बुधवार, 27 मई 2020

रमाबाई अंबेडकर की पुण्यतिथि पर विशेषः भारत माता कौन?

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि आखिरकार ये ‘भारत माता’ हैं कौन? क्या भारत का नक्शा मात्र है या शेर के साथ हाँथ में तिरंगा लिए सुन्दर स्त्री? आखिर हम किसकी रक्षा के लिए जयघोष करते रहते हैं? क्या हम रक्षा के रूप में सिर्फ चीन-पाकिस्तान से सीमा को सुरक्षित करना चाहते हैं? क्या भारत माता सिर्फ सीमा तक ही सीमित हैं? सीमा पर तैनात जवान ही सिर्फ भारत माता के सपूत हैं? या सड़क पर कुव्यवस्था के कारण हजारों किलोमीटर पैदल चलने वाले श्रमवीर भी?

written by डॉ. दिनेश पाल

पने यहाँ ‘जननी जन्मभूमिश्च’ की भावना प्राचीन काल से संस्कृत साहित्य में देखने को मिलती है। बाल्मीकि रामायण में भी इसका जिक्र किया गया है। संस्कृत साहित्य में यह आज भी निरंतर लिखा जाता होगा और लिखना भी चाहिए।

बहरहाल, ‘वंदे मातरम’ गीत की रचना सर्वप्रथम 7 नवंबर, 1878 ई. को बंगाल के कांतलपाडा में ‘बंकिमचंद्र चटर्जी’ द्वारा की गई थी। बाद में 1882 ई.में बंकिम चंद्र चटर्जी ने इस गीत को अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में सम्मिलित कर लिया। यह राजनीतिक उपन्यास 1873 ई. के सन्यासी विद्रोह पर लिखा गया है। जिसे सन्यासी विद्रोह कहा जाता है. उसे डकैत सन्यासी विद्रोह क्यों नहीं कहा गया? मुझे आज तक समझ में नहीं आया, जबकि ये सन्यासी लिबास में डकैती करते थे। खैर, मेरी समझ ही कितनी है।

बताया जाता है कि ‘भारत माता’ शब्द वंदे मातरम से पहले ही चलन में आ चुका था, क्योंकि 1873 ई. में ही ‘भारत माता’ नाटक का मंचन हुआ था, जिसके लेखक थे- किरण चंद्र बनर्जी।

दिसंबर 1905 ई. में कॉंग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में ‘वंदे मातरम’ गीत को राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया गया। बंग-भंग आंदोलन में तो ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय नारा बन गया था। इस नारे की लोकप्रियता को देखकर 1906 ई. में इसे देवनागरी लिपि में लिखा गया। आजादी की लड़ाई में ‘भारत माता’ और ‘वंदे मातरम’ जैसे नारे स्वतंत्रता सेनानियों के भीतर जुनून भरने के साथ-साथ भावनात्मक रूप से एक सूत्र में जोड़ने का काम कर रहा था। 1923 ई. के काकीनाड़ा (बंगाल) कॉंग्रेस अधिवेशन में ‘वंदे मातरम’ के विरोध में स्वर उठना शुरू हुआ। पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेंद्र देव की समिति ने 28 अक्टूबर 1937 ई को कॉंग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अपनी रिपोर्ट पेश करके राष्ट्रगीत की अनिवार्यता व बाध्यता खत्म कर दिया।

1950 को ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगीत और ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान का दर्जा दिया गया लेकिन संविधान में कहीं भी राष्ट्रगीत के लिए कोई अनिवार्यता या बाध्यता की बात नहीं की गई है।

1905 में प्रसिद्ध चित्रकार अवनीन्द्र ठाकुर ने अपनी कल्पना के आधार पर भारत माता का चित्र बना दिया जिसमें चार हाथों वाली एक सुंदर स्त्री दर्शायी गई। स्वामी विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने इस पेंटिंग को और विस्तार दे दिया। 1936 में तो ऐसा विस्तार हुआ कि वाराणसी स्थित काशी विद्यापीठ में भारत माता का मंदिर बना दिया गया और इसके उद्घाटन कर्ता रहे- महात्मा गाँधी। भारत माता मंदिर में संगमरमर के टुकड़ों से भव्य मानचित्र बनाया गया है। आगे चलकर हरिद्वार में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा 1983 में भारत माता मंदिर का निर्माण किया गया, जिसका उद्घाटनकर्ता रहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी। आज की तारीख में तो न जाने कितने शहरों व गांवों में भारत माता का मंदिर बनाया गया होगा। कहीं-कहीं तो दैवीय शक्ति के साथ प्राण-प्रतिष्ठा भी कर दिया गया है। धीरे-धीरे जनमानस में एक छवि तैयार हो गई और लोग हाँथ में तिरंगा लिए शेर के साथ सुंदर महिला को भारत माता का प्रतीक समझने लगे। पिछले दिनों एक तस्वीर में भैंस के साथ एक आदिवासी औरत को माथे पर कलश लिए भारत माता के रूप में सोशल मीडिया में वायरल किया गया। खैर..

आजादी के बाद बहुत सारे जगहों पर ‘वंदे मातरम’ तथा ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए जाते रहे। गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर तो लगभग हर जगह यह नारा सुनने को मिलता था लेकिन यदि कोई नारा नहीं लगाता तो उस पर न तो दबाव डाला जाता और ना ही उसे देशद्रोही कहा जाता और किसी को यह अधिकार भी नहीं है कि वह किसी से जबरी बोलवाये या राष्ट्रभक्ति का प्रमाण पत्र जारी करे। परन्तु पिछले पाँच-छः सालों में क्या हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। देश में विशेषकर कुछ खास टीवी स्टूडियो में ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ पर खूब बहस देखने को मिला। कुछ लोगों को वंदे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ बोलने में कोई एतराज नहीं है और वे शौक से बोलते हैं। कुछ सिरफिरे तो बेवजह बोलकर तुरंत सुनाने भी लगते हैं। कुछ लोग ऐसे भी दिखे जिन्हे बोलने में तो कोई परहेज नहीं है, लेकिन किसी कहने पर क्यों बोले? यह भी बात पते की है। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जिनका सवाल होता है कि भारत को माँ ही क्यों? बाप या पिता क्यों नहीं? या सिर्फ देश ही क्यों नहीं, माता-पिता क्यों? यह भी तर्क सही है। बहरहाल मैं तो कहता हूँ कि भाई तुम्हें जो भी कहना है कहो बशर्ते कि देश-प्रेम व सम्मान बरकरार रखो, जो कि लगभग हर देश में वहाँ का देशवासी रखता है। अफसोस, कुछ जज्बाती लोग नेताओं और टीवी एंकरों के बहकावे में आकर उपर्युक्त नारा को भी सांप्रदायिकता से जोड़ने लगे और दुष्परिणाम यह हुआ कि देशप्रेम की बजाय उन्माद में यह नारा ज्यादा प्रयोग होने लगा।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि आखिरकार ये ‘भारत माता’ है कौन? क्या भारत का नक्शा मात्र है या शेर के साथ हाँथ में तिरंगा लिए सुन्दर स्त्री? आखिर हम किसकी रक्षा के लिए जयघोष करते रहते हैं? क्या हम रक्षा के रूप में सिर्फ चीन-पाकिस्तान से सीमा को सुरक्षित करना चाहते हैं? क्या भारत माता सिर्फ सीमा तक ही सीमित हैं? सीमा पर तैनात जवान ही सिर्फ भारत माता के सपूत हैं? या सड़क पर कुव्यवस्था के कारण हजारों किलोमीटर पैदल चलने वाले श्रमवीर भी? सीमा पर आतंकियों के कायराने हमले में कोई जवान शहीद होता है तो हम उबल पड़ते हैं और भारत माता की जयकारा लगाने लगते हैं और होना भी चाहिए, लेकिन अपने ही सरकार की कुव्यवस्था के कारण गरीब-मजदूर श्रमवीर सड़क पर दम तोड़ देता है या रेलवे पटरी पर कट जाता है तो हम क्यों नहीं उबलते? तब भारत माता की जयकारा क्यों नहीं लगाते? 

क्या सड़क पर लहू बहाती और गर्भ को ढोती धीरे-धीरे सैकड़ों मिल की दूरी कदमों से तय करने वाली माँ भारत माता नहीं है? झुंड-झुंड के परिवार नन्हे-मुन्हे बच्चों को भूखे-प्यासे लेकर तपती धूप में नंगे पाँव सड़कों पर दिल्ली, मुंबई एवं सूरत आदि से पैदल बिहार आते रहे और कितनों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिए, क्या ये सब भारत माता नहीं हैं? आखिर वे उन्मादी राष्ट्रभक्त किधर गुम हो गए हैं? जो बात-बेबात में तिरंगा टाँगकर जय घोष करते सड़कों पर निकल पड़ते थे। ठीक है लॉक डाउन में बाहर सड़कों पर नहीं निकल सकते, लेकिन सोशल मीडिया पर भी तो शांत नहीं रहते थे, वे वहीं क्यों नहीं जयघोष करते और कुव्यवस्था पर सवाल क्यों नहीं उठाते? आखिर क्यों साँप सूँघ गया है?

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनी किताब ‘भारत की खोज’ में लिखते हैं- “कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत ‘भारत माता की जय!’ इस नारे से जोर के साथ किया जाता। मैं लोगों से अचानक पूछ बैठता कि इस बारे में उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है, जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न बन पड़ने पर वे एक-दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लग जाते। मैं सवाल करता ही रहता। आखिर एक हट्टे-कट्ठे जाट ने, जो अनगिनत पीढ़ियों से किसानी करता आया था, जवाब दिया कि भारत माता से उनका संबंध धरती से है। कौन सी धरती? खास उनके गाँव की धरती या जिले की या सूबे की या सारे हिन्दुस्तान की धरती से मतलब है? इस तरह सवाल-जवाब चलते रहते, यहाँ तक कि वे ऊबकर मुझसे कहने लगते कि मैं ही बताऊँ। मैं इसकी कोशिश करता और बताता कि हिन्दुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है, लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिन्दुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं। लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिन्दुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं, और ‘भारत माता की जय!’ से मतलब हुआ इन लोगों की जय का। मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हों।“

बहुत सारे युवा कक्षा ग्यारहवीं के एनसीईआरटी पाठ्यक्रम (हिन्दी) में ‘भारत माता’ पाठ पढ़ते भी हैं, परन्तु परीक्षा के पश्चात कितने प्रतिशत विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम याद रह पाता है। फिर ये तो ऐसे भी उन्मादी युवा ठहरे। आजादी के बाद संभवतः पहली बार भारत के श्रमवीर इतनी बुरी तरह पीड़ित हैं तब भारत माता की जयकारा लगाने वाले न जाने किस खोह में चले गए हैं। आज भारत माता खून से लहूलुहान और आंसुओं से तरबतर हैं तो सरकार से सवाल पूछने की बजाय लोग गहरी नींद में सो रहे हैं।

(लेखक बिहार के छपरा स्थित जय प्रकाश विश्वविद्यालय में हिन्दी के सहायक प्राध्यापक हैं। यह उनके निजी विचार हैं। इससे संपादक का सहमत होना जरूरी नहीं है।)

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