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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

झंडा का फंडाः कथित राष्ट्रवाद की दुकानदारी में हर साल खर्च होंगे 150 करोड़

दिल्ली स्थित गुमनाम वेंडर 'फास्ट ट्रैक इंजीनियरिंग' को टेंडर मिलने की संभावना। इसके मालिक की बीजेपी नेताओं से नजदीकियां होने की बात आ रही सामने।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

वाराणसी। कथित 'राष्ट्रवाद' की दुकानदारी में झंडे का फंडा भी खूब चल रहा है। सोशल प्लेटफॉर्म 'फेसबुक' पर मित्रों से मिली जानकारी की मानें तो केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति ईरानी के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में राष्ट्र ध्वज 'तिरंगा' लगवाने के निर्णय पर हर साल करीब 150 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। जबकि उनकी सरकार 'नान-नेट फेलोशिप' के तहत शोध करने वाले छात्रों पर हर साल आने वाले करीब 99.16 करोड़ रुपये के खर्च की योजना को चालू करने के लिए तैयार नहीं है।

जितेंद्र नारायण
भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत और बिहार के समस्तीपुर निवासी जितेंद्र नारायण ने फेसबुक पर स्टैटस अपडेट किया है कि मोदी सरकार देश के 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने में हर साल कुल 147.15 करोड़ रुपये खर्च करेगी। इन विश्वविद्यालयों में राष्ट्रध्वज फहराने के लिए आवश्यक झंडे और डंडे पर हर साल कुल 86 करोड़ रुपये खर्च आएगा जबकि उन्हें प्रकाशमान करने में हर साल कुल 61.15 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है। यहां यह बता दें कि इस समय देश में कुल 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। इस लिहाज से सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने का खर्च जितेंद्र नारायण के अनुमान से कहीं ज्यादा है। उन्होंने अपने स्टैटस में लिखा है कि केंद्र की मोदी सरकार 'नान-नेट फेलोशिप' के तहत शोध करने वाले छात्रों पर हर साल आने वाले करीब 99.16 करोड़ रुपये खर्च की योजना को चालू करने के लिए तैयार नहीं है।  

जितेंद्र नारायण के अनुमान और कथित राष्ट्रवादी फंडे (तिरंगा लगाने का धंधा) को और स्पष्ट करते हुए जेएनयू के पूर्व छात्र मयंक कुमार जायसवाल लिखते हैं कि आजकल 70 फीट से 207 फीट तक की ऊंचाई के तिरंगे फैशन में हैं। क़ीमत पचास लाख से लेकर डेढ़ करोड़ रुपये तक। इतनी ऊंचाई पर कपड़े का झंडा नहीं रुक सकता। सो, ढाई से पांच लाख रुपये का पैराशूट मैटेरियल का झंडा। इतने पर भी एक झंडे की उम्र तीन से लेकर पंद्रह दिन। अब चूंकि फ्लैग कोड कहता है कि ख़राब झंडा फहराना जुर्म है सो झंडे को औसतन पंद्रह दिन में बदला जाना ज़रूरी। यहां तक सब ठीक है। मगर मुद्दा ये है कि इतने सारे झंडे किसने लगाए और इनको मेंटेन कौन कर रहा है?

मयंक कुमार जायसवाल
मयंक इसकी विस्तृत पड़ताल करते हैं। उनकी यह पड़ताल उनके ही शब्दों में नीचे दी जा रही है-
दिल्ली का एक गुमनाम सा वैंडर है 'फास्ट ट्रैक इंजीनियरिंग'। एक जैन साहब इसके सर्वेसर्वा हैं। देश भर में ये फर्म क़रीब डेढ़ सौ झंडे लगा चुकी है। पहला झंडा कनॉट प्लेस में नवीन जिंदल की फ्लैग फाउंडेशन ने लगवाया। इसके बाद देश के तमान नगर निगम, राज्य सरकारें और निजी व्यवसायी इसे लगवा चुके हैं। ताज़ा फरमान विश्वविद्यालयों में लगवाने के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्री का है। इस से पहले बीजेपी सांसदों को बुलाकर फरमान सुनाया गया था कि वो सांसद निधि से ये झंडे लगवाएं सो एक मेरे संसदीय क्षेत्र अमरोहा में भी तन गया। कई प्राईवेट कॉलेजों पर भी ये झंडा लगवाने का दबाव है।

सरकारी धन से लग रहे झंडों पर तो लोग कुछ नहीं कहते मगर प्राईवेट वालों के लिए परेशानी है। इस तो सबको एक ही वैंडर से लगवाना है जो केंद्र सरकार का ख़ास है... उसके लिए मुंह मांगी क़ीमत भी दो और सालाना मेटिनेंस का क़रार भी करो। अगर हर पंद्रह दिन में झंडा ख़राब हो रहा है तो साल भर में सिर्फ झंडा बदलवाई ही साठ लाख रुपये है ऊपर से दो आदमियों की तनख़्वाह अलग। लगवाते वक्त एकमुश्त भुगतान तो वाजिब है ही।


नगर निगमों के पास अपने कर्मियों को तनख्वाह देने के पैसे नहीं हैं मगर सालाना का एक करोड़ का ख़र्च सरकार ने फिक्स करा दिया है। अब ये मत पूछना कि इस में कितना राष्ट्रवाद है और कितना व्यापार। बस पता कीजिए सज्जन जिंदल का सरकार से क्या रिश्ता है और उनकी पाईप बनाने की फैक्ट्री का इन झंडों से क्या लेना देना है? बाक़ी सांसद निधि, नगर निकायों के धन से आपका हो न हो छद्म राष्ट्रीयता और पूंजीवाद का विकास तो हो ही रहा है। सरकारें ऐसे ही चलती हैं। बाक़ी मेक्यावेली चचा काफी कुछ समझा गए हैं। तो ज़ोर से मेरे साथ नारा लगाइए...जय हिंद...जय राष्ट्रवाद...वंदे मातरम्...वंदे पूंजीवादी पितरमम्...।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

ROHITH VEMULA: उच्च शिक्षा और परवरिश से भी दूर नहीं हुई रोहित की ‘जाति’


रोहिथ वेमुलाः एक अधूरी तस्वीर

उच्च जाति वर्ग के परिवार ने उसकी मां को गोद लिया था लेकिन उनसे नौकर जैसा बर्ताव करता था। अपने आत्महत्या नोट में इसे ही रोहित ने अपने जीवन की ‘‘घातक दुर्घटना’’ कहा।

by सुदीप्तो मंडल

रोहित वेमुला की कहानी उसके जन्म से 18 वर्ष पूर्व सन् 1971 की गर्मियों में गुन्टूर शहर से प्रारंभ होती है। यही वह वर्ष था जब रोहित की दत्तक नानी अंजनी देवी ने उन घटनाक्रमों को प्रारंभ किया, जिन्हें बाद में इस शोधार्थी ने अपने आत्महत्या नोट में गूढ़ रूप से ‘‘मेरे जीवन की घातक दुर्घटना कहा है।’’

अंजनी यानी रोहित की नानी ने हिन्दुस्तान टाइम्स को बताया, ‘‘यह 1971 की एक दोपहर के भोजन का समय था। बहुत तेज गर्मी थी। प्रशांत नगर (गुन्टूर) में मेरे घर के बाहर कुछ बच्चे नीम के पेड़ के नीचे खेल रहे थे। मुझे उनमें एक बेहद सुन्दर नन्ही बच्ची भी दिखाई दी। वह ठीक से चल भी नहीं पाती थी। शायद वह एक साल की उम्र से कुछ ही बड़ी होगी।’’ वह छोटी-सी लड़की रोहित की मां राधिका थी।

अपनी कहानी को बढि़या अंग्रेजी में बयान करते हुए वह स्थानीय तेलुगु मीडिया पर नाराज होती हैं, जिसने यह धारणा बनाई है कि शायद रोहित दलित नहीं था। वे कहती हैं, ‘‘वह बच्ची एक प्रवासी मजदूर दम्पति की बेटी थी, जो हमारे घर के बाहर रेलवे लाइनों पर काम करते थे। मैंने हाल ही में अपनी नवजात बेटी को खोया था, उसे देखकर मुझे अपनी बेटी याद आ गई थी।’’
यह आश्‍चर्यजनक है कि अंजनी के पास बैठी राधिका, जो रोहित की माँ बनी, अंग्रेजी का एक भी शब्द नहीं बोलती है। वास्तव में तो अंजनी की अंग्रेजी रोहित की अंग्रेजी से भी बढि़या है।  अंजनी बताती हैं कि उन्होंने इस मजदूर दम्पति से उनकी बेटी मांगी और उन्होंने खुशी-खुशी हाँ भी कर दी। वह कहती हैं कि हालांकि इस हस्तान्तरण का कोई रिकॉर्ड नहीं है, लेकिन तब से नन्ही राधिका उनके परिवार की बेटी बन गई।

राधिका और मनी कुमार (यानी रोहित के पिता) के अन्तर्जातीय विवाह को स्पष्ट करते हुए अंजनी कहती हैं, ‘‘जाति? जाति क्या होती है? मैं वड्डेरा (ओबीसी) हूँ। राधिका के माता-पिता माला (अनुसूचित जाति) थे। मैंने कभी उसकी जाति के बारे में परवाह नहीं की, वह मेरी अपनी बेटी के समान थी। मैंने उसकी शादी अपनी जाति के व्यक्ति से की‘‘
वे कहती हैं, ‘‘मैंने मनी के दादा से बात की थी, जो वड्डेरा समुदाय के एक सम्माननीय व्यक्ति थे। हम इस बात पर सहमत हुए कि हम राधिका की जाति को गुप्त रखेंगे और मनी को इसके बारे में कुछ नहीं बताएंगे।’’

राधिका बताती हैं, ‘‘विवाह के पहले पांच वर्षों में ही उनके तीनों बच्चे पैदा हो गए थे, जिनमें सबसे बड़ी नीलिमा, फिर रोहित और सबसे छोटा राजा था। मनी शुरू से ही उसके साथ हिंसक और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करता था। शराब पीकर कुछ चाँटे लगा देना उसके लिए आम बात थी।’’ विवाह के पांचवे साल में मनी को राधिका का रहस्य पता चल गया था।

अंजनी कहती हैं, ‘‘प्रशान्‍त नगर में हमारी वड्डेरा कॉलोनी में किसी ने उसे यह बता दिया था कि राधिका एक गोद ली हुई माला लड़की है, तभी से उसने उसे बड़ी बुरी तरह से पीटना शुरू कर दिया था।’’ उनकी बात की पुष्टि करते हुए राधिका कहती हैं, ‘‘मनी हमेशा ही दुर्व्‍यवहार करता था, लेकिन मेरी जाति जानने के बाद वह और भी हिंसक हो गया। वह मुझे लगभग हर रोज मारता था और एक अछूत लड़की से धोखे से शादी कर दिए जाने पर अपनी किस्मत को कोसता था।’’ अंजनी देवी का कहना है, ‘‘उन्होंने अपनी बेटी राधिका व नाती-नातिन रोहित, राजा और नीलिमा को मनी कुमार से बचाया।’’ वे कहती हैं, ‘‘सन् 1990 में उन्होंने मनी को छोड़ दिया और मैंने अपने घर में फिर से उनका स्वागत किया।’’ जब हिन्दुस्तान टाइम्स की टीम रोहित के जन्म स्थल गुंटूर जाकर रोहित के सबसे अच्छे दोस्त और बीएससी में उसके सहपाठी शेख रियाज से मिली तो कुछ और ही सामने आया। राधिका और राजा का कहना है कि रियाज को रोहित के बारे में उनसे भी ज्यादा पता था।

पिछले माह जब राजा की सगाई हुई तो एक बड़े भाई होने के नाते जो रीति-रिवाज रोहित को निभाने थे, वे रियाज ने निभाए। हैदराबाद केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय कैम्पस में चल रही परेशानियों की वजह से रोहित इस समारोह में नहीं आ सका था। रियाज उसके लिए परिवार के समस्या के समान ही था और कहता है कि उसे अच्छी तरह पता है कि रोहित अपने बचपन में अकेलापन क्यों महसूस करता था, क्यों उसने अपने अंतिम पत्र में लिखा है, ‘‘हो सकता है कि इस दौरान मैंने इस दुनिया को समझने में गलती की। मैं प्यार, दर्द, जीवन, मौत को नहीं समझ पाया।’’

रियाज ने यह तथ्य उजागर किया, ‘‘राधिका आंटी और उनके बच्चे उनकी मां के घर में नौकरों की तरह रहते थे। वे घर का सारा काम करते थे, जबकि बाकी लोग बैठे रहते थे। बचपन से ही राधिका आंटी घर के सारे काम करते रही हैं।’’ यदि 1970 के दशक में बाल श्रमिक कानून लागू होता तो राधिका की तथाकथित माता अंजनी देवी पर यह आरोप लग सकता था कि उन्होंने बच्ची को घरेलू नौकरानी के रूप में इस्तेमाल किया।

जब 1985 में राधिका की शादी मनी कुमार से हुई, तब वह 14 साल की थी। उस समय तक बाल विवाह को अवैध घोषित किए हुए 50 साल से भी अधिक बीत चुके थे। राधिका जब 12-13 साल की थी, तभी उसे यह जानकर बड़ा धक्का लगा था कि वह गोद ली हुई बच्ची है और माला जाति की है। 67 वर्षीय उप्पालापति दानम्मा का कहना है, ‘‘अंजनी की माँ ने, जो उस समय जीवित थीं, राधिका को बहुत बुरी तरह से मारा-पीटा व गालियाँ दी थी। वह मेरे घर के पास रो रही थी। मेरे पूछने पर उसने बताया कि घर का काम न करने पर उसकी नानी ने उसे माला कु...कहकर बुलाया और उसे घर में लाने के लिए अंजनी पर भी नाराज हुईं।’’ दानम्मा उस रिहायशी इलाक़े में रहने वाले सबसे पुराने बाशिंदे हैं और उन्होंने राहित की माँ राधिका को बचपन से देखा है। वो पूर्व पार्षद भी हैं और दलित नेता भी। उनका नया-नया रंगरोगन हुआ घर माला और वड्डेरा समुदायों की बसाहटों की सीमा रेखा पर है।

प्रशान्‍त नगर की वड्डेरा काॅलोनी के उनके कई पड़ोसियों के अनुसार सामान्य धारणा तो यही थी कि राधिका एक नौकरानी है। काॅलोनी के एक वड्डेरा रहवासी ने अंजनी पर नाराज होते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स को बताया कि दलित राधिका से धोखाधड़ीपूर्वक मनीकुमार की शादी करके अंजनी ने समूचे वड्डेरा समुदाय को धोखा दिया है।

रियाज का कहना है, ‘‘रोहित को अपनी नानी (अंजनी) के घर जाने से नफरत थी क्योंकि जब भी वे वहां जाते, उसकी माँ को नौकरानी की तरह काम करना पड़ता था। राधिका की अनुपस्थिति में उसके बच्चों को घर का काम-काज करना पड़ता था।’’ रोहित के परिवार को घरेलू कामकाज के लिए बुलाने की यह परम्परा तब भी जारी रही जब वे एक कि.मी. दूर अपने स्वतंत्र एक कमरे के घर में रहने चले गए।

गुंटूर में बीएससी की डिग्री लेने के दौरान रोहित कभी-कभार ही अपने घर गया। वह इससे नफरत करता था। वह रियाज व दो अन्य लड़कों के साथ एक छोटे से बैचलर कमरे में रहता था। वह अपना खर्च निर्माण श्रमिक और केटरिंग ब्वाय का काम करके निकालता था। वह पर्चे बांटता था और प्रदर्शनियों में काम करता था। अंजनी की चार जैविक संताने हैं। राधिका के आने के बाद उनकी दो बेटियां हुईं। उनका एक बेटा इंजीनियर है और दूसरा सिविल ठेकेदार है। एक बेटी ने बी.एससी-बीएड किया है और दूसरी ने बीकॉम-बीएड किया है।

सिविल कॉन्ट्रेक्टर बेटा शहर के बढ़ते रियल एस्टेट कारोबार में एक जाना-पहचाना नाम है। उसके घनिष्ठ संबंध तेलगुदेसम पार्टी के सासंद एन. हरिकृष्‍णा से हैं, जो तेलुगु सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता व आंध्र प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव के परिवार से संबंध रखते हैं। अंजनी की एक बेटी गुन्‍टूर के एक सफल क्रिमिनल वकील से ब्याही है। अंजनी देवी तो अपनी सगी बेटियों से भी अधिक शिक्षित हैं। उन्होंने एमए-एमएड किया है और गुन्‍टूर शहर में नगरपालिका द्वारा संचालित हाईस्कूल की हेडमास्टर रही हैं। उनके पति शासन में चीफ इंजीनियर रहे हैं। उनका मकान प्रशान्‍त नगर के सबसे पुराने व बड़े मकानों में से एक है।

चूंकि वे किशोर उम्र की लड़कियों के विद्यालय में पढ़ाती थीं, अतः 14 वर्ष की उम्र में राधिका को ब्याहते समय अंजनी को अच्छी तरह पता होगा कि विवाह की कानूनी उम्र क्या होती है। वे एक शिक्षाविद् थीं लेकिन उन्होंने उस लड़की को शिक्षा से वंचित किया जिसे वे ‘‘अपनी खुद की बेटी’’ कहती थीं। हालाँकि अपनी सगी संतानों के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बचा कर रखा।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि क्यों वे खालिस अंग्रेजी बोल पाती हैं और उनकी बेटी और नाती नहीं बोल पाते। अंजनी देवी इतनी दयालु अवश्‍य थीं कि उन्होंने एक दलित नौकर लड़की को अपने घर में रहने दिया। उन्होंने उसे खुद को ‘‘माँ’’ भी कहने दिया, लेकिन वे एक अच्छी व दयालु मालकिन ज्यादा प्रतीत होती हैं, एक देखभाल करने वाली माँ नहीं।

हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय में एमएससी व पीएचडी करते समय रोहित अपने निजी जीवन को छुपा कर रखता था। यहाँ तक कि उसके घनिष्ठतम मित्र भी उसके संपूर्ण पारिवारिक इतिहास से परिचित नहीं थे। हर व्यक्ति थोड़ा-थोड़ा कुछ जानता था। रोहित के खास दोस्त और एएसए के साथी रामजी को पता था कि जीवनयापन के लिए रोहित ने छोटे-मोटे काम किए हैं, लेकिन उसे भी यह पता नहीं था कि उसकी नानी एक समृद्ध महिला हैं। हैदराबाद केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय के किसी भी विद्यार्थी को, जिसमें से कई रोहित के खास दोस्त थे, उसकी जिंदगी के सबसे अंधेरे उन अध्यायों के बारे में कुछ नहीं पता था, जिन्हें उसने अपने अंतिम पत्र में भी उजागर नहीं किया।

अंजनी से दुबारा बात करने से पूर्व हिन्दुस्तान टाइम्स ने यह कहानी प्रकाषित करने के लिए राजा वेमुला की अनुमति चाही थी। उनकी पहली प्रतिक्रिया ‘‘शॉक’’ की थी और वो जानना चाहते थे कि हमने यह कैसे पता लगाया। जब उन्हें उन लोगों के नाम पता चले जिनसे हिन्दुस्तान टाइम्स ने गुन्‍टूर में बात की थी तो वे टूट गए और बोले, ‘‘हाँ, यही हमारा सच है। यही वह सच है जिसे मेरी माँ और मैं सबसे अधिक छुपाना चाहते हैं। हमें यह बताने में शर्म आती है कि जिस महिला को हम ग्रान्डमा (अंग्र्रेजी में) कहते हैं, वह वास्तव में हमारी मालकिन है।’’

राजा ने अपनी खुद की जिंदगी से भी कुछ घटनाएं बताईं, जिनसे यह जाहिर होता है कि रोहित किन परिस्थितियों से गुजरा होगा। वे कहते हैं कि आंध्र विश्‍वविद्यालय की एमएससी प्रवेश परीक्षा में उनकी 11वी रैंक आई थी और वे इसकी पढ़ाई करने लगे थे। दो महीने बाद उन्हें पाॅण्डिचेरी विश्‍वविद्यालय का परिणाम भी प्राप्त हुआ, जिसे बेहतर जानकर वे वहाँ जाना चाहते थे।
राजा कहते हैं, ‘‘स्थानांतरण प्रमाण पत्र के लिए आंध्र विश्‍वविद्यालय ने मुझसे 6000 रुपये मांगे थे। मेरे पास कोई पैसा नहीं था और मेरी नानी के परिवार ने कोई मदद नहीं की। कोई चारा न होने पर मैंने आंध्र विश्‍वविद्यालय के अपने दोस्तों से मदद मांगी। किसी ने मुझे 5 रूपये दिए, किसी ने 10 रूपये दिए, यह सन् 2011 की बात है। मेरी जिंदगी में पहली बार मैंने अपने आप को एक नाकारा भिखारी की तरह महसूस किया।’’

पाण्डिचेरी जाने के बाद राजा ने पहली करीब 20 रातें अनाथ एड्स मरीजों के आश्रम में बिताई। वे कहते हैं, ‘‘कैम्पस के बाहर एक स्वतंत्र मकान में रहने वाले मेरे एक सीनियर ने तब मुझे घरेलू नौकर के रूप में अपने पास रखा। मैं उनके घर का काम करता था और वे मुझे अपने घर में सोने देते थे।’’
राजा उस समय के बारे में बताते हैं जब उन्होंने पाॅण्डिचेरी में 5 दिन बिना खाने के बिताए थे। वे कहते हैं, ‘‘कॉलेज में मेरे सभी सहपाठी खाते-पीते घरों के थे। वे कैम्पस के बाहर से पीत्जा और बर्गर लेकर आते थे और कोई भी मुझसे यह नहीं पूछता था कि मैं कमजोर क्यों दिख रहा हूँ। वहाँ सभी जानते थे कि मैं भूखा मर रहा हूँ।’’

इन सारी तकलीफों के बावजूद उन्होंने एमएससी के प्रथम वर्ष में 65 प्रतिशत और अंतिम वर्ष में 70 प्रतिशत अंक प्राप्त किए थे। लेकिन उनकी नानी मदद के लिए आगे क्यों नहीं आईं? राजा कहते हैं कि यह सवाल तो आपको उन्हीं से पूछना चाहिए। जब हिन्दुस्तान टाइम्स की टीम नानी अंजनी से दुबारा मिली तो वे हैदराबाद केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय के कैम्पस में एक प्रोफेसर के घर में राधिका और राजा के साथ ठहरी हुईं थीं। राजा ने इस मुलाकात का हिस्सा बनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और बाहर इंतजार करते रहे।

यह पूछने पर कि वे अपनी बेटी से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेती हैं, अंजनी ने कहा कि राधिका बहुत बुद्धिमान नहीं थी। यह पूछने पर कि उनके सारे बच्चे स्नातक हैं जबकि रोहित की माँ को उन्होंने 14 साल की उम्र में ब्याह दिया, अंजनी कहती हैं, ‘‘हमें एक अच्छे परिवार का अमीर लड़का मिल गया था, तो हमने यह शादी पक्की कर दी।’’ उनका दावा है कि उन्हें मनीकुमार के बुरे चरित्र के बारे में कुछ नहीं पता था। वे कहती हैं कि राधिका आगे नहीं पढ़ना चाहती थी लेकिन इस समय तक रियाज ने सत्य जाहिर कर दिया, ‘‘राधिका आंटी अपने बच्चों के माध्यम से पुनः शिक्षा की ओर अग्रसर हो गईं। वे बच्चों के स्कूल के पाठ पहले खुद याद करती थीं फिर उन्हें घर में पढ़ाती थीं।’’ राधिका ने अपने बेटों के साथ अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की।

रियाज याद करते हैं, ‘‘जब रोहित बीएससी के अंतिम वर्ष में था तब राधिका आंटी बीए के द्वितीय वर्ष में थी और राजा बीएससी के प्रथम वर्ष में था। पहले रोहित सफल हुआ, अगले साल आंटी और उसके एक साल बाद राजा ने बीएससी उत्तीर्ण की। कई बार हम लोग साथ-साथ पढ़ाई किया करते थे। एक बार तो एक ही दिन हम सभी की परीक्षा थी।’’ जब अंजनी को यह बातें बताई गईं और यह पूछा गया कि उन्होंने और उनके जैविक परिवार ने अपने मेधावी नातियों की पढ़ाई में मदद क्यों नहीं की, तो उन्होंने रिपोर्टर को बहुत देर तक घूरकर देखा और कहा, ‘‘मुझे नहीं पता।’’
क्या रोहित वेमुला के परिवार से उनके घर में नौकरों की तरह बर्ताव किया जाता था? ‘‘मुझे नहीं पता आप क्या कह रहे हैं।’’ अंजनी फिर से कहती हैं, ‘‘आपको यह सब किसने बताया? आप मुझे परेशानी में डालना चाहते हैं, है ना?’’

हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा गुन्‍टूर से जुटाए गए एक भी तथ्य को अंजनी ने नहीं झुठलाया। कुछ समय बाद तो उन्होंने अपनी आँखें नीची कर लीं और रिपोर्टर को जाने का इशारा कर दिया। रोहित के सबसे अच्छे दिन उसके सबसे अच्छे दोस्त रियाज के साहचर्य में ही बीते। रियाज हिन्दुस्तान टाइम्स टीम को उन दोनों के मनपसंद स्थानों पर ले गया, जहां उन्होंने कई एडवेंचर्स किए थे। गुन्‍टूर में 6 घण्टों तक घूमने के दौरान ऐसा लगा कि हर गली में रोहित-रियाज की कहानी छुपी हुई है। पार्टियाँ, किशोर उम्र के आकर्षण, वेलेन्टाइन-डे के असफल प्रस्ताव, लड़कियों को लेकर झगड़े, फिल्में, संगीत, ब्वाय गेंग पार्टियाँ, अंग्रेज़ी संगीत, फुटबाल खिलाडि़यों की हेयर स्टाइल - वे सभी चीजें जो रोहित पहली बार देख रहा था।

रियाज जोर देकर कहता है कि रोहित हमेशा हीरो रहा और वह हीरो का साथी। रियाज कहता है, ‘‘एक बार उसे क्लास से बाहर निकाल दिया गया था, क्योंकि वह बहुत ज्यादा प्रश्‍न पूछ रहा था और शिक्षक उसका जवाब नहीं दे पा रहे थे। चूंकि प्राचार्य को रोहित की प्रतिभा का ज्ञान था अतः उन्होंने उसका पक्ष लेते हुए शिक्षक से कहा कि वह क्लास के लिए बेहतर तरीके से तैयार होकर आया करे।’’

रोहित को इंटरनेट का अच्छा ज्ञान था। रियाज का कहना है कि वह अक्सर अपने शिक्षकों के सामने यह साबित कर देता था कि उनका पाठ्यक्रम पुराना हो चुका है। उसे विज्ञान की वह वेबसाइट पता थी जो उसके टीचर को भी नहीं पता थी। वह अपनी कक्षा में हमेशा आगे रहता था। रियाज का कहना है कि गुन्‍टूर के हिन्दू काॅलेज के कैम्पस में कुछ ही तत्व जातिवादी थे और अधिकांश अध्यापक धर्मनिरपेक्ष थे।

रियाज के अनुसार रोहित की जिंदगी में सिर्फ दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण थीं- पार्ट टाइम नौकरी ढूँढ़ना और इंटरनेट पर समय बिताना। वह जूलियन असांजे का बहुत बड़ा प्रशंसक था और विकीलीक्स फाइलों पर घण्टों बिताया करता था। बीएससी की परीक्षा के बाद स्नातकोत्तर के लिए उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस विषय को चुने।

उसका पीएचडी कोर्स सिर्फ प्रमाण-पत्र पाने के लिए नहीं था। उसका शोध सामाजिक विज्ञानों और तकनीकी का सम्मिश्रण लिए था। रियाज के अनुसार सामाजिक विज्ञान में रोहित को अधिकांश ज्ञान एएसए और एसएफआई जैसे समूहों से जुड़ने की वजह से प्राप्त हुआ था, क्योंकि इन समूहों में कैडर को राजनीतिक थ्योरी पढ़ने पर जोर दिया जाता था।

मरने से पहले रोहित ने रियाज को कमजोर कहा था। रियाज बताते हैं, ‘‘उसने मुझसे कहा था कि उसे अपनी पीएचडी की पढ़ाई बंद करनी पड़ेगी। उसने कहा था कि विपक्षी एबीवीपी बहुत ताकतवर है क्योंकि उसके पास सांसदों, विधायकों, मंत्रियों और विश्‍वविद्यालय प्रशासन का भी समर्थन है। उसने जीतने की उम्मीद छोड़ दी थी।’’

दोनों दोस्त लम्बे समय तक बातें किया करते थे और जब उन्होंने 6 महीने पहले गुन्‍टूर में तीन अन्य खास दोस्तों के साथ तैयार किए गए बिजनेस प्लान के बारे में चर्चा करना प्रारंभ किया तो रोहित का मूड सुधरने लगा। एक बातचीत में रोहित ने कहा था, ‘‘हम बिजनेस शुरू करेंगे और गुन्‍टूर पर राज करेंगे।’’

रियाज कहते हैं कि उस फोन काल में वह बार-बार कहता रहा कि पीएचडी उसके लिए सिर्फ इसलिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे उसका कॅरियर बनेगा बल्कि इस शोध के माध्यम से वह नई संभावनाएं पैदा करना चाहता था। क्या जिंदगी भर मिले असमानता के बर्ताव और विश्‍वविद्यालय की परिस्थितियों ने ही रोहित को आत्महत्या का कदम उठाने के लिए मजबूर किया।
रियाज कहते हैं, ‘‘रोहित को सारी जिंदगी अपने परिवार का इतिहास सताता रहा। जिस घर में वह बड़ा हुआ, उसी में उसे जातिगत भेदभाव झेलना पड़ा। लेकिन घुटने टेकने के बजाय रोहित ने इससे संघर्ष किया। उसने कई बाधाओं को पार किया और अंत में पीएचडी तक पहुंचा। जब उसे लगा कि वह और आगे नहीं जा सकता तो उसने हार मान ली।’’


अपने तमाम संघर्षो के बाद, उसके खुद के शब्दों में, रोहित ने हार मान ली जब उसे महसूस हुआ कि ‘‘मनुष्य का मूल्य उसकी तात्कालिक पहचान और निकटतम संभावनाओं तक ही सिमट गया है। एक वोट। एक संख्या। एक वस्तु। इन तक ही मनुष्य की पहचान रह गई है। मनुष्य के साथ कभी भी एक दिमाग की तरह बर्ताव नहीं किया गया। सितारों की धूल से बनी हुई एक शानदार वस्तु। हर क्षेत्र में, पढ़ाई में, सड़कों पर, राजनीति में, मरने में, जीने में।’’

(यह रिपोर्ट 27 जनवरी, 2016 को अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के अंक में प्रकाशित हुई है और इसका अनुवाद रश्मि शर्मा ने किया है। वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के ब्लॉग 'जनपथ' पर भी यह प्रकाशित है। वहीं से इसे लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है ताकि आप भी इसे पढ़ सकें।)
http://www.hindustantimes.com/static/rohith-vemula-an-unfinished-portrait/index.html

ROHITH VEMULA: दम है कितना दमन में तेरे, देखा है, फिर देखेंगे