बुधवार, 9 जुलाई 2014

केंद्रीय गृहमंत्री की गैर-लोकतांत्रिक पहल

बतौर मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह का वह बयान भी उस समय उत्तर प्रदेश में उन हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों पर अंकुश नहीं लगा पाया था जिसमें उन्होंने सुरक्षाकर्मियों से कहा कि वे एक मारते हैं तो तुम चार मारो...
केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पिछले दिनों नक्सल प्रभावित 10 राज्यों के मुख्य सचिवों, पुलिस महानिदेशकों और केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों के महानिदेशकों की बैठक में नक्सलियों के साथ किसी प्रकार की बातचीत से साफ मना कर दिया। इसमें उन्हें नक्सलियों के खात्मे की संभावनाएं भले ही दिख रही हों लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। नक्सलियों के खात्मे के लिए केंद्र और राज्य की सत्ता में काबिज विभिन्न सरकारों द्वारा चलाये गए पूर्व अभियानों का अनुभव बताता है कि राजनाथ सिंह उसी पहल को दोहराने जा रहे हैं जिसकी वजह से देश के विभिन्न हिस्सों में हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों की संख्या में इजाफा हुआ। इनमें हजारों बेगुनाह युवाओं और युवतियों को मौत के घाट उतारा गया। चाहे वे नक्सली के नाम पर मारे गए या फिर सरकारी वर्दी में। 
सबसे ज्यादा जनहानि उन वंचित आदिवासी-दलित समुदाय को उठानी पड़ी जो सरकारी उपेक्षा की वजह से दो वक्त की रोटी के लिए वनों और पहाड़ियों में गुमनाम जिंदगी गुजार रहे थे। वे अपना पसीना बहाकर पहाड़ी और बंजर भूमि को उपजाऊ बना रहे थे लेकिन सामंती और बाजारू हुक्मरानों को यह मंजूर नहीं हुआ। उनकी साजिश से उपजी हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों ने उन्हें विस्थापित होने पर मजबूर कर दिया। उनमें से हजारों मौत के घाट उतार दिए गए । जो बचे हैं वे या तो सलाखों के पीछे हैं या फिर खुले आकाश के नीचे। जंगलों और पहाड़ों में पुलिस प्रशासन के शिकंजे से दूर रहने वालों की तादात बहुत ज्यादा थी लेकिन बातचीत और सहयोग के रूप में प्रशासन की ओर से शुरू की गई कम्युनिटी पुलिसिंग व्यवस्था ने इसमें कमी ला दी। इसका नतीजा यह रहा कि देश के कई इलाके हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों से आजाद हो चुके हैं। वहां लोग हिंसा की जगह विकास की बात कर रहे हैं। 
केंद्रीय गृहमंत्री का गृह जनपद चंदौली भी ऐसे ही इलाकों में शुमार है। वहां एक दशक पहले हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों की इबारत लिखी जाती थी और नई दिल्ली में उनपर चर्चा होती थी। बतौर मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह का वह बयान भी उस समय उत्तर प्रदेश में उन हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों पर अंकुश नहीं लगा पाया था जिसमें उन्होंने सुरक्षाकर्मियों से कहा कि वे एक मारते हैं तो तुम चार मारो। उनके इस बयान के बाद सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली में हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों में इजाफा हो गया। हजारों बेगुनाह मारे गए। हजारों को जेलों में ठूंस दिया गया। उनके कार्यकाल के दौरान ऐसे ही चलता रहा। 
राज्य की सत्ता की बागडोर उनके हाथों से निकलने के बाद उक्त जिलों में कम्युनिटी पुलिसिंग व्यवस्था के तहत अधिकारियों, नक्सलियों और ग्रामीणों के बीच बातचीत शुरू हुई। सभी पक्षों में सूचनाओं का आदान-प्रदान हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि कई कथित हार्डकोर नक्सलियों ने आत्म-समर्पण कर दिया। कई वापस घर लौट आए और समाज की मुख्यधारा में शामिल होकर अपने अधिकारों की आवाज बुलंद करने लगे। हिंसक नक्सली-पुलिस वारदातों की संख्या घट गईं। धीरे-धीरे वे बंद हो गईं। प्रशासन में भी उन वारदातों की जगह विकास के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा होने लगी हैं। ऐसा ही आंध्र प्रदेश समेत अन्य राज्यों के विभिन्न इलाकों में भी देखने को मिला है। इसके बावजूद केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह नक्सलियों से बातचीत की प्रक्रिया को बंद करना चाहते हैं। यह लोकतंत्र विरोधी कदम है। नक्सली भी इस देश के नागरिक हैं। उन्हें भी अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए। 
एक लोकतांत्रिक सरकार का यह दायित्व है कि वह अपने देश के नागरिकों की समस्याओं को सुनें और उनका निदान करे चाहे वह गैर-कानूनी रास्ते से ही अपनी बात क्यों न कह रहे हों? आखिरकार बातचीत में हर्ज ही क्या है? अगर उनकी मांगें लोकतांत्रिक नहीं हैं तो उन्हें नकारा जा सकता है और उनके खिलाफ कानून के विभिन्न प्रावधानों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन, नक्सली सरीखे विरोधियों से बातचीत की प्रक्रिया को बंद करना एक गैर-लोकतांत्रिक, सामंती और तानाशाही पहल है जो बतौर केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह करने जा रहे हैं। उनकी यह सोच उस ओर इशारा करती है जिसके बल पर गरीबों, आदिवासियों और दलितों का सैकड़ों वर्षों से शोषण और दमन हो रहा है। उनके इस कदम से एक बार फिर देश में दलितों और आदिवासियों के दमन की घटनाओं समेत मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में इजाफा होगा जो भारत जैसी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। 

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