुलेआम बेगुनाहों का कत्ल किया जा रहा है। इतना ही नहीं उन्होंने इन कत्लेआम को अंजाम
पीयूसीएल, सोनभद्र के वार्षिक अधिवेशन
को संबोधित करते हुए "वनांचल एक्सप्रेस"
के सम्पादक शिव दास प्रजापति
देने के लिए अपना तरीका भी बदल दिया। वे अब एक सोची-समझी साजिश के तहत खनिज संपदा से परिपूर्ण इलाकों में अवैध खनन को अंजाम दे रही हैं। वहां खुलेआम मजदूरों के मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है जिससे वे हर दिन हजारों की संख्या में मारे जा रहे हैं। 

सोनभद्र-मिर्जापुर समेत प्रदेश के विभिन्न इलाकों में हुए खनन हादसे इस बात के गवाह हैं। उसमें मारे गए लोगों को आज तक मुआवजा नहीं मिला है क्योंकि सत्ता द्वारा मामले की जांच के लिए बैठाई गई जांच कमेटी सालों बीत जाने के बाद भी अपनी रिपोर्ट शासन-प्रशासन को नहीं सौंप रही हैं। 27 फरवरी, 2012 को बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में हुआ खनन हादसा इसका जीवंत उदाहरण है जिसकी जांच रिपोर्ट ढाई सालों बाद भी राज्य सरकार को नहीं सौंपी गई है। जबकि सोनभद्र में अवैध खनन का मामला उच्चतम न्यायालय में भी उठ चुका है और उसने इसे पूर्ण रूप से प्रतिबंधित कराने का आदेश दिया है।

सम्मेलन को डॉ. एके गुप्ताडॉ. तेजबल वैद्यशोहराब खानप्रभु सिंह एडवोकेटप्रमोद चौबेदेवमणिफौजदार सिंह 
सामाजिक कार्यकर्ता विजय शंकर यादव
परस्तेकमलेश सिंह आदि ने भी संबोधित किया। इस मौके पर संगठन के प्रदेश अध्यक्ष चितरंजन सिंह,उपाध्यक्ष अजित सिंह और पूर्व छात्र नेता विजय शंकर यादव को उनके संघर्षों के लिए अंगवस्त्रम् भेंटकर सम्मानित भी किया गया। 

सम्मेलन के द्वितीय पारी में सर्वसम्मति से अधिवक्ता महेन्द्र सिंह कुशवाहा को पीयूसीएल का नया जिलाध्यक्ष चुना गया। वहीं अभिषेक विश्वकर्मा को जिला संगठन सचिवजितेन्द्र चंद्रवंशीगोविंद अग्रहरी और संजय गुप्ता को जिला उपाध्यक्ष चुना गया। निवर्तमान जिलाध्यक्ष श्यामाचरण गिरी ने आगंतुकों को धन्यवाद ज्ञापित किया जबकि कार्यक्रम का संचालन संगठन के दुद्धी इकाई के अध्यक्ष जितेन्द्र कुमार चंद्रवंशी ने किया। इस मौके पर सैकड़ों गणमान्य लोग उपस्थित रहे।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

बंद रास्तों की राह दिखा गए सुनील

चौधरी राजेन्द्र
मिश्रित अर्थव्यवस्था से सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं किया जा सकता? सामाजिक सरोकारों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन की जरूरत होती है। 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था का परिदृश्य एक नए आर्थिक मॉडल के पथ पर आगे बढ़ने लगा। इसको हम मनमोहन मॉडल के रूप में जानते हैं। हालांकि इस मॉडल की पृष्ठभूमि मिश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में देश की आजादी के समय ही तैयार हो गई थी जिसे 1947 के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने लागू कर दिया... 

written by Chaudhary Rajendra

गे रास्ता बंद है! बंद रास्ते की तलाश में मैं 1993 में ही सीतापुर के नेमिषारण जाना चाह रहा था क्योंकि वेद व्यास ने वहां महाभारत के दर्शन की रचना की थी और मैं उसे समझना चाह रहा था। हालांकि 2007 के पहले यह संयोग नहीं बन पाया। आज से करीब सात साल पहले जनवरी-फरवरी महीने में कुछ समाजवादी चिंतकों ने काशी से कुशीनगर तक 28 दिनों की सह-सहयोग यात्रा निकाली। इसी दौरान नेमिषारण मेरा भी जाना हुआ। वापसी के समय मैं सह-सहयोग यात्रा में मऊ में शामिल हुआ और पूरी यात्रा के दौरान आगे का रास्ता क्या होगा? पर चर्चा करता रहा। यह बहस उस समय केवल वातावरण में ही विद्यमान रही, इसकी जमीन तैयार नहीं हो सकी।

करीब डेढ़ साल बाद नवंबर, 2008 में काशी विश्व विद्यालय ( काशी हिन्दू विश्व विद्यालय नहीं क्योंकि इसकी स्थापना काशी विश्व विद्यालय के नाम से ही हुई थी) स्थित अर्थशास्त्र विभाग की प्रमुख प्रो. किरन वर्मन और सामाजिक कार्यकर्ता लोलारक द्विवेदी के संयुक्त प्रयास से इंडियन इकोनॉमी इन दी ट्वेन्टी फर्स्ट सेंचुरीः प्रॉस्पेक्टिव ऐंड चैलेन्जेज विषयक एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें मुख्य वक्ता के रूप में समाजवादी चिंतक सुनील ने शिरकत की। 

परिचर्चा में साथी सुनील ने आर्थिक मंदी और उसके विभिन्न कारणों का बखूबी विश्लेषण किया। आगे रास्ता क्या होगा? संभवतः इसकी परिकल्पना भी उनके दिमाग में थी। दुनिया में पहली बार आयी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (1929) और वर्तमान आर्थिक मंदी (2009) के बीच अंतराल लगभग 100 वर्ष का है। इसलिए दोनों आर्थिक मंदियों के कारणों की चर्चा की जाए। इसके लिए जरूरी है कि उनका तथ्यात्मक परीक्षण भी किया जाए।

उक्त गोष्ठी में मेरी भांजी चंद्रकला ने भी अर्थशास्त्र की शोध छात्रा के रूप में शिरकत की थी। उसे मैंने समझाया था कि दोनों आर्थिक मंदियों के कारण भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद या यूं कहें कि वोल्शेविक क्रांति के बाद दुनिया में उसके दुष्परिणाम सामने आए। करोड़ों लोग मारे गए थे। 

संभवतः वह विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का प्रमुख कारण था। पेरिस शांति समझौता के बाद इस मंदी को उबारने के लिए महान अर्थशास्त्री केन्स ने पूर्ण रोजगार का सिद्धांत प्रतिपादित किया। गौर करने वाली बात है कि "केन्स बाजार का प्रवर्तक है और बाजार से समता नहीं आती।" परन्तु विश्व को आर्थिक रूप से उबारने के लिए मित्र राष्ट्र का जो फार्मूला था, वह कारगर दिशा की ओर अग्रसर हुआ।


सुनील भाई
द्वितीय विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (2009) के कारण बड़े अजीब हैं। इस बार कोई युद्ध नहीं हुआ लेकिन सोवियत रूस ने वैज्ञानिक समाजवाद के जिस सिद्धांत को लागू किया था, वह मिखाईल गोर्वाचोव के राष्ट्रपति बनने के बाद कमजोर पड़ने लगा था। कारण था, मिखाईल गोर्वाचोव ने पूरे वैज्ञानिक समाजवाद को बदल दिया और नवउदारवाद-वैश्वीकरण-बाजारीकरण की मिश्रित अर्थव्यवस्था के नए स्वरूप को अपनाया। संभवतः यह सोवियत रूस का आंतरिक कारण रहा होगा। दूसरी ओर चीन माओत्से तुंग के दर्शन से हट कर संघाई मॉडल की तरफ अग्रसर हो चुका था।

दुनिया में बाजार का दौर शुरू हो चुका था। वैज्ञानिक समाजवाद पीछे छूट गया था। राष्ट्र अपनी-अपनी पूंजी बढ़ाने में लगे थे। चाहे वह अमेरिका रहा हो या फिर सोवियत संघ! तीसरी दुनिया के देशों में भी इस नवउदारवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। संभवतः यह बड़े राष्ट्रों द्वारा छोटे राष्ट्रों के शोषण की शुरुआत थी।  

भारत में 1991 की घटना के बाद या यूं कहें कि मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के बाद एक नए राजनीतिक परिदृश्य का जन्म हुआ। अभी हम मिश्रित अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ रहे थे। मिश्रित अर्थव्यवस्था से सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं किया जा सकता? सामाजिक सरोकारों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन की जरूरत होती है। इसे महसूस किया गया। 

लिहाजा 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था का परिदृश्य एक नए आर्थिक मॉडल के पथ पर आगे बढ़ने लगा। इसको हम मनमोहन मॉडल के रूप में जानते हैं। हालांकि इस मॉडल की पृष्ठभूमि मिश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में देश की आजादी के समय ही तैयार हो गई थी जिसे 1947 के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने लागू कर दिया। 

सन् 1992 के बाद राजसत्ता की ताकत उन्हीं हाथों में थी और उन्हें आर्थिक संसाधनों की तलाश थी। मिश्रित अर्थव्यवस्था में विकास दर 4 प्रतिशत थी। इसे बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिन्हा राव ने बाजार का सहारा लिया और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने इस देश को नवउदारवाद, वैश्वीकरण और बाजारवाद में पूर्ण रूप से झोंक दिया।

इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए साथी सुनील ने गोष्ठी में भारतीय मॉडल को पेश किया। उन्होंने कहा कि आगे रास्ता बंद है और बाजार समता नहीं ला सकती। कुछ लोगों को लूट के जरिए आगे बढ़ाने से अच्छा है कि हम पीछे लौटें। हमको पीछे लौटने में क्या गुरेज है? कटोरा लेकर भीख मांगने से अच्छा है, हम पीछे लौट लें। संभवतः सुनील अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मार्क्स-गांधी-लोहिया के संयुक्त सिद्धांत को आगे बढ़ाने की बात कह रहे थे। 

उन्ही दिनों उनके एक साथी समरेन्द्र की किताब आउट ऑफ दिस अर्थ का विमोचन प्रो. दीपक मलिक ने अस्सी घाट पर आयोजित एक कार्यक्रम में किया। यह किताब नियमगिरि पर्वत के बहाने पूंजीघरानों द्वारा प्रकृति के चीरहरण से खड़ा की जाने वाली एक नई आर्थिक व्यवस्था के खतरे की ओर इशारा करती है। प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट केवल नियमगिरि में ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही है।

साथी सुनील से मेरी दूसरी मुलाकात समाजवादी चिंतक अफलातून की बिटिया की शादी में हुई। उसमें केवल एक चर्चा हमने की थी कि आप तीनों, सीताराम येचूरी, प्रकाश कारात एवं सुनील, एक ही गुरु के शिष्य हैं लेकिन तीनों की सोच में अद्भूत अंतर है। समाजवादी चिंतक सुनील ने स्वीकार किया कि हम लोग जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रो. प्रभात पटनायक के शिष्ट रहे हैं। हालांकि हम लोगों के बीच दो-तीन वर्षों का अंतर है।

मेरी तीसरी मुलाकात उनसे समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन (सर्व सेवा संघ, राजघाट, वाराणसी) में हुई। इन्ही दिनों हमारे गांव का मंदिर टूट गया। मंदिर किसी गांव की आत्मा होती है। आत्मा का टूटना अशुभ का संकेत माना जाएगा। मैं 1991 के बाद आजाद भारत के नवउदारवाद का विश्लेषण देख रहा था। मैं देख रहा था कि यह देश भारत के नौजवानों को किस ओर ले जा रहा है। मूल्य गिर रहे थे। 

वैचारिकता का अभाव साफ दिख रहा था। मैं तीन दिन उसी कार्यक्रम में रहा लेकिन समाजवादी जन परिषद का सदस्य नहीं बना। सुनील और उनके सभी साथियों का आग्रह था कि आप संगठन में शामिल हो जाएं। मैं सभी साथियों के साथ चर्चा में अवश्य रहा लेकिन संगठन की सदस्यता ग्रहण नहीं किया। 

उसी के कुछ दिन पहले गोवा में बीजेपी का राष्ट्रीय अधिवेशन हो रहा था। उसमें भूचाल आया हुआ था। आरएसएस ने प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रोजेक्ट करने का फैसला कर लिया था जबकि आडवाणी खेमा उस फैसले के विरोध में खड़ा था और मानमनौवल जारी था। वहीं राजग से नीतीश कुमार की दूरी चर्चा का विषय बन चुकी थी। मोदी और नीतीश एक साथ नहीं रह सकते थे। 

देश हतप्रभ था। समाजवादी चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन इस बात से चिंतित थे कि नीतीश कुमार अब क्या करेंगे। वह कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि पिछड़ों का मॉडल इस देश को स्वीकार है कि नहीं। हालांकि नीतीश का मॉडल देश का मॉडल नहीं हो सकता। मणिक सरकार और चंद्रबाबू नायडू या यूं कहें कि तमिलनाडु का मॉडल देश का मॉडल नहीं बन सकता। फिर भी ऐसे मॉडलों से अरविन्द मोहन जैसे समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी परेशान थे।

इन विश्लेषणों में न जाया जाए तो एक बात साफ थी कि समरेन्द्र की किताब और उनके साथियों द्वारा वेदांता के खिलाफ चलाया जा रहा आंदोलन अधिवेशन में चर्चा के विषय बने रहे। इंग्लैंड में वेदांता के खिलाफ आंदोलन की अगुआई कर रही मीरियम रोज और उनकी साथी भी इस अधिवेशन का हिस्सा बनीं। 

अधिवेशन का प्रतिफल जो भी रहा हो लेकिन समाजवादी जन परिषद अंदर और बाहर दोनों तरफ लड़ाई शुरू करना चाह रहा था। हालांकि इसके लिए आवश्यक संगठन अभी तैयार नहीं था। उसके भी कारण में मेरे गांव का मंदिर टूटना है, ऐसा मुझे लगता है। उन दोनों को आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और बाजारीकरण के रूप में देखा जा सकता है। देश का मूल्य टूट चुका था और नए सृजन की तलाश की जा रही थी?

साथी सुनील से मेरी चौथी मुलाकात चंचल मुखर्जी की किताब की दुकान पर हुई जो बहुत महत्वपूर्ण और जरूरत की थी। अर्जक संघ के साथियों के साथ संभवतः उनकी अंतिम मुलाकात थी। इस मुलाकात में समाजवादी चिंतक सुनील की बहुत सारी बातें सामने आईं। अर्जक संघ के साथियों ने भी उन्हें काफी प्रभावित किया। साथी सुनील ने कबीर के एक दोहे से अपनी बात खत्म की-

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप स्वभाव,
सार-सार को गहि रहै, थोता देहि उड़ाए।

आज मैं उनके विश्लेषण का आकलन करता हूं कि प्रयोगधर्मी के रूप में सुनील ने समाज में एक नया आयाम पैदा किया। कल क्या होगा, परिस्थितियां क्या बनेंगी, कैसे बनेंगी, यह गर्भ में है! लेकिन रास्ते की तलाश में सुनील भी हैं? और उनका रुचिकर ध्येय है!

बंद रास्ते की तलाश अधूरी है या पूर्ण होगी, यह गांधी के शिष्यों पर निर्भर करेगा।

सुनील नहीं हैं, परन्तु यादे हैं।
यादें नई सृजन की जमीन तय करेंगी?         

                               (लेखक पूर्व छात्रनेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

सोमवार, 4 अगस्त 2014

मैं नास्तिक क्यों हूं?

                                          
(नोटः भगत सिंह ईश्वर के अस्तित्व को सिरे से नकारते थे। उन्होंने यह लेख जेल में रहते हुए लिखा था जो उनके लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में शुमार रहा है। इस लेख में उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी धारणा और तर्कों को सामने रखा है। यहां इस लेख का कुछ हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है....)

मेरे प्रिय दोस्तों! ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हां, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस अमरता (आत्मा की) में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फांसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं...

भगत सिंह

प्रत्येक मनुष्य, जो विकास के लिए खड़ा है, को रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उनपर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती भी देनी होगी। प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि काफी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है तो उसके विश्वास का स्वागत है। उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है। हालांकि निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी।

यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना। यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा। इसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है। जहां तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूं। 

एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी लेकिन ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला। हालांकि जहां-तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूं। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, का कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है। इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।

हां-तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं- (i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं। कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है। 

यदि वह किसी नियम में बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं। फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है। नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए। उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं। 

एक चंगेज़ खां ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो, जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, को किस तरह न्यायोचित ठहराते हो? फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं? 

इसलिए मैं पूछता हूं, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?" मैं पूछता हूं कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है? सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?

इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है। ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा

ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहां तक उचित था कि एक भूखे-खूंखार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो। यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी? इसलिए मैं पूछता हूं, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’

मुसलमानों और ईसाइयों! हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं। मैं पूछता हूं कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है? तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है। उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। 

फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं।

उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा। अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बांटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है।’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो? ठीक है तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूं।

हिंदुओं! तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, वे पूर्वजन्म के पापी हैं। ठीक है। तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, इसलिए वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहां तक टिकती हैं। 

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है।

केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। 

तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूं कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है।

मैं पूछता हूं कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की प्रशंसा आप कहां तक करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे। वह अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो

किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर, के यहां पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूंकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊंची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊंचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?

उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा। उन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। 

ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हां, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फांसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं।

मैं पूछता हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया? मैं पूछता हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। 

उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया। इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया? उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूंजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें

आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूं कि वह इसे लागू करे। भगत सिंह का जन्म एक सिख परिवार में हुआ जो आर्यसमाज में आस्था रखता था। जहां तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं लेकिन वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं।

चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज को सही तरीके से कर दें। अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं। मैं आपको यह बता दूं कि अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं है। वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं, बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं।

यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज है तो उसका नाश हो।

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूं? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूं। चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसको पढ़ो। सोहन स्वामी की सहज ज्ञानपढ़ो। तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा। यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है। विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। 

इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव। डारविन की जीव की उत्पत्तिपढ़ो। सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है। तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लंगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?

जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है। उनके अनुसार, इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं। वे बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं। स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है। वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे। 

अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित। ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं और कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बांधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की।

कुछ उग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे। वे उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएं अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बांधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की कल्पना एवं चित्रण बढ़ा-चढ़ाकर किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए।

जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। 

वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है। समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरुद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरुद्ध लड़ना पड़ा था।

मेरे दोस्तों! यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना, जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूं, मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी। 

इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियां उसे पलट सकती हैं। मेरी स्थिति आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है।

मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक मर्द की तरह फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं। देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूं। 

मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा,देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे। मैंने कहा, नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।पाठको और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं इसे स्वीकार करता हूं।