शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सत्ता का धंधाः दलित, आदिवासी, किसान और अल्पसंख्यक

2012 में 33,655 मामले दलित उत्पीड़न के थे तो 2015 में यह आंकड़ा 50 हजार पार कर गया। किसानों की खुदकुशी में भी तेजी आ गई। सिर्फ 2015 में ही हर दो घंटे एक किसान देश में खुदकुशी करने लगा। करीब साढे चार हजार किसानो ने खुद को इसलिये मार लिया कि जिन माध्यमों से उन्होंने पैसा लेकर खेती की, वह पैसा लौटाने की स्थिति में वह नहीं थे। और कर्ज बढता जाता। कर्ज लौटाने की धमकी को सहने की ताकत उनमें थी नहीं तो खुदकुशी कर ली। खुदकुशी करने वाले बारह सौ किसानो ने ग्रामीण बैक से कर्ज लिया था। यानी साहूकारी या दूसरे निजी माध्यम उनके बीच नहीं थे। बल्कि खुद सरकार ही थी। उसी का तंत्र था। वही तंत्र जो बैंकों के जरीये कारपोरेट और बडी कंपनियों को करीब तेरह लाख करोड़ दे चुका है और वह आजतक लौटाया नहीं गया...

पुण्य प्रसून वाजपेयी

लित, किसान और अल्पसंख्यक । तीनों वोट बैक की ताकत भी और तीनों हाशिये पर पड़ा तबका भी । आजादी के बाद से ऐसा कोई बजट नहीं । ऐसी कोई पंचवर्षीय योजना नहीं , जिसमें इन तीनो तबके को आर्थिक मदद ना दी गई हो और सरकारी पैकेज देते वक्त इन्हे मुख्यधारा में शामिल करने का जिक्र ना हुआ हो । नेहरु को भी आखिरी दिनों [ 1963-64 ] में किसानों के बीच राजनीतिक रैली के लिये जाना पड़ा और लालबहादुर शास्त्री ने तो जय जवान के साथ जयकिसान का नारा लगाया। पटेल से लेकर मौलाना कलाम तक मुस्लिमों को हिन्दुस्तान से जोड़ते हुये उन्हे उनके हक को पूरा करने का वादा करते रहे । आंबेडकर से लेकर वीपी सिंह तक दलितो के हक के सवालों को उठाते रहे । साधते रहे । तो मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी अगर किसान रैली की तैयारी कर रहे हैं और राहुल गांधी दलित अधिवेशन करना चाह रहे है तो कई सवाल एक साथ निकल सकते है । पहला , क्या देश को देखने का नजरिया अभी भी जाति , धर्म या किसान-मजदूर में बंटा हुआ है । दूसरा , राजनीतिक मलहम में ऐसी कौन सी खासियत है जो सियासत को राहत देती है लेकिन समाज को घायल करती है । तीसरा, अगर हिन्दू राष्ट्र की सोच तले मुसलमान खुद को असुरक्षित मानता है तो फिर बढती विकास दर के बीच भी किसानो की खुदकुशी अगर बढ़ती है । गरीबो के हालात और बदतर होती जाती है । तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठ पाता कि सांप्रदायिकता हो या अर्थ नीति दोनो में ही अगर नागरिकों की ही जान जा रही है तो फिर सवाल हिन्दू-मुस्लिम या गरीब-बीपीएल में क्यों उलझा दिया जाता है ।

यानी अपराध है क्या और देश के विकास के लिये कौन सा मंत्र अपनाने की जरुरत है । इस पर संविधान कुछ नहीं कहता या फिर राजनीतिक सत्ता पाने के तौर तरीको ने संविधान को भी हड़प लिया है ।  क्योंकि जिस रास्ते पर मौजूदा राजनीति चल रही है अगर इसके असर को ही देख लें तो दलित उत्पीड़न के मामले बीते तीन बरस में ही पचास फिसदी बढ़ गये । 2012 में 33,655 मामले दलित उत्पीडन के थे । तो 2015 में यह आंकडा 50 हजार पार कर गया । किसानों की खुदकुशी में भी तेजी आ गई । सिर्फ 2015 में ही हर दो घंटे एक किसान देश में खुदकुशी करने लगा । करीब साढे चार हजार किसानो ने खुद को इसलिये मार लिया क्योंकि जिन माध्यमों से उन्होंने पैसा लेकर खेती की । वह पैसा लौटाने की स्थिति में वह नहीं थे । और कर्ज बढता जाता । कर्ज लौटाने की धमकी को सहने की ताकत उनमें थी नहीं तो खुदकुशी कर ली । 

खुदकुशी करने वाले बारह सौ किसानो ने ग्रामीण बैक से कर्ज लिया था । यानी साहूकारी या दूसरे निजी माध्यम उनके बीच नहीं थे । बल्कि खुद सरकार ही थी । उसी का तंत्र था । वही तंत्र जो बैंकों के जरीये कारपोरेट और बडी कंपनियों को करीब तेरह लाख करोड़ दे चुका है और वह आजतक लौटाया नहीं गया । और एनपीए की यह रकम लगातार बढ़ ही रही है।  इससे हटकर सरकार ही औद्योगिक संस्थानों या कारपोरेट सेक्टर को हर बरस अलग अलग टैक्स में ही तीन लाख करोड़ माफ कर देती है । लेकिन खेती और उससे जुडे संस्थानो पर दो लाख करोड़ की सब्सिडी सरकार को भारी लगती है । इसी तर्ज पर अलग दलित और मुस्लिमों के आर्थिक-सामाजिक हालात को परख लें तो हैरत होगी कि सांप्रदायिक हिंसा में 70 फिसदी मौत अगर इस तबके की हुई तो देश में दरिद्रता की वजह से होती मौतों में दलित आदिवासी और मुस्लिमों की तादाद 90 फिसदी के पार है । तो अगला सवाल कोई भी कर सकता है कि क्या हिन्दुस्तान का मतलब सिर्फ वहीं 12 से 20 फीसदी है जिसकी जेब में जीने के सामान खरीदने की ताकत है । जिसके पास पढने के लिये पूंजी है ।

जिसके पास इलाज के लिये हेल्थ कार्ड है । कह सकते है हालात तो यही है । क्योंकि मौजूदा वक्त में किसी राज्य के पास किसानों के लिये कोई नीति नहीं है । दलित उत्पीड़न रोकने की कोई सोच नहीं । हिन्दू-मुस्लिमों के सवाल को साप्रदायिक हिंसा के दायरे से बाहर देखने का नजरिया नहीं है । क्योंकि सत्ता पाना और सत्ता में टिके रहने का हुनर ही अगर गवर्नेंस है तो हर की हालत एक सरीखी है । चाहे वह सरकार कर्नाटक में कांग्रेस की हो या फिर गुजरात झारखंड, महाराष्ट्र,हरियाणा , छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में बीजेपी की । या फिर आंधप्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू की या तेलगांना में केसीआर की । या फिर उडिसा में नवीन पटनायक की या यूपी में अखिलेश यादव । हर राज्य में सूखा है । आलम यह है कि देश के 676 जिले में ले 302 जिले सूखाग्रस्त है । और इनकी पहचान उस शाईनिग इंडिया की सोच से बिलकुल अलग है जो हर राज्य का सीएम राजधानी में बेठकर देखना चाहता है । बारिकी को समझे तो हर सीएम चकाचौंध खोजने के चक्कर में गांव और किसान को अंधेरे में ढकेल रहा है । यही वजह है कि न्यूनतम जरुरत पूरी करने के लिये बनाये गये कार्यक्रम मनरेगा और खाद्द सुरक्षा मौजूदा वक्त में इतना महत्वपूरण हो गया है कि सुप्रिम कोर्ट को भी कहना पड रही है कि इसे लागू क्यो नहीं किया गया । 

मुश्किल इतनी भर नहीं है कि 2013-14 में जो कृर्षि विकास दर 3.7 फिसदी थी । वह 2014-15 में घटकर 1.1 फिसदी हो गई । मुश्किल यह है कि एक तरफ वित्त मंत्री देश की विकास दर 8 से 9 फिसदी तक पहुंचाने को बेहद आसान मान रहे है तो दूसरी तरफ भारत सूखे की वजह से जमीन के नीचे पानी इतना कम हो गया है कि हैडपंप की बिक्री में 30 फीसदी की कमी आ गई है । टैक्टर की बिक्री में 20 फिसदी की कमी आ गई है 20 फिसदी किसान मजदूर का पलायन बढ गया है । जो किसान गांव में हैं, वे हार्ट्रीकल्चर और पेड़ लगाने के काम से जा जुड़े हैं । यानी काम वहा भी कम हो रहा है । दूसरी तरफ शहरो में मजदूरो के बढ़ते बोझ ने उनकी मजदूरी को स्थिर कर दिया है । यानी न्यूनतम मजदूरी में कोई वृद्दि नहीं है । और हर राज्य सरकार का रुख भी उस इक्ननामी पर जा टिका है जो अपनी जमीन , अपने मानव संसाधन और अपने उत्पाद से दूर हो । यानी विदेशी निवेश के जरीये शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर की प्रथमिकता तले ही बेहाल भारत की यह तस्वीर उभर रही है । तो फिर गडबडी महज सिस्टम की नहीं है बल्कि सिस्टम को किस तंत्र के तहत चलाना है गड़बडी वहीं है । और सिस्टम का मतलब ही राजनीतिक सत्ता पाना हो जाये तो उस  नमूना पहले बिहार में नजर या अब असम में नजर  रहा है । 

बिहार से पहले दिल्ली चुनाव में केन्द्र के 39 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर वोटरो को सरकार के करीब लाने की कोशिश की । फिर बिहार में 27 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर बिहार में चुनाव जीतने में मशक्कत की । और अब असम चुनाव है तो प्रधानमंत्री मोदी 5 परवरी की रैली के बाद सात कैबिनेट मंत्रियो की रैली की तैयारी में असम है । सुषमा स्वराज , नीतिन गडकरी, धर्मेन्द्र प्रधान, निर्मला सीतारमण, नजमा हेपतुल्ला के अलावे बंगाल और असम के जो भी मोदी सरकार में मंत्रीन है सभी को चुनाव एलान से पहले जाकर असम में रैली करनी है । वादे करने है । यानी चुनाव होगें तो केन्द्रीय मंत्री भी पहुंचेगें लेकिन सरकारो के पास अगर कोई नीति ही नहीं है कि देश किस रास्ते जाना है तो एक दौर का असफल मनरेगा भी अन्हे सफल वगेगा और राजनीतिक जीत के लिये केन्र्य मंत्रियो का समूह ही उम्मीद जगायेगा । जाहिर में ऐसे में समाज के भीतर अंसतोष तो पनपेगा ।

वजह भी यही है कि न्यूनतम के लिये ही 2005 में नरेगा को समाज की भीतर शाकअब्जरवर माना गया । यानी किसान-मजदूर, दलित मजदूर, गरीबी में जिन्दगी गुजारने वाले अल्पसंख्यक तबके के भी   राजनीतिक सत्ता को लेकर अंसतोष ना पनपे इसके लिये नरेगा लाया गया था । जिसके पांच बरस पूरे हुये तो याद किजिये देश में राजनीतिक बहस क्या छिडी । बहस थी नरेगा से मनरेगा होने वाली स्कीम के फेल होने का । क्योकि मजदूरी बढी नहीं , किसानी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई । मनरेगा रोजगार से किसी योजना को अमली जामा पहनाया नहीं गया । 

मनरेगा बजट की लूट हर स्तर पर हुई । फिर एक वक्त मनमोहन सिंह को भी समझ में नही आया था कि मनरेगा और फूड सिक्यूरिटी को लेकर वह बजट कहां से लायेगा । और मनरेगा को लेकर यह सवाल प्रधानमंत्री मोदी का भी सत्ता संभालते वक्त रहा । लेकिन जिस इक्नामी को मोदी सरकार अपनाये हुये है उसमें गांवों में अंसतोष ना पनपे इसके लिये मनरेगा मोदी सरकार के लिये भी शाकअब्जर्वर का काम करने लगी ।यानी असफल योजना के सामने खुद सफल ना हो तो इसके लिये योजनायें कैसे सफल हो जाती है इसका हर चेहरा नेहरु के दौर से लेकर अभी तक की योजनाओ तले समझा जा सकता है क्योकि दलितो और आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर बीते 68 बरस में 2450 से ज्यादा योजनाएं बनायी गई । 

दस हजार से ज्यादा कार्यक्रमों का एलान किया गया लेकिन 1952 के पहले चुनाव और 2014 के चुनाव के बीच अंतर यही आया कि धीरे धीरे हर संस्था चाहे वह संवैधानिक संस्था हो या दबाब समूह के तौर पर काम करने वाली सामाजिक संस्था। हर संस्था राजनीतिक सत्ता की जद में आ गई। और राजनीति सत्ता के लिये ही दलित, आदिवासी, किसान, मुस्लिमों की पहचान बना दी गई।
(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं।)

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

TERRORISM: सत्ता संग पुलिस की साजिश बेनकाब, आठ साल बाद इकबाल बरी

बेगुनाहों की रिहाई पर स्थिति स्पष्ट करें मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और आईबी प्रमुखः रिहाई मंच
आईबी और सरकार संरक्षित आतंकी संगठन है दिल्ली स्पेशल सेलः रिहाई मंच

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। रिहाई मंच ने आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मोहम्मद इकबाल की आठ साल के बाद आज हुई रिहाई को वादा खिलाफ सपा सरकार के मुंह पर तमाचा बताया है। मंच ने कहा कि अगर सपा ने बेगुनाहों को छोड़ने के अपने वादे पर अमल किया होता तो इकबाल समेत दर्जनों युवा पहले ही रिहा हो गए होते।

रिहाई मंच प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने जानकारी दी कि लखनऊ स्थित वजीरगंज थाने की पुलिस ने शामली निवासी मोहम्मद असरा के बेटे इकबाल को 2007 में आईपीसी की धारा-307, 121, 121, 122, 124ए और यूएपीए की धारा-16, 18, 20 एवं 23 के तहत मुकदमा दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर लिया था। कोर्ट में यह अपराध संख्या-281/2007 के रूप में दर्ज हुआ जिसमें स्पेशल कोर्ट (जेल) लखनऊ ने मंगलवार को उन्हें दोषमुक्त कर दिया।

उन्होंने बताया कि इकाबाल के ऊपर लखनऊ के अलावा दिल्ली में भी आतंकवाद का आरोप था जिसमें वह पहले ही बरी हो चुके हैं। आलम ने जानकारी दी कि इकबाल आज जिस मुकदमें में दोषमुक्त हुए हैं उसमें उन पर आरोप यह था कि वह जलालुद्दीन व नौशाद के साथ जून 2008 में लखनऊ में आतंकी वारदात करने आए थे। 

रिहाई मंच प्रवक्ता ने कहा कि इससे पहले अक्टूबर 2015 में इस मुकदमें में इकबाल के सहअभियुक्त पहले ही जब रिहा हो चुके हैं तो ऐसे में जनू 2008 में लखनऊ में आतंकी घटना का षडयंत्र व पुलिस ने जो मुठभेड़ दिखाई वह फर्जी साबित होती है। ऐसे में तत्कालीन डीजीपी बिक्रम सिंह व एडीजी कानून व्यवस्था बृजलाल समेत पूरी पुलिस की टीम जहां निर्दोषों के खिलाफ षडयंत्र में लिप्त थी तो वहीं आईबी द्वारा इन कथित आतंकियों के बारे में जो इनपुट जारी किया गया था व जिसकी निशानदेही पर पुलिस ने मुठभेड़ दिखाकर इनको पकड़ा उस पर आईबी प्रमुख को अपना पक्ष रखना चाहिए।

मंच के प्रवक्ता ने बताया कि 21 मई 2008 को दिल्ली से इकबाल की गिरफ्तारी में मोहन चन्द्र शर्मा व संजीव यादव जैसे दिल्ली स्पेशल सेल के अधिकारी थे। जिन्होंने उस वक्त कहा था कि आतंकी संगठन हूजी से जुड़ा इकबाल ने राजधानी में जनकपुरी में विस्फोटक व अन्य पदार्थ छिपाए हैं और उसने पाकिस्तान में टेªनिंग ली थी। उन्होंने कहा कि बाटला हाऊस फर्जी मुठभेड़ में अपने ही पुलिस के साथियों द्वारा मारे गए मोहन चन्द्र शर्मा तो नहीं हैं पर संजीव यादव से जरूर पूछताछ करनी चाहिए कि इकबाल के पास से उन्होंने जो 3 किलो आरडीएक्स बरामद दिखाया था वह उनके पास कहां से आया था, उन्हें किसी आतंकी संगठन ने आरडीएक्स दिया था खुफिया विभाग ने। उन्होंने कहा कि इकबाल से पास से जो विस्फोटक बरामदगी दिस्ली स्पेशल सेल ने दिखाई थी, उसके अनुसार जिस व्यक्ति ने इकबाल को वह दिया था उसे दिल्ली की एक कोर्ट ने अपने फैसले में एक काल्पनिक शख्श बताया था। उसी काल्पनिक शख्स के नाम पर तारिक कासमी की भी गिरफ्तारी का पुलिस ने दावा किया था। 

उन्होंने कहा कि आतंकवाद के नाम पर हुई बेगुनाहों की रिहाई के बाद यह साबित हो जाता है कि आईबी मुस्लिमों के खिलाफ एक संगठित आतंकी संस्था के बतौर काम कर रही है। इन रिहाइयों पर आईबी चीफ को स्पष्टीकरण देना चाहिए। शाहनवाज आलम ने कहा है कि अब समय आ गया है कि खुद सुप्रीम कोर्ट दिल्ली स्पेशल सेल के खिलाफ अपनी निगरानी में आतंकवाद के मामलों में उसके द्वारा की गई गिरफ्तारियों की जांच कराए क्योंकि दिल्ली स्पेशल के दावे अनगिनत मामलों अदउलतों द्वारा खारिज किए जा चुके हैं। 

उन्होंने दिल्ली स्पेशल को सरकार और आईबी संरक्षित आतंकी संगठन करार देते हुए कहा कि कश्मीरी लियाकत शाह को फंसाने के मामले में तो एनआईए ने दिल्ली स्पेशल सेल के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश तक की है। जिसमें उसने पाया था कि लियाकत शाह को फंसाने के लिए दिल्ली स्पेशल सेल ने अपने ही एक मुखबिर साबिर खान पठान से लियाकत के पास से विस्फोटक दिखाने की कहानी गढ़ी थी। यहां यह जानना भी दिलचस्प होगा कि दिल्ली स्पेशल सेल का यह मुखबिर फरारचल रहा है। उन्होंने कहा कि जब दिल्ली स्पेशल सेल से जुड़े तत्व ही आतंकी घटनाओं में शामिल पाए जा रहे हैं और अदालत में उसे पेश करने के बजाए दिल्ली स्पेशल सेल उसे फरार बता रही है तब दिल्ली स्पेशल और उसके अधिकारियों द्वारा आतंकवाद के मामलों में की जा रही गिरफ्तारियों पर अदालतें कैसे भरोसा कर ले रही हैं।  

रिहाई मंच द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में मंच के नेता राजीव यादव ने बताया कि इकाबाल की रिहाई सिर्फ यूपी पुलिस द्वारा संगठित रूप से मुसलमानों को आतंकवाद में फसाने का सुबूत नहीं है बल्कि यह संगठित आतंकी गिरोह दिल्ली स्पेशल सेल की मुसलमानों को फंसाने की पूरी रणनीति का पर्दाफाश करती है। उन्होंने आरोप लगाया कि दिल्ली स्पेशल सेल पूरे देश में राज्यों के सम्प्रुभुता को धता बताते हुए बेगुनाहों को अपने टॅार्चर सेंटर में रखकर जब किसी राजनेता का कद बढ़ना होता है तब किसी मुस्लिम युवा को दिल्ली स्टेशन से गिरफ्तार दिखा देती है। उन्होंने कहा कि इकबाल के दोष मुक्त होने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती व वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। क्योंकि जहां यह मायावती के कार्यकाल में पकड़ा गया था तो वहीं अखिलेश यादव की वादा खिलाफी के चलते सालों जेल में सड़ने के लिए मजबूर था। उन्होंने बताया कि इकबाल ने यह संदेह जाहिर किया है कि उसके शरीर में चिप लगाई गई है। जो एक अलग से जांच का विषय है।


आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों का मुकदमा लड़ने वाले रिहाई मंच अध्यक्ष व इसम मामले के अधिवक्ता मुहम्मद शुऐब ने कहा कि आतंकवाद के नाम पर पकड़े जाने पर तो गृहमंत्री से लेकर डीजीपी तक बिना सबूतों के सार्वजनिक रूप से बेगुनाहों पर आतंकी का ठप्पा लगा देते हैं। ऐसे में अगर इन बेगुनाहों को वह देश का नागरिक मानते हैं तो इनकी रिहाई पर भी उन्हें सार्वजनिक रूप से माफी मांगना चाहिए। उन्होंने कहा कि आतंकवाद के नाम पर विदेशों से कई बार खबरें आती हैं कि वहां के प्रमुख बेगुनाहों से माफी मांगते हैं पर हमारे देश में लगातार हो रही बुगुनाहों की रिहाई के बाद भी सरकारें माफी मांगना तो दूर अफसोस भी जाहिर नहीं करतीं। 

उन्होंने कहा कि सरकार ने वादा किया था कि आतंक के आरोपों से बरी हुए लोगों को मुआवजा व पुर्नवास किया जाएगा पर खुद अखिलेश सरकार ने अब तक अपने शासन काल में दोषमुक्त हुए किसी भी व्यक्ति को न मुआवजा दिया न पुर्नवास किया। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को डर है कि अगर आतंक के आरोपों से बरी लोगों को मुआवजा व पुर्नवास करेंगे तो उनका हिन्दुत्वादी वोट बैंक उनके खिलाफ हो जाएगा। पुर्नवास व मुआवजा न देना साबित करता है कि अखिलेश यादव हिन्दुत्वादी चश्मे से बेगुनाहों को आतंकवादी ही समझते हैं। बेगुनाहों की रिहाई के मामले में वादाखिलाफी करने वाले आखिलेश यादव अब अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे या फिर 2012 के चुनावी घोषणा पत्र की तरह फिर बेगुनाहों को रिहा करने का झूठा वादा करेंगे। 
(प्रेस विज्ञप्ति) 

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

आदिवासियों को अब तमिलनाडु में भी जारी हो सकेंगे पट्टे, सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट का आदेश किया रद्द


30 अप्रैल 2008 को जारी अपने अंतरिम आदेश में मद्रास हाई कोर्ट ने कहा था कि इस कोर्ट की अनुमति के बगैर वनवासियों को जमीन का कोई पट्टा जारी नहीं किया जाएगा।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली। आदिवासियों को अब तमिलनाडु में भी अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वननिवासी (वनाधिकार मान्यता) कानून-2006, संक्षेप में वनाधिकार कानून, के तहत पट्टे जारी हो सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के उस अंतरिम आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें इसने वनाधिकार कानून के तहत वनवासियों को पट्टे जारी करने पर स्थगनादेश जारी कर दिया था। मद्रास हाई कोर्ट के इस स्थगनादेश के खिलाफ केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय ने याचिका दायर की थी।

पूरे देश में वनाधिकार कानून के तहत आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों को पट्टा जारी कर वन भूमि का आबंटन किया जा रहा है लेकिन मद्रास हाईकोर्ट के आदेश की वजह से तमिलनाडु में यह रुक गया था क्योंकि मद्रास हाई कोर्ट ने 30 अप्रैल 2008 को एक अंतरिम आदेश जारी कर कहा था कि हाई कोर्ट की अनुमति के बगैर वनवासियों को जमीन का कोई पट्टा जारी नहीं किया जाएगा।

इसके बाद केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय ने एक याचिका दायर की थी, जिसमें इस संबंध में दायर रिट याचिका को सुप्रीम कोर्ट भेज देने का आग्रह किया गया था। मंत्रालय ने हाई कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ एक विशेष अनुमति याचिका भी दायर की थी। इसके बाद मंत्रालय ने तमिलनाडु सरकार पर इस बात के लिए जोर डाला कि वह इस अंतरिम आदेश को रद्द कराने के लिए याचिका दायर करे।


सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस अभय मनोहर सप्रे और जस्टिस अमिताभ राय की तीन सदस्यीय बेंच ने इस मामले पर कल सुनवाई की थी। इस मामले में जनजातीय कार्य मंत्रालय की ओर से अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल पीएस नरसिम्हा अदालत में उपस्थित हुए थे। सरकार की ओर से दलील देते हुए उन्होंने कहा कि वनाधिकार कानून पूरे देश में लागू किया जा रहा है। इसलिए सिर्फ एक राज्य में इसे रोकने का कोई तुक नहीं बनता। सुप्रीम कोर्ट उनकी इस बात से सहमत था और इस तरह इसने 30 अप्रैल 2008 के मद्रास हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश को रद्द कर दिया।

ROHITH VEMULA: उच्च शिक्षा और परवरिश से भी दूर नहीं हुई रोहित की ‘जाति’


रोहिथ वेमुलाः एक अधूरी तस्वीर

उच्च जाति वर्ग के परिवार ने उसकी मां को गोद लिया था लेकिन उनसे नौकर जैसा बर्ताव करता था। अपने आत्महत्या नोट में इसे ही रोहित ने अपने जीवन की ‘‘घातक दुर्घटना’’ कहा।

by सुदीप्तो मंडल

रोहित वेमुला की कहानी उसके जन्म से 18 वर्ष पूर्व सन् 1971 की गर्मियों में गुन्टूर शहर से प्रारंभ होती है। यही वह वर्ष था जब रोहित की दत्तक नानी अंजनी देवी ने उन घटनाक्रमों को प्रारंभ किया, जिन्हें बाद में इस शोधार्थी ने अपने आत्महत्या नोट में गूढ़ रूप से ‘‘मेरे जीवन की घातक दुर्घटना कहा है।’’

अंजनी यानी रोहित की नानी ने हिन्दुस्तान टाइम्स को बताया, ‘‘यह 1971 की एक दोपहर के भोजन का समय था। बहुत तेज गर्मी थी। प्रशांत नगर (गुन्टूर) में मेरे घर के बाहर कुछ बच्चे नीम के पेड़ के नीचे खेल रहे थे। मुझे उनमें एक बेहद सुन्दर नन्ही बच्ची भी दिखाई दी। वह ठीक से चल भी नहीं पाती थी। शायद वह एक साल की उम्र से कुछ ही बड़ी होगी।’’ वह छोटी-सी लड़की रोहित की मां राधिका थी।

अपनी कहानी को बढि़या अंग्रेजी में बयान करते हुए वह स्थानीय तेलुगु मीडिया पर नाराज होती हैं, जिसने यह धारणा बनाई है कि शायद रोहित दलित नहीं था। वे कहती हैं, ‘‘वह बच्ची एक प्रवासी मजदूर दम्पति की बेटी थी, जो हमारे घर के बाहर रेलवे लाइनों पर काम करते थे। मैंने हाल ही में अपनी नवजात बेटी को खोया था, उसे देखकर मुझे अपनी बेटी याद आ गई थी।’’
यह आश्‍चर्यजनक है कि अंजनी के पास बैठी राधिका, जो रोहित की माँ बनी, अंग्रेजी का एक भी शब्द नहीं बोलती है। वास्तव में तो अंजनी की अंग्रेजी रोहित की अंग्रेजी से भी बढि़या है।  अंजनी बताती हैं कि उन्होंने इस मजदूर दम्पति से उनकी बेटी मांगी और उन्होंने खुशी-खुशी हाँ भी कर दी। वह कहती हैं कि हालांकि इस हस्तान्तरण का कोई रिकॉर्ड नहीं है, लेकिन तब से नन्ही राधिका उनके परिवार की बेटी बन गई।

राधिका और मनी कुमार (यानी रोहित के पिता) के अन्तर्जातीय विवाह को स्पष्ट करते हुए अंजनी कहती हैं, ‘‘जाति? जाति क्या होती है? मैं वड्डेरा (ओबीसी) हूँ। राधिका के माता-पिता माला (अनुसूचित जाति) थे। मैंने कभी उसकी जाति के बारे में परवाह नहीं की, वह मेरी अपनी बेटी के समान थी। मैंने उसकी शादी अपनी जाति के व्यक्ति से की‘‘
वे कहती हैं, ‘‘मैंने मनी के दादा से बात की थी, जो वड्डेरा समुदाय के एक सम्माननीय व्यक्ति थे। हम इस बात पर सहमत हुए कि हम राधिका की जाति को गुप्त रखेंगे और मनी को इसके बारे में कुछ नहीं बताएंगे।’’

राधिका बताती हैं, ‘‘विवाह के पहले पांच वर्षों में ही उनके तीनों बच्चे पैदा हो गए थे, जिनमें सबसे बड़ी नीलिमा, फिर रोहित और सबसे छोटा राजा था। मनी शुरू से ही उसके साथ हिंसक और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करता था। शराब पीकर कुछ चाँटे लगा देना उसके लिए आम बात थी।’’ विवाह के पांचवे साल में मनी को राधिका का रहस्य पता चल गया था।

अंजनी कहती हैं, ‘‘प्रशान्‍त नगर में हमारी वड्डेरा कॉलोनी में किसी ने उसे यह बता दिया था कि राधिका एक गोद ली हुई माला लड़की है, तभी से उसने उसे बड़ी बुरी तरह से पीटना शुरू कर दिया था।’’ उनकी बात की पुष्टि करते हुए राधिका कहती हैं, ‘‘मनी हमेशा ही दुर्व्‍यवहार करता था, लेकिन मेरी जाति जानने के बाद वह और भी हिंसक हो गया। वह मुझे लगभग हर रोज मारता था और एक अछूत लड़की से धोखे से शादी कर दिए जाने पर अपनी किस्मत को कोसता था।’’ अंजनी देवी का कहना है, ‘‘उन्होंने अपनी बेटी राधिका व नाती-नातिन रोहित, राजा और नीलिमा को मनी कुमार से बचाया।’’ वे कहती हैं, ‘‘सन् 1990 में उन्होंने मनी को छोड़ दिया और मैंने अपने घर में फिर से उनका स्वागत किया।’’ जब हिन्दुस्तान टाइम्स की टीम रोहित के जन्म स्थल गुंटूर जाकर रोहित के सबसे अच्छे दोस्त और बीएससी में उसके सहपाठी शेख रियाज से मिली तो कुछ और ही सामने आया। राधिका और राजा का कहना है कि रियाज को रोहित के बारे में उनसे भी ज्यादा पता था।

पिछले माह जब राजा की सगाई हुई तो एक बड़े भाई होने के नाते जो रीति-रिवाज रोहित को निभाने थे, वे रियाज ने निभाए। हैदराबाद केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय कैम्पस में चल रही परेशानियों की वजह से रोहित इस समारोह में नहीं आ सका था। रियाज उसके लिए परिवार के समस्या के समान ही था और कहता है कि उसे अच्छी तरह पता है कि रोहित अपने बचपन में अकेलापन क्यों महसूस करता था, क्यों उसने अपने अंतिम पत्र में लिखा है, ‘‘हो सकता है कि इस दौरान मैंने इस दुनिया को समझने में गलती की। मैं प्यार, दर्द, जीवन, मौत को नहीं समझ पाया।’’

रियाज ने यह तथ्य उजागर किया, ‘‘राधिका आंटी और उनके बच्चे उनकी मां के घर में नौकरों की तरह रहते थे। वे घर का सारा काम करते थे, जबकि बाकी लोग बैठे रहते थे। बचपन से ही राधिका आंटी घर के सारे काम करते रही हैं।’’ यदि 1970 के दशक में बाल श्रमिक कानून लागू होता तो राधिका की तथाकथित माता अंजनी देवी पर यह आरोप लग सकता था कि उन्होंने बच्ची को घरेलू नौकरानी के रूप में इस्तेमाल किया।

जब 1985 में राधिका की शादी मनी कुमार से हुई, तब वह 14 साल की थी। उस समय तक बाल विवाह को अवैध घोषित किए हुए 50 साल से भी अधिक बीत चुके थे। राधिका जब 12-13 साल की थी, तभी उसे यह जानकर बड़ा धक्का लगा था कि वह गोद ली हुई बच्ची है और माला जाति की है। 67 वर्षीय उप्पालापति दानम्मा का कहना है, ‘‘अंजनी की माँ ने, जो उस समय जीवित थीं, राधिका को बहुत बुरी तरह से मारा-पीटा व गालियाँ दी थी। वह मेरे घर के पास रो रही थी। मेरे पूछने पर उसने बताया कि घर का काम न करने पर उसकी नानी ने उसे माला कु...कहकर बुलाया और उसे घर में लाने के लिए अंजनी पर भी नाराज हुईं।’’ दानम्मा उस रिहायशी इलाक़े में रहने वाले सबसे पुराने बाशिंदे हैं और उन्होंने राहित की माँ राधिका को बचपन से देखा है। वो पूर्व पार्षद भी हैं और दलित नेता भी। उनका नया-नया रंगरोगन हुआ घर माला और वड्डेरा समुदायों की बसाहटों की सीमा रेखा पर है।

प्रशान्‍त नगर की वड्डेरा काॅलोनी के उनके कई पड़ोसियों के अनुसार सामान्य धारणा तो यही थी कि राधिका एक नौकरानी है। काॅलोनी के एक वड्डेरा रहवासी ने अंजनी पर नाराज होते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स को बताया कि दलित राधिका से धोखाधड़ीपूर्वक मनीकुमार की शादी करके अंजनी ने समूचे वड्डेरा समुदाय को धोखा दिया है।

रियाज का कहना है, ‘‘रोहित को अपनी नानी (अंजनी) के घर जाने से नफरत थी क्योंकि जब भी वे वहां जाते, उसकी माँ को नौकरानी की तरह काम करना पड़ता था। राधिका की अनुपस्थिति में उसके बच्चों को घर का काम-काज करना पड़ता था।’’ रोहित के परिवार को घरेलू कामकाज के लिए बुलाने की यह परम्परा तब भी जारी रही जब वे एक कि.मी. दूर अपने स्वतंत्र एक कमरे के घर में रहने चले गए।

गुंटूर में बीएससी की डिग्री लेने के दौरान रोहित कभी-कभार ही अपने घर गया। वह इससे नफरत करता था। वह रियाज व दो अन्य लड़कों के साथ एक छोटे से बैचलर कमरे में रहता था। वह अपना खर्च निर्माण श्रमिक और केटरिंग ब्वाय का काम करके निकालता था। वह पर्चे बांटता था और प्रदर्शनियों में काम करता था। अंजनी की चार जैविक संताने हैं। राधिका के आने के बाद उनकी दो बेटियां हुईं। उनका एक बेटा इंजीनियर है और दूसरा सिविल ठेकेदार है। एक बेटी ने बी.एससी-बीएड किया है और दूसरी ने बीकॉम-बीएड किया है।

सिविल कॉन्ट्रेक्टर बेटा शहर के बढ़ते रियल एस्टेट कारोबार में एक जाना-पहचाना नाम है। उसके घनिष्ठ संबंध तेलगुदेसम पार्टी के सासंद एन. हरिकृष्‍णा से हैं, जो तेलुगु सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता व आंध्र प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव के परिवार से संबंध रखते हैं। अंजनी की एक बेटी गुन्‍टूर के एक सफल क्रिमिनल वकील से ब्याही है। अंजनी देवी तो अपनी सगी बेटियों से भी अधिक शिक्षित हैं। उन्होंने एमए-एमएड किया है और गुन्‍टूर शहर में नगरपालिका द्वारा संचालित हाईस्कूल की हेडमास्टर रही हैं। उनके पति शासन में चीफ इंजीनियर रहे हैं। उनका मकान प्रशान्‍त नगर के सबसे पुराने व बड़े मकानों में से एक है।

चूंकि वे किशोर उम्र की लड़कियों के विद्यालय में पढ़ाती थीं, अतः 14 वर्ष की उम्र में राधिका को ब्याहते समय अंजनी को अच्छी तरह पता होगा कि विवाह की कानूनी उम्र क्या होती है। वे एक शिक्षाविद् थीं लेकिन उन्होंने उस लड़की को शिक्षा से वंचित किया जिसे वे ‘‘अपनी खुद की बेटी’’ कहती थीं। हालाँकि अपनी सगी संतानों के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बचा कर रखा।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि क्यों वे खालिस अंग्रेजी बोल पाती हैं और उनकी बेटी और नाती नहीं बोल पाते। अंजनी देवी इतनी दयालु अवश्‍य थीं कि उन्होंने एक दलित नौकर लड़की को अपने घर में रहने दिया। उन्होंने उसे खुद को ‘‘माँ’’ भी कहने दिया, लेकिन वे एक अच्छी व दयालु मालकिन ज्यादा प्रतीत होती हैं, एक देखभाल करने वाली माँ नहीं।

हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय में एमएससी व पीएचडी करते समय रोहित अपने निजी जीवन को छुपा कर रखता था। यहाँ तक कि उसके घनिष्ठतम मित्र भी उसके संपूर्ण पारिवारिक इतिहास से परिचित नहीं थे। हर व्यक्ति थोड़ा-थोड़ा कुछ जानता था। रोहित के खास दोस्त और एएसए के साथी रामजी को पता था कि जीवनयापन के लिए रोहित ने छोटे-मोटे काम किए हैं, लेकिन उसे भी यह पता नहीं था कि उसकी नानी एक समृद्ध महिला हैं। हैदराबाद केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय के किसी भी विद्यार्थी को, जिसमें से कई रोहित के खास दोस्त थे, उसकी जिंदगी के सबसे अंधेरे उन अध्यायों के बारे में कुछ नहीं पता था, जिन्हें उसने अपने अंतिम पत्र में भी उजागर नहीं किया।

अंजनी से दुबारा बात करने से पूर्व हिन्दुस्तान टाइम्स ने यह कहानी प्रकाषित करने के लिए राजा वेमुला की अनुमति चाही थी। उनकी पहली प्रतिक्रिया ‘‘शॉक’’ की थी और वो जानना चाहते थे कि हमने यह कैसे पता लगाया। जब उन्हें उन लोगों के नाम पता चले जिनसे हिन्दुस्तान टाइम्स ने गुन्‍टूर में बात की थी तो वे टूट गए और बोले, ‘‘हाँ, यही हमारा सच है। यही वह सच है जिसे मेरी माँ और मैं सबसे अधिक छुपाना चाहते हैं। हमें यह बताने में शर्म आती है कि जिस महिला को हम ग्रान्डमा (अंग्र्रेजी में) कहते हैं, वह वास्तव में हमारी मालकिन है।’’

राजा ने अपनी खुद की जिंदगी से भी कुछ घटनाएं बताईं, जिनसे यह जाहिर होता है कि रोहित किन परिस्थितियों से गुजरा होगा। वे कहते हैं कि आंध्र विश्‍वविद्यालय की एमएससी प्रवेश परीक्षा में उनकी 11वी रैंक आई थी और वे इसकी पढ़ाई करने लगे थे। दो महीने बाद उन्हें पाॅण्डिचेरी विश्‍वविद्यालय का परिणाम भी प्राप्त हुआ, जिसे बेहतर जानकर वे वहाँ जाना चाहते थे।
राजा कहते हैं, ‘‘स्थानांतरण प्रमाण पत्र के लिए आंध्र विश्‍वविद्यालय ने मुझसे 6000 रुपये मांगे थे। मेरे पास कोई पैसा नहीं था और मेरी नानी के परिवार ने कोई मदद नहीं की। कोई चारा न होने पर मैंने आंध्र विश्‍वविद्यालय के अपने दोस्तों से मदद मांगी। किसी ने मुझे 5 रूपये दिए, किसी ने 10 रूपये दिए, यह सन् 2011 की बात है। मेरी जिंदगी में पहली बार मैंने अपने आप को एक नाकारा भिखारी की तरह महसूस किया।’’

पाण्डिचेरी जाने के बाद राजा ने पहली करीब 20 रातें अनाथ एड्स मरीजों के आश्रम में बिताई। वे कहते हैं, ‘‘कैम्पस के बाहर एक स्वतंत्र मकान में रहने वाले मेरे एक सीनियर ने तब मुझे घरेलू नौकर के रूप में अपने पास रखा। मैं उनके घर का काम करता था और वे मुझे अपने घर में सोने देते थे।’’
राजा उस समय के बारे में बताते हैं जब उन्होंने पाॅण्डिचेरी में 5 दिन बिना खाने के बिताए थे। वे कहते हैं, ‘‘कॉलेज में मेरे सभी सहपाठी खाते-पीते घरों के थे। वे कैम्पस के बाहर से पीत्जा और बर्गर लेकर आते थे और कोई भी मुझसे यह नहीं पूछता था कि मैं कमजोर क्यों दिख रहा हूँ। वहाँ सभी जानते थे कि मैं भूखा मर रहा हूँ।’’

इन सारी तकलीफों के बावजूद उन्होंने एमएससी के प्रथम वर्ष में 65 प्रतिशत और अंतिम वर्ष में 70 प्रतिशत अंक प्राप्त किए थे। लेकिन उनकी नानी मदद के लिए आगे क्यों नहीं आईं? राजा कहते हैं कि यह सवाल तो आपको उन्हीं से पूछना चाहिए। जब हिन्दुस्तान टाइम्स की टीम नानी अंजनी से दुबारा मिली तो वे हैदराबाद केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय के कैम्पस में एक प्रोफेसर के घर में राधिका और राजा के साथ ठहरी हुईं थीं। राजा ने इस मुलाकात का हिस्सा बनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और बाहर इंतजार करते रहे।

यह पूछने पर कि वे अपनी बेटी से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेती हैं, अंजनी ने कहा कि राधिका बहुत बुद्धिमान नहीं थी। यह पूछने पर कि उनके सारे बच्चे स्नातक हैं जबकि रोहित की माँ को उन्होंने 14 साल की उम्र में ब्याह दिया, अंजनी कहती हैं, ‘‘हमें एक अच्छे परिवार का अमीर लड़का मिल गया था, तो हमने यह शादी पक्की कर दी।’’ उनका दावा है कि उन्हें मनीकुमार के बुरे चरित्र के बारे में कुछ नहीं पता था। वे कहती हैं कि राधिका आगे नहीं पढ़ना चाहती थी लेकिन इस समय तक रियाज ने सत्य जाहिर कर दिया, ‘‘राधिका आंटी अपने बच्चों के माध्यम से पुनः शिक्षा की ओर अग्रसर हो गईं। वे बच्चों के स्कूल के पाठ पहले खुद याद करती थीं फिर उन्हें घर में पढ़ाती थीं।’’ राधिका ने अपने बेटों के साथ अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की।

रियाज याद करते हैं, ‘‘जब रोहित बीएससी के अंतिम वर्ष में था तब राधिका आंटी बीए के द्वितीय वर्ष में थी और राजा बीएससी के प्रथम वर्ष में था। पहले रोहित सफल हुआ, अगले साल आंटी और उसके एक साल बाद राजा ने बीएससी उत्तीर्ण की। कई बार हम लोग साथ-साथ पढ़ाई किया करते थे। एक बार तो एक ही दिन हम सभी की परीक्षा थी।’’ जब अंजनी को यह बातें बताई गईं और यह पूछा गया कि उन्होंने और उनके जैविक परिवार ने अपने मेधावी नातियों की पढ़ाई में मदद क्यों नहीं की, तो उन्होंने रिपोर्टर को बहुत देर तक घूरकर देखा और कहा, ‘‘मुझे नहीं पता।’’
क्या रोहित वेमुला के परिवार से उनके घर में नौकरों की तरह बर्ताव किया जाता था? ‘‘मुझे नहीं पता आप क्या कह रहे हैं।’’ अंजनी फिर से कहती हैं, ‘‘आपको यह सब किसने बताया? आप मुझे परेशानी में डालना चाहते हैं, है ना?’’

हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा गुन्‍टूर से जुटाए गए एक भी तथ्य को अंजनी ने नहीं झुठलाया। कुछ समय बाद तो उन्होंने अपनी आँखें नीची कर लीं और रिपोर्टर को जाने का इशारा कर दिया। रोहित के सबसे अच्छे दिन उसके सबसे अच्छे दोस्त रियाज के साहचर्य में ही बीते। रियाज हिन्दुस्तान टाइम्स टीम को उन दोनों के मनपसंद स्थानों पर ले गया, जहां उन्होंने कई एडवेंचर्स किए थे। गुन्‍टूर में 6 घण्टों तक घूमने के दौरान ऐसा लगा कि हर गली में रोहित-रियाज की कहानी छुपी हुई है। पार्टियाँ, किशोर उम्र के आकर्षण, वेलेन्टाइन-डे के असफल प्रस्ताव, लड़कियों को लेकर झगड़े, फिल्में, संगीत, ब्वाय गेंग पार्टियाँ, अंग्रेज़ी संगीत, फुटबाल खिलाडि़यों की हेयर स्टाइल - वे सभी चीजें जो रोहित पहली बार देख रहा था।

रियाज जोर देकर कहता है कि रोहित हमेशा हीरो रहा और वह हीरो का साथी। रियाज कहता है, ‘‘एक बार उसे क्लास से बाहर निकाल दिया गया था, क्योंकि वह बहुत ज्यादा प्रश्‍न पूछ रहा था और शिक्षक उसका जवाब नहीं दे पा रहे थे। चूंकि प्राचार्य को रोहित की प्रतिभा का ज्ञान था अतः उन्होंने उसका पक्ष लेते हुए शिक्षक से कहा कि वह क्लास के लिए बेहतर तरीके से तैयार होकर आया करे।’’

रोहित को इंटरनेट का अच्छा ज्ञान था। रियाज का कहना है कि वह अक्सर अपने शिक्षकों के सामने यह साबित कर देता था कि उनका पाठ्यक्रम पुराना हो चुका है। उसे विज्ञान की वह वेबसाइट पता थी जो उसके टीचर को भी नहीं पता थी। वह अपनी कक्षा में हमेशा आगे रहता था। रियाज का कहना है कि गुन्‍टूर के हिन्दू काॅलेज के कैम्पस में कुछ ही तत्व जातिवादी थे और अधिकांश अध्यापक धर्मनिरपेक्ष थे।

रियाज के अनुसार रोहित की जिंदगी में सिर्फ दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण थीं- पार्ट टाइम नौकरी ढूँढ़ना और इंटरनेट पर समय बिताना। वह जूलियन असांजे का बहुत बड़ा प्रशंसक था और विकीलीक्स फाइलों पर घण्टों बिताया करता था। बीएससी की परीक्षा के बाद स्नातकोत्तर के लिए उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस विषय को चुने।

उसका पीएचडी कोर्स सिर्फ प्रमाण-पत्र पाने के लिए नहीं था। उसका शोध सामाजिक विज्ञानों और तकनीकी का सम्मिश्रण लिए था। रियाज के अनुसार सामाजिक विज्ञान में रोहित को अधिकांश ज्ञान एएसए और एसएफआई जैसे समूहों से जुड़ने की वजह से प्राप्त हुआ था, क्योंकि इन समूहों में कैडर को राजनीतिक थ्योरी पढ़ने पर जोर दिया जाता था।

मरने से पहले रोहित ने रियाज को कमजोर कहा था। रियाज बताते हैं, ‘‘उसने मुझसे कहा था कि उसे अपनी पीएचडी की पढ़ाई बंद करनी पड़ेगी। उसने कहा था कि विपक्षी एबीवीपी बहुत ताकतवर है क्योंकि उसके पास सांसदों, विधायकों, मंत्रियों और विश्‍वविद्यालय प्रशासन का भी समर्थन है। उसने जीतने की उम्मीद छोड़ दी थी।’’

दोनों दोस्त लम्बे समय तक बातें किया करते थे और जब उन्होंने 6 महीने पहले गुन्‍टूर में तीन अन्य खास दोस्तों के साथ तैयार किए गए बिजनेस प्लान के बारे में चर्चा करना प्रारंभ किया तो रोहित का मूड सुधरने लगा। एक बातचीत में रोहित ने कहा था, ‘‘हम बिजनेस शुरू करेंगे और गुन्‍टूर पर राज करेंगे।’’

रियाज कहते हैं कि उस फोन काल में वह बार-बार कहता रहा कि पीएचडी उसके लिए सिर्फ इसलिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे उसका कॅरियर बनेगा बल्कि इस शोध के माध्यम से वह नई संभावनाएं पैदा करना चाहता था। क्या जिंदगी भर मिले असमानता के बर्ताव और विश्‍वविद्यालय की परिस्थितियों ने ही रोहित को आत्महत्या का कदम उठाने के लिए मजबूर किया।
रियाज कहते हैं, ‘‘रोहित को सारी जिंदगी अपने परिवार का इतिहास सताता रहा। जिस घर में वह बड़ा हुआ, उसी में उसे जातिगत भेदभाव झेलना पड़ा। लेकिन घुटने टेकने के बजाय रोहित ने इससे संघर्ष किया। उसने कई बाधाओं को पार किया और अंत में पीएचडी तक पहुंचा। जब उसे लगा कि वह और आगे नहीं जा सकता तो उसने हार मान ली।’’


अपने तमाम संघर्षो के बाद, उसके खुद के शब्दों में, रोहित ने हार मान ली जब उसे महसूस हुआ कि ‘‘मनुष्य का मूल्य उसकी तात्कालिक पहचान और निकटतम संभावनाओं तक ही सिमट गया है। एक वोट। एक संख्या। एक वस्तु। इन तक ही मनुष्य की पहचान रह गई है। मनुष्य के साथ कभी भी एक दिमाग की तरह बर्ताव नहीं किया गया। सितारों की धूल से बनी हुई एक शानदार वस्तु। हर क्षेत्र में, पढ़ाई में, सड़कों पर, राजनीति में, मरने में, जीने में।’’

(यह रिपोर्ट 27 जनवरी, 2016 को अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के अंक में प्रकाशित हुई है और इसका अनुवाद रश्मि शर्मा ने किया है। वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के ब्लॉग 'जनपथ' पर भी यह प्रकाशित है। वहीं से इसे लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है ताकि आप भी इसे पढ़ सकें।)
http://www.hindustantimes.com/static/rohith-vemula-an-unfinished-portrait/index.html