गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

अंबेडकर जयंती पर भाकपा (माले) ने किया मनु स्मृति के प्रतीक का दहन

वाराणसी में मनु स्मृति के प्रतीक को जलाते हुए भाकपा (माले) और आइसा के कार्यकर्ता।
वनांचल न्यूज नेटवर्क


वाराणसी। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती की पूर्व संध्या के मौके पर भाकपा (माले) और उसके छात्र संगठन आइसा का कार्यकर्ताओं ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था की कुरीतियों को मजबूती प्रदान करने वाली बहुचर्चित किताब मनुस्मृति की प्रतीक प्रति का दहन किया। इस दौरान वक्ताओं ने कहा कि केंद्र की मोदी सरकार संविधान को दरकिनार कर छात्रों का दमन कर रही है। साथ ही वह ऐसी नीतियों को लागू कर रही है जो आम जनता के हित में नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार बाबा भीमराव अंबेडकर की अगुआई में लिखित एवं लागू किये गए भारतीय संविधान को दरकिनार कर ब्राह्मणवाद की पोषक किताब मनुस्मृति में उल्लेखित कुरीतियों को लागू करना चाहती है जिसे मंजूर नहीं किया जाएगा। इस दौरान भाकपा (माले) के मनीष शर्मा, सरिता पटेल समेत दर्जनों कार्यकर्ता मौजूद रहे। 

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

सीवर में हो रही मौतों को रोकने के लिए प्रधानमंत्री को अल्टीमेटम


भीम यात्रा ने पूरा किया ऐतिहासिक सफर। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के एक दिन पूर्व देश की राजधानी में गूंजा देश देशभर के सीवर में हो रही मौतों का मुद्दा। मैला प्रथा के खात्मे को लेकर जंतर-मंतर पर हुआ प्रदर्शन।

By मुकुल सरल

नई दिल्ली। देश के विभिन्न सीवरों में हर दिन हो रही मौतों को तुरंत रोकने और देश भर से मैला प्रथा के खात्मे के लिए प्रधानमंत्री को एक महीने का अल्टीमेटम देकर सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) की भीम यात्रा ने आज एक ऐतिहासिक चरण पूरा किया। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में 125 दिन की राष्ट्रीय बस यात्रा के जरिये एसकेए ने सीधे-सीधे सीवर-सेप्टिक टैंक में हो रही मौतों को राजनीतिक हत्याएं कहा और तीखा सवाल पूछा-हमारा हत्यारा कौन है? देश के कोने-कोने से आए सफाई कर्मचारी आंदोलन के हजारों कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को आगामी राष्ट्रीय राजनीति के एक निर्णायक मुद्दे के तौर पर पेश किया और ऐलान किया कि इस समस्या का हल किए बिना सभी सरकारें सिर्फ बाबा साहेब के नाम पर ढोंग कर रही हैं। बाबा साहेब की 125वी जयंती के उपलक्ष्य में एसकेए ने देश भर से 125 उन परिवारों के दुख को देश से साझा किया, जिनकी मौतें सीवर-सेपिटक टैंक में हुई थीं।

आज जंतर-मंतर पर हुए इस कार्यक्रम की शुरुआत ही उन महिलाओं और पुरुषों की वेदना से हुई, जिनके परिजनों ने सीवर-सेपिटक में जान गंवाई थी। चाहे वह बिहार के सहरसा इलाके की सुनी देवी का दुख हो या कर्नाटक की लक्ष्मी अमावस्य या चंढीगढ़ की संतोष या लखनऊ की सुनैना या बनारस की पिंकी और इनके साथ आई 125 महिलाएं और पुरुष सब अपने परिजनों को गटर में खोने का दुख सुनाने और इस दुख को इन हत्याओं को रोकने की शक्ति में बदलने के इरादे से आज आए थे।

बड़ी संख्या में सिविल सोसाएटी, प्रबुद्ध नागरिक, छात्र, न्यायविद्, अकादमिक आज भीम यात्रा के समर्थन में आए थे। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व जज एपी शाह ने भी आकर अपना समर्थन जताया और कहा कि जब तक इस प्रथा का खात्मा नहीं होता, लोकतंत्र और बराबरी की लड़ाई अधूरी है। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार पी.साईनाथ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर कटाक्ष करते हुए कहा कि माल्या जैसे लोगों को गरीब जनता के लाखों-करोड़ रुपये लेकर भाग जाने देते हैं लेकिन सफाई कर्मचारियों के जीवन को सुधारने, मैला प्रथा को खत्म करने और सीवर-सेप्टिक की सफाई को आधुनिक करने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं है।

एसकेए के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन ने ऐलान किया कि ये मौतें राजनीतिक हत्याएं हैं और इन्हें अब समाज बर्दाश्त नहीं करेगा। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की सच्ची विरासत यही है कि इस बर्बर प्रथा के खात्मे के लिए काम किया जाए। आज केंद्र सरकार बाबा साहेब को उनकी असली विचारधारा से काटकर उन पर कब्जा करने की कोशिश कर रही है, जो बेहद खतरनाक है।
वरिष्ठ दलित लेखक आनंद तेलतुंडे ने भीम यात्रा को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि यह नई किस्म की राजनीति गढ़ रही है, जो सीधे ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दे रही है। भाकपा के सांसद डी.राजा ने बताया कि किस तरह से सफाई कर्मचारी आंदोलन ने सफलतापूर्वक मैला प्रथा की समाप्ति और सीवर-सेप्टिक टैंक में मौतों को राष्ट्रीय एजेंडा बनाया।

दिल्ली सरकार में परिवहन मंत्री गोपाल राय ने भी यह आश्वासन दिया कि वह दिल्ली को मैला प्रथा मुक्त करने और सीवर मौतों को रोकने के लिए काम करेंगे। एमकेएसएस की अरुणा राय ने कहा कि समाज को बदलने का काम भीम यात्रा शुरू कर चुकी है और इसे आगे बढ़ाना हम सबकी जिम्मेदारी है।


इस मौके पर बड़ी संख्या में सिविल सोसोएटी के लोग आए और उन्होंने इस मुद्दे के साथ मिलकर आगे लड़ने की घोषणा की। इनमें एमनेस्टी इंटरनेशनल के आकार पटेल, एशिया दलित राइट्स के पॉल दिवाकर, विमल थोरात, कमला भसीन, वृंदा ग्रोवर, हर्ष मंदर, उषा रमानाथन, इंदु प्रकाश, अपराजिता राजा, नीलाभ मिश्रा, पत्रकार भाषा सिंह, संजीव चंदन, पंकज बिष्ट, मैत्रेयी पुष्पा, अनुराधा, अजय सिंह, राजकुमार, वेद प्रकाश, नौरती बाई आदि ने संबोधित किया।

आपकी बेरुख़ी तोड़ देगी पत्रकारों का दिल

लोकतंत्र में जागरूक नागरिक बनना एक मुश्किल काम है। आई आई टी के लिए तैयारी करने से भी ज़्यादा अध्ययन की ज़रूरत पड़ती है। जलेबी का रस और समोसे का तेल सोखने के काम आने वाले अख़बारो को पढ़ने से कोई फायदा नहीं। आपको देखना चाहिए कि उन अख़बारों में ऐसी पत्रकारिता के लिए कोई जगह भी है या कभी आपने इस तरह की खोजी पत्रकारिता देखी भी है, जिसमें दुनिया भर कई सैंकड़ों पत्रकार दिन रात लगे हों। मुल्क की सीमाएँ और संगठन की दीवारें ध्वस्त हो गईं हों...


क्या आप बिल्कुल ही पनामा पेपर्स से उजागर हो रहे कारनामों को समझ नहीं पा रहे हैं? अंग्रेजी दैनिक अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों एक ही विषय पर लंबी लंबी कई रपटें प्रकाशित कीं। यह भी हो सकता है कि वक्त की कमी के कारण आप पनामा पेपर्स को समय नहीं दे पा रहे हों। दुनिया के कई देशों के अख़बारों में उनके यहां के कारनामों के बारे में इसी तरह रिपोर्ट छप रही है। पनामा पेपर्स को अब तक सबसे बड़ा (लीक्स) खुलासा बताया गया है। हालांकि ख़ुलासा सही शब्द नहीं है क्योंकि खुलासा का मतलब होता है ज़रा सा बताना लेकिन हिन्दी मीडिया के चलन में ख़ुलासा ठीक उल्टा मतलब के लिए इस्तमाल होने लगा है यानी सब कुछ बता देना।

कई बार ऐसे जटिल आर्थिक विषयों के प्रति उदासी समझ आती है। मैं ख़ुद अपनी अयोग्यता और अकुशलता के कारण ऐसे तमाम विषयों में हाथ डालने से बचता हूं लेकिन इस बार थोड़ा-थोड़ा करने समझने का प्रयास किया कि मामला क्या है। एक आम पाठक को क्यों इसमें दिलचस्पी लेनी चाहिए और इसके बारे में बात करनी चाहिए। हमारे उद्योगपति निवेश के नाम पर पैसे का किस तरह इस्तमाल करते हैं, कहां से पैसा लाते हैं और किस किस को मदद करते हैं, इन सबकी हमें मामूली जानकारी भी नहीं होती। सबकुछ कानून और रसूख की बंद दीवारों के भीतर होता है । भावावेश में आकर हम कई बार उन्हें या तो चोर कह देते हैं या कई बार कुछ कह पाने की स्थिति में ही नहीं होते। दोनों ही मामले में ख़ुद को जागरूक नागरिक समझने का भ्रम पालने वालों के लिए ये उदासी ख़तरनाक साबित हो सकती है।

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पनामा पेपर्स के खुलासे के दो दिन बाद कहा है कि टैक्स चोरी से बचने के ये तरीके दुनिया भर के लिए समस्या हैं। इनमें से बहुत से खाते और कंपनियां कानूनी हैं मगर समस्या तो यही है। ऐसा नहीं है कि इन लोगों ने कानून तोड़े हैं बल्कि समस्या ये है कि ऐसे कानून ही क्यों हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने कहा है कि कुछ खाते वैध भी हो सकते हैं लेकिन हम जांच करेंगे। भारत सरकार ने भी इसकी जांच के लिए कई एजेंसियों को जिम्मा सौंपा है। पाकिस्तान में भी इसकी न्यायिक जांच की घोषणा हो गई है। नार्वे से लेकर आस्ट्रेलिया तक में जांच होने लगी है।

मेरे ख़्याल से राष्ट्रपति ओबामा का बयान वैध अवैध की सीमा से आगे जाकर यह कह रहा है कि ऐसे नियम ही क्यों बने हैं। जहां लोग कानूनी तरीके से कागज़ी कंपनियां बनाते हैं, उनमें निदेशक बनते हैं, कई बार आम लोगों से भी शेयर के ज़रिये पैसा बटोरते हैं, कई बार दलाली से लेकर हथियार सौदे का पैसा लगाकर काले धन को कानूनी कर देते हैं। पनामा पेपर्स में जिन दो लाख से अधिक कंपनियों के नाम आए हैं। वो कंपनियां कानूनी तरीके से बनाई गईं होंगी मगर क्या उनमें लगे पैसे भी कानूनी रूप से ही कमाये गए होंगे। इसके लिए कंपनी बनाने और निवेश के नियमों की समझ ज़रूरी है मगर यह जानकारी न भी हो तो एक एंगल से मामले को आसानी से समझा जा सकता है।

पनामा पेपर्स के एक करोड़ से भी अधिक दस्तावेज़ कंपनी के चालीस साल के कारनामों के हिसाब हैं। यह दस्तावेज़ हैं मोज़ाक फोंसेका कंपनी के। यह कंपनी दुनिया भर के तमाम राष्ट्र प्रमुखों, नेताओं, कारोबारियों और मशहूर हस्तियों के पैसे का बंदोबस्त करने के लिए काग़ज़ी कंपनियां खुलवाती है और उनमें निवेश करवाती है। फोंसेका का दावा है कि वो यह काम कानूनी तरीके से करती है। फोंसेका अपने ग्राहकों के बारे में नहीं जानती क्योंकि ये ग्राहक उस तक मशहूर बैंकों के ज़रिये पहुंचते हैं। ऐसा भी पता चला है कि बड़े बैंक और फोंसेका मिलकर इधर-उधर का गेम खेलते हैं। ग्राहक अपना पैसा लेकर बैंक के पास पहुंचता है और बैंक उस पैसे को ठिकाने लगाने के लिए फोंसेका की मदद से कंपनी खुलवा देते हैं। बकायदा इसके प्रमाण हैं। पनामा पेपर्स से पहले ही ये पहलू साबित हो चुका है। अब हम प्रयास करेंगे कि मोज़ाक फोंसेका नाम की कंपनी के ज़रिये इस मामले के नैतिक और कानूनी पहलू को समझा जाए।

एक बार जब आप फोंसेका के ग्राहकों की वेरायटी जान लेंगे तब आपको पता चलेगा कि आतंक से लड़ने के नाम पर और बिजनेस बढ़ाने के नाम पर आपको कैसे उल्लू बनाया जा रहा है। यह सही हो सकता है कि फोंसका ने कई उद्योगपतियों के लिए कानूनी तरीके से कंपनियां खुलवाने में मदद की जहां वे निवेश कर सके या अपना पैसा रख सके। हम और आप भी टैक्स बचाते हैं लेकिन हम छिपा कर नहीं बचाते हैं। हम उसके लिए जीवन बीमा खरीदते हैं या मकान ख़रीदते हैं। क्या इन उद्योपतियों को कानून ने इजाज़त दी है कि वे अपना टैक्स बचाने के लिए पनामा में कंपनी खोल सकते हैं? कंपनी खोली भी तो क्या सबने अपने अपने देश में उनकी जानकारी दी? वेबसाइट पर बताया? अपने शेयरधारकों को बताया?

पनामा पेपर्स से पता चलता है कि मोज़ाक फोंसेका नाम की कानूनी सहायता प्रदान करने वाली कंपनी ने ऐसी कंपनी आतंकवादी संगठनों की मदद करने वाले, ड्रग माफिया से लेकर बैंक लुटेरों और यहां तक कि दाऊद इब्राहीम के पैसे को ठिकाने लगाने में मदद की। फोंसेका एक ऐसी दुकान है जहां एक कानून का पालन करने वाला अमीर उद्योगपति भी जाने का दावा करता है, जहां कोई आतंकवादी संगठन से जुड़ा हुआ अपना पैसा लेकर चला जाता है, ड्रग माफिया भी चला जाता है। फिर भी आप इतनी आसानी से मान ले रहे हैं कि इस खुलासे में तो कुछ भी नहीं हुआ। दुनिया भर के 370 पत्रकार बेकार में ही साल भर तक इन लाखों पन्नों को पलटते रहे और अपने अपने मुल्कों में छानबीन करते रहे।

सीरीया में युद्ध चल रहा है। इस युद्ध में कई देश शामिल हैं और सबने सीरीया पर प्रतिबंध लगाये हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि राष्ट्रपति असद ने अपने नागरिकों की हत्या करवाई है। अब जब प्रतिबंध लग गया है तो फिर फोंसेका सीरीया को तेल और गैस सप्लाई करने के लिए बेनामी कंपनी खुलवाने में कैसे मदद कर सकती है। इस सीरीया संकट से खतरनाक आतंकी संगठन आई एस आई एस का उभार हुआ है जिससे दुनिया तंग है। अब जब ये देश इतनी संजीदगी से आतंक के खिलाफ लड़ने का राष्ट्रीय प्रसारण करते हैं तो उन्हें ये बात कैसे पता नहीं चली कि कुछ लोग हैं जो कंपनी बनाकर सीरीया को तेल और गैस सप्लाई कर रहे हैं। ये तेल और गैस क्या एक आदमी के सपने से सीराया के राष्ट्रपति के सपने में ट्रांसफर हो जाते होंगे। जाते तो किसी रास्ते से ही होंगे न तो क्या वो भी नहीं दिखता है।  रूस के राष्ट्रपति ने भी पिछले साल आरोप लगाया था कि आतंकी संगठन के साथ कई देश कारोबार कर रहे हैं। ये खेल चल रहा है आतंक को लेकर। और इस खेल में आम आदमी कहीं हिन्दू मुस्लिम के एंगल से भिड़ा हुआ है तो कहीं इस्लामी आतंक के एंगल से। सीरीया की मददगार कोई एक कंपनी नहीं है बल्कि कई कंपनियों का नेटवर्क है।

और तो और इनमें से तीन कंपनियां ऐसी हैं जिन पर अमरीकी कानून के तहत प्रतिबंध भी लगा हुआ है। इन्हीं में से एक कंपनी के लिए मोज़ाक फोंसेका ने काम भी किया है। अमरीका के अपने रिकार्ड कहतेहैं कि 334 लोगों और कंपनियों के साथ मोज़ाक फोंसेका ने काम किया है। अमरीकी दस्तावेज़ों के मुताबिक पश्चिम एशिया में सक्रिय आतंकवादियों और युद्ध अपराधियों के संदिग्ध साहूकारों( फाइनेन्सर्स) के लिए काग़ज़ी कंपनी बनाकर मोज़ाक फोंसेका ने पैसे कमाए हैं।

हैं न कमाल का खेल ये। अगर कोई उद्योगपति या वकील सही तरीके से कंपनी खोलकर इंग्लैंड और जर्मनी में निवेश कर सकता है तो क्या आप या हम ये मान लें कि इन देशों में बिजनेस करने का एकमात्र रास्ता यही है कि आप पहले पनामा या ब्रिटिश वर्जीन आइलैंड जाकर काग़ज़ी कंपनी बनाए, इन कंपनियों में ऐसे निदेशक रखें जिनके नाम के आगे दिए गए पते पर पहाड़गंज या मुंबई के चाल में रहने वाले ग़रीब लोग रहते हो। ऐसा कैसे हो सकता है कि फोंसेका एक सही कारोबारी के लिए काम करती है और आतंकवादी के लिए भी। काग़ज़ पर कंपनी खुले और फिर बंद हो जाए, पैसा डाला जाए और निकाल कर कहीं और लगा दिया जाए इसमें कुछ ग़लत ही नहीं है। वाह रे दुनिया।

बुधवार के इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी है कि बाहर की एक कंपनी को भारतीय नोट छापने का ठेका चाहिए। कंपनी ने दिल्ली में रहने वाले किसी व्यक्ति को संपर्क किया कि आपको करोड़ों देंगे। इस व्यक्ति ने ठेके दिलवा दिये और उसे पैसे देने के लिए बाहर वाली कंपनी ने दिल्ली वाले सज्जन के लिए एक कंपनी बनवा दी। कंपनी बनाई फोंसेका ने और सज्जन जी को करोड़ों रुपये मिल गए। फिर भी हंगामा नहीं। एक नागरिक के तौर पर ऐसी उदासीनता इसलिए ठीक नहीं है कि नेता का नाम नहीं आया। क्या आप ठीक ठीक जानते हैं कि इस खेल में शामिल कंपनियां सभी प्रकार के दलों की आर्थिक मदद नहीं करती होंगी. ये उद्योगपति या कारोबारी इन नेताओं के फ्रंट नहीं होंगे।

लोकतंत्र में जागरूक नागरिक बनना एक मुश्किल काम है। आई आई टी के लिए तैयारी करने से भी ज़्यादा अध्ययन की ज़रूरत पड़ती है। जलेबी का रस और समोसे का तेल सोखने के काम आने वाले अख़बारो को पढ़ने से कोई फायदा नहीं। आपको देखना चाहिए कि उन अख़बारों में ऐसी पत्रकारिता के लिए कोई जगह भी है या कभी आपने इस तरह की खोजी पत्रकारिता देखी भी है, जिसमें दुनिया भर कई सैंकड़ों पत्रकार दिन रात लगे हों। मुल्क की सीमाएँ और संगठन की दीवारें ध्वस्त हो गईं हों।

यह सवाल पाठक के तौर पर आपको खुद से करना है कि ट्रैक्टर ट्राली के टक्कर की ख़बरें पढ़ने के लिए आप महीने का तीन सौ चार सौ रुपया क्यों देते हैं? ये अख़बार ट्रैक्टर ट्राली के टक्कर की ख़बरों में मारे गए लोगों से इंसाफ भी नहीं करते। बस किसी कोने में छाप देते हैं जिन्हें हम अपनी ज़ुबान में ख़बर लगाना कहते हैं। खासकर हिन्दी के अख़बारों में आपने ख़बरों के प्रकाशन की परंपरा देखी है ? न्यूज़ चैनलों में ऐसी परंपरा देखी है? नहीं देखी है तो उनसे पूछा क्यों नहीं है। इसीलिए पनामा पेपर्स से जो उजागर हो रहा है उसके साथ साथ एक पाठक के तौर पर भी आप भी उजागर हो रहे हैं। जिसे अंग्रेज़ी में एक्सपोज़ होना कहते हैं।  कहीं आप एक आलसी और लापरवाह पाठक तो नहीं हैं। अपनी बेरूख़ी से ये ज़ाहिर न करें कि मेहनत से की गई पत्रकारिता के कद्रदान आप नहीं हैं। पाठक कद्र नहीं करेंगे तो पत्रकारों का दिल टूट जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार  हैं। इन दिनों वह एनडीटीवी इंडिया में  सीनियर एक्ज़ेक्यूटिव एडिटर पद पर कार्यरत हैं। यह लेख उनके ब्लॉग 'कस्बा' से लेकर प्रकाशित किया जा रहा है ताकि आप भी उनकी नज़रों से अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' के 'पनामा पेपर लीक्स' के महत्व को समझ सकें।- संपादक)

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बुधवार, 16 मार्च 2016

रिहाई मंच के ‘जन विकल्प मार्च’ पर लाठी चार्ज, महिलाओं समेत दर्जनों घायल, सैकड़ों गिरफ्तार


कार्यकर्ताओं पर लाठी चार्ज और महिला कार्यकर्ताओं से बदसलुकी ।
मनुवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ नया राजनीतिक विकल्प खड़ा कर रहा मंच।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। आतंकवाद के नाम पर देश की विभिन्न जेलों में बंद बेगुनाहों की रिहाई के लिए अभियान चला रहे रिहाई मंच ने आज सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ जन विकल्प मार्चनिकाला। विधानसभा की ओर जा रहे मार्च को पुलिस ने बीच में ही रोक दिया जिससे मंच के नेताओं और पुलिस के बीच नोकझोंक भी हुई। विधानसभा तक मार्च करने की जिद पर अड़े रिहाई मंच के सैकड़ों कार्यकर्ताओं और नेताओं पर पुलिस ने आखिरकार लाठीचार्ज कर दिया जिससे भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई। पुलिस के लाठीचार्ज में महिलाओं समेत दर्जनों लोग घायल हो गए। पुलिस ने मार्च में शामिल नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें पुलिस लाइन ले गई। जिन्हें बाद में निजी मुचलके पर छोड़ दिया गया। मंच का दावा है कि पुलिस ने इस दौरान रिहाई मंच के कार्यकर्ताओं के साथ महिला नेताओं के साथ अभद्रता की और उन पर भी लाठीचार्ज किया।


मंच ने कहा कि प्रदेश में सत्तारुढ़ अखिलेश सरकार द्वारा सरकार के चार बरस पूरे होने पर जन विकल्प मार्च निकाल रहे लोगों को रोककर तानाशाही का सबूत दिया है। मंच ने अखिलेश सरकार पर आरोप लगाया कि जहां प्रदेश भर में एक तरफ संघ परिवार को पथसंचलन से लेकर भड़काऊ भाषण देने की आजादी है लेकिन सूबे भर से जुटे इंसाफ पसंद अवाम जो विधानसभा पहुंचकर सरकार को उसके वादों को याद दिलाना चाहती थी को यह अधिकार नहीं है कि वह सरकार को उसके वादे याद दिला सके। मुलायम और अखिलेश मुसलमानों का वोट लेकर विधानसभा तो पहुंचना चाहते हंै लेकिन उन्हें अपने हक-हुकूक की बात विधानसभा के समक्ष रखने का हक उन्हें नहीं देते। अखिलेश सरकार पर लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने का आरोप लगाते हुए मंच ने कहा कि इस नाइंसाफी के खिलाफ सूबे भर की इंसाफ पसंद अवाम यूपी में नया राजनीतिक विकल्प खड़ा करेगी।


रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि जिस तरीके से इंसाफ की आवाज को दबाने की कोशिश और मार्च निकाल रहे लोगों पर हमला किया गया उससे यह साफ हो गया है कि यह सरकार बेगुनाहों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों के दमन पर उतारु है। उसकी वजहें साफ है कि यह सरकार बेगुनाहों के सवाल पर सफेद झूठ बोलकर आगामी 2017 के चुनाव में झूठ के बल पर उनके वोटों की लूट पर आमादा है। सांप्रदायिक व जातीय हिंसा, बिगड़ती कानून व्यवस्था, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, महिला, किसान और युवा विरोधी नीतीयों के खिलाफ पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत पूरे सूबे से आई इंसाफ पसंद अवाम की राजधानी में जमावड़े ने साफ कर दिया कि सूबे की अवाम सपा की जन विरोधी और सांप्रदायिक नीतियों से पूरी तरह त्रस्त है। उन्होंने कहा कि सपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था कि आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों को रिहा करेगी, उनका पुर्नवास करेगी और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करेगी। पर उसने किसी बेगुनाह को नहीं छोड़ा उल्टे निमेष कमीशन की रिपोर्ट पर कार्रवाई न करते हुए मौलाना खालिद मुजाहिद की पुलिस व आईबी के षडयंत्र से हत्या करवा दी। कहां तो सरकार का वादा था कि वह सांप्रदायिक हिंसा के दोषियों को सजा देगी लेकिन सपा के राज में यूपी के इतिहास में सबसे अधिक सांप्रदायिक हिंसा सपा-भाजपा गठजोड़ की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति द्वारा करवाई गई। भाजपा विधायक संगीत सोम, सुरेश राणा को बचाने का काम किया गया। उन्होंने कहा कि सपा सैफई महोत्सव से लेकर अपने कुनबे की शाही विवाहों में प्रदेश के जनता की गाढ़ी कमाई को लुटाने में मस्त है। दूसरी तरफ पूरे सूबे में भारी बरसात और ओला वृष्टि के चलते फसलें बरबाद हो गई हैं और बुंदेलखंड सहित पूरे प्रदेश का बुनकर, किसान-मजदूर अपनी बेटियों का विवाह न कर पाने के कारण आत्महत्या करने पर मजबूर है।

रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने कहा कि दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या और जेएनयू में कन्हैया कुमार, उमर खालिद, अनिर्बान को देशद्रोही घोषित करने की संघी मंशा के खिलाफ पूरे देश में मनुवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़े हो रहे प्रतिरोध को यह जन विकल्प मार्च प्रदेश में एक राजनीतिक दिशा देगा। उन्होंने कहा कि बेगुनाहों, मजलूमों के इंसाफ का सवाल उठाने से रोकने के लिए जिस सांप्रदायिक जेहनियत से जन विकल्प मार्चको रोका गया अखिलेश की पुलिस द्वारा जन विकल्प मार्चपर हमला बोलना वही जेहनियत है जो जातिवाद-सांप्रदायिकता से आजादी के नाम पर जेएनयू जैसे संस्थान पर देश द्रोही का ठप्पा लगाती है। उन्होंने कहा कि सपा केे चुनावी घोषणा पत्र में दलितों के लिए कोई एजेण्डा तक नहीं है और खुद को दलितों का स्वयं भू हितैषी बताने वाली बसपा के हाथी पर मनुवादी ताकतें सवार हो गई हैं। प्रदेश में सांप्रदायिक व जातीय ध्रुवीकरण करने वाली राजनीति के खिलाफ    रिहाई मंच व इंसाफ अभियान का यह जन विकल्प मार्च देश और समाज निर्माण को नई राजनीतिक दिशा देगा।

इंसाफ अभियान के प्रदेश प्रभारी राघवेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि सपा सरकार के चार बरस पूरे होने पर यह जन विकल्प मार्च झूठ और लूट को बेनकाब करने का ऐतिहासिक कदम था। सरकार के बर्बर, तानाशाहपूर्ण मानसिकता के चलते इसको रोका गया क्योंकि यह सरकार चैतरफा अपने ही कारनामों से घिर चुकी है और उसके विदाई का आखिरी दौर आ गया है। अब और ज्यादा समय तक सूबे की इंसाफ पसंद आवाम ऐसी जनविरोधी सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगी।

सिद्धार्थनगर से आए रिहाई मंच नेता डॉ. मजहरूल हक ने कहा कि मुसलमानों के वोट से बनी सरकार में मुसलमानों पर सबसे ज्यादा हिंसा हो रही है। हर विभाग में उनसे सिर्फ मुसलमान होने के कारण अवैध वसूली की जाती है। उन्हें निरंतर डराए रखने की रणनीति पर सरकार चल रही है। लेकिन रिहाई मंच ने मुस्लिम समाज में साहस का जो संचार किया है वह सपा के राजनीतिक खात्में की बुनियाद बनने जा रही है। वहीं गोंडा से आए जुबैर खान ने कहा कि इंसाफ से वंचित करने वाली सरकारें इतिहास के कूड़ेदान में चली जाती हैं। सपा ने जिस स्तर पर जनता पर जुल्म ढाए हैं, मुलायाम सिंह के कुनबे ने जिस तरह सरकारी धन की लूट की है उससे सपा का अंत नजदीक आ गया है। इसलिए वह सवाल उठाने वालों पर लाठियां बरसा कर उन्हें चुप कराना चाहती है।

मुरादाबाद से आए मोहम्मद अनस ने कहा कि आज देश का मुसलमान आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा डरा और सहमा है। कोई भी उसकी आवाज नहीं उठाना चाहता। ऐसे में रिहाई मंच ने आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों के फंसाए जाने को राजनीतिक मुद्दा बना दिया है वह भविष्य की राजनीति का एजेंडा तय करेगा। बम्बई से आए मोहम्मद इस्माईल ने कहा कि सपा की अपनी करनी के कारण आज पूरे सूबे में जो माहौल बना है वह उससे झंुझलाई सरकार अब उससे सवाल पूछने वालों पर हमलावर हो गई है। रिहाई मंच इस जनआक्रोश को जिस तरह राजनीतिक दिशा देने में लगा है वह प्रदेश की सूरत बदल देगा।


प्रदर्शन को मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित संदीप पांडे, फैजाबाद से आए अतहर शम्सी, जौनपुर से आए औसाफ अहमद, प्यारे राही, बलिया से आए डाॅ अहमद कमाल, रोशन अली, मंजूर अहमद, गाजीपुर से आए साकिब, आमिर नवाज, गोंडा से आए हादी खान, रफीउद्दीन खान, इलाहाबाद से आए आनंद यादव, दिनेश चैधरी, बांदा से आए धनन्जय चैधरी, फरूखाबाद से आए योगेंद्र यादव, आजमगढ़ से आए विनोद यादव, शाहआलम शेरवानी, तेजस यादव, मसीहुद््दीन संजरी, सालिम दाउदी, गुलाम अम्बिया, सरफराज कमर, मोहम्मद आमिर, अवधेश यादव, राजेश यादव, उन्नाव से आए जमीर खान, बनारस से आए जहीर हाश्मी, अमित मिश्रा, सीतापुर से आए मोहम्मद निसार, रविशेखर, एकता सिंह, दिल्ली से आए अजय प्रकाश, प्रतापगढ़ से आए शम्स तबरेज, मोहम्मद कलीम, सुल्तानपुर से आए जुनैद अहमद,कानपुर से आए मोहम्मद अहमद, अब्दुल अजीज, रजनीश रत्नाकर, डाॅ निसार, बरेली से आए मुश्फिक अहमद, शकील कुरैशी, सोनू आदि ने भी सम्बोधित किया। संचालन अनिल यादव ने किया।
(प्रेस विज्ञप्ति)

'शून्यकाल में बजता झुनझुना' को मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015

2006 में प्रकाशित हुआ था रमेश प्रजापति का पहला कविता संग्रह पूरा हँसता चेहरा

वनांचल न्यूज नेटवर्क

अलीगढ़। मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015 के लिए युवा कवि और शिक्षक रमेश प्रजापति के कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' का चयन किया गया है। केपी सिंह मेमोरियल ट्रस्ट की ओर से 2 अप्रैल को अलीगढ़ में आयोजित कार्यक्रम में उन्हें यह पुरस्कार दिया जाएगा। ट्रस्ट की अध्यक्ष नमिता सिंह ने यह जानकारी दी। 


ट्रस्ट की ओर से जारी विज्ञप्ति में कहा नमिता सिंह ने जानकारी दी है कि कविता पुरस्कार के निर्णायक मण्डल में प्रख्यात कवि नरेश सक्सेना और युवा समीक्षक प्रोफेसर वेद प्रकाश ने युवा कवि रमेश प्रजापति के कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' का चयन किया। निर्णायक मंडल के निर्णय से ट्रस्ट के पदाधिकारी भी सहमत हैं। आगामी 2 अप्रैल को अलीगढ़ में ट्रस्ट की ओर से एक कार्यक्रम किया जा रहा है जिसमें मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार-2015 प्रदान किया जाएगा। 

रमेश प्रजापति
गौरतलब है कि रमेश प्रजापति जन-जीवन से जुड़ी लोकधर्मी कविताओं के लिए चर्चित हैं। 2006 में उनका पहला कविता संग्रह पूरा हँसता चेहराप्रकाशित हुआ था। उनकी अनेक कविताओं का मलयालम, पंजाबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। जीवन संघर्षों से जुड़े कवि रमेश प्रजापति की कविताओं में साधारणजन के संघर्षों के स्वर मुखर होते हैं। शून्यकाल में बजता झुनझुनाकी कविताएँ अपने समय को प्रतिबिंबित करती हैं। 

कविता संग्रह 'शून्यकाल में बजता झुनझुना' की समीक्षा

लड़की के रूखे बालों में यूँ ही ठूंसा कनेर का फूल

डा. कृष्ण चंद्र गुप्त

फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा था- ‘बज़्में ज़िंदगी बदली कि रंगे शायरी बदली।’’ ज़िंदगी की बज़्म का रंगरूप दिन-प्रतिदिन बदल रहा है। उस हिसाब से अधिकांश शायरी के मिजाज़ से बदलाव नहीं पड़ता लेकिन जो समय की नब्ज़ पकड़ने में सफल हुए हैं, उनमें बदलाव दिखाई पड़ता है। रमेश ऐसे ही रचनाकारों में से हैं। ‘‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’’ उनका दूसरा कविता संकलन है। इसकी कविताओं में जनजीवन ही क्या लोक जीवन की धड़कनें साफ सुनी जा सकती हैं। वहाँ से भी वे कविता निकाल लेते हैं जहाँ पर अभिजात वर्ग क्या सामान्य वर्ग की दृृष्टि पड़ती नहीं। रमेश प्रजापति व्यक्तिगत जीवन की उलझनों, सामाजिक जीवन की उथल-पुथल को अनदेखा नहीं कर पाते, क्योंकि वहीं से उनकी संवेदनाएँ दाना-पानी ग्रहण करती है बड़ी ही सहजता से। केवल अव्यवस्था, शोषण, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक हिंसा ही नहीं उन्हें चुभती, अपितु प्राकृतिक सौन्दर्य,मानवीय शील, शक्ति और सौन्दर्य की एक झलक भी उन्हें भाव-विभोर कर जाती है। निर्धनता और सामाजिक भेदभाव के शिकार भी उन्हें उद्वेलित कर जाते हैं। मुक्तिबोध को चाँद का मुँह टेढ़ा लगा था अपनी मानसिकता के कारण। तो रमेश प्रजापति को चाँद मज़दूर की दराँती लगता है। आधुनिकतम मनोदशाओं की जटिलता प्रकृति को इस अपरम्परागत रूप में देखती है। नई कविता की जटिलता और जनवादी कविता की नारेबाजी से हटकर रमेश की कविता अपने ही रंगरूप में व्यक्त होती है।

कुछ उदाहरण इसकी गवाही देते हैं। सामान्य जनजीवन के दुख दर्द से तटस्थ रहने वाले ईश्वर से तीखा प्रश्न है यह- ‘‘तू अगर ईश्वर है/तो क्यों आराम फरमाता है पूजाघरों में।’’ इस मज़दूर की जिजीविषा तो देखिए-‘‘फुटपाथ पर बैठा/टांग हिलाता मज़दूर/ बुरे दिनों को चबा जाता है/मुट्ठी भी चनों-सा।’’ माँ का यह चित्र कितना भेदक है-‘‘माँ की उदास आँखों में/आज भी टहलते रहते हैं पिता/कंधे पर अंगोछा डाले/बीड़ी फूँकते /और मुझे डाँटते-डपटते।’’ किसानी जीवन की देखिए क्या विडम्बना है-‘‘फिर तीन बेटियों और एक बेटे के साथ/किसान ने की है आत्महत्या/दुनिया की संवेदना बटोरने/या अपने चैनल को सर्वश्रेष्ठ साबित करने/इलेक्ट्रोनिक मीडिया में मची है होड़/ मातम में डूबी कश्मीरी बाई की फोटो खींचने में।’’ लाशों की सौदागिरी शायद इसी को कहते हैं।

आदिवासी माँ के जीवन का यह दृश्य अविस्मरण्ीय है-‘‘ऐसे निचोड़ रहा है सूखा नदी की देह/जैसे भूख से बिलबिलाता साँवला बच्चा/निचोड़ रहा है / जीवन के उजाड़ चैराहे पर बैठी/मरियल देहवाली आदिवासी माँ का स्तन/ कांप रहा है समुद्र का कलेजा।’’ सांप्रदायिक उन्माद की आँधी ने कितना अकेला कर दिया है इस माँ को-‘‘कैसी है हफीजन ताई/रूखे गले से सुबकती हुई माँ बस इतना ही कह पाई/कि अब वे चले गए हंै गाँव छोड़कर/मेरी आत्मा में बैठ गई लम्बी उदासी।’’ यह दृश्य भी कितना कारुणिक है-‘‘रात के सन्नाटे में गूँज रही है/शहर गई बेटी की प्रतीक्षा में /माँ की धड़कनों की धुकधुकी।’’ पितरों का श्राद्ध करते हुए यह अपराधबोध मन को मथ रहा है-‘‘आओ पितरो!/ अभी-अभी हमने छीना है बच्चों के मुँह से निवाला/एक लाचार स्त्री के सपनों का बेझिझक किया है ख़ून/एक बूढ़े कों अभी ठोकर मारकर /गिराया है तेज दौड़ती सड़क पर/एक अपाहिज मज़दूर को नहीं दी है हमने/ उसके पसीने की सही-सही कीमत/परन्तु तुम्हारे वास्ते खले हैं इन दिनों/दान के सभी रास्ते।’’ घर के विभाजन की यह त्रासदी-‘‘दीवार उठती है जो बाँटती हुई आँगन /भालू की जीभ-सी चाटती है मेरा अंतःकरण।’’

अच्छे दिनों की यह अभिव्क्त दर्शनीय है-‘‘अच्छे दिन/झरते है माँ के सूनेपन में /झटकते हुए धूल से सनी पिता की कमीज़।’’ निर्धनता का यह झेला गया अभिशाप रह-रहकर चुभता है-‘’बेदर्द सुख/भरा पूरा खड़ा खेत में पुकार रहा था/घर के कोठी-कुठलों को/ और चिड़ियाँ गा रही थीं स्वागत गीत/हमसे पहुँचने से पहले ही /बनिए तक पहुँच गई थी उसकी हाँक/ कसमसाकर हाथ मलता रह गया था पूरा घर।’’ निम्न मध्यम परिवार में जन्म लेने और बड़े होने पर ही यह दृश्य दिखाई पड़ता है। मज़दूर की यह दिनचर्या -‘‘मज़दूर ढोते हुए अपनी नंगी पीठ पर/घर की जरुरतों का बोझ/बीड़ी के धुएँ में उड़ा देता है थकान ।’’ आदिवासी जीवन का भोगा हुआ यह यथार्थ हृदय को आज भी चीर जाता है-‘‘पूँजीपतियों की रातें जगमग करने के लिए/बाँध दी गई है नदी की रवानी/जंगल सेे बिछड़ी मटमैली आदिवासी औरत की देह भी/चुभती है हवस से भरी कुछ शातिर आँखों में।’’ जीवन-संघर्ष के लिए भीतरी आग बहुत ही जरुरी है-‘‘अंतिम हथियार साबित होती है आग/वक़्त-बेवक़्त जरुरत के वास्ते/जलने दो इसे भीतर के अलाव में।’’ सुख की यह अनुभूति कितनी क्षणिक लेकिन आल्हादिक है-‘‘जंगले से कूदकर/गुनगुनी धूप और खुनक हवा का/चुपके से आकर मस्तक सहलाना।’’ रोज़ी-रोटी की चक्की में पिसते हुए लोगों के बीच में ही कवि रहना चाहता है-‘‘वहा ँसे देखो मुझे/जहाँ चकमा देकर/कुछ पिता/कुछ माँएँ/कुछ भाई /छीन लाते हैं/ मृत्यु के विकराल मुँह से/जीवन के कुछ खुशनुमा रंग।’’ वैसा ही झेले गये अभिशाप का यह दृश्य अविस्मरण्ीय है-‘‘इनकी आँखों में झाँकती है/उस भूखी माँ की लाचारी/जिसने कुछ दिन पहले /वक़्त के हाथों मासूम बेटियों को बेच दिया/कौड़ियों के भाव।’’ आज के कबीर की यह विडम्बना-‘‘कुर्तक और सांप्रदायिक वेदी की धूल में/रेंग रहे हैं विषधर/ज्ञान की आँधी/किरकिरा रही है कबीर की आँखों में/अंतःकरण के लहू से/तरबतर हो गई है कबीर की कुरती।’’ हीये की आँखों से ही यह दिखाई पड़ता है।

पाश्चात्य सभ्यता की चकाचैंध में यह दृश्य -‘‘आधुनिकता से दूर/मेरे गाँव की भोली लड़की के रूखे बालों में/ यूँ हीं ठुँसा कनेर का फूल/पश्चिम की खिड़की से कूदकर आए/ चालाक समय को दिखाता है ठेंगा।’’ परम्परागत और अभिजात सौन्दर्य के मानदंड़ों से इसे नहीं परखा जा सकता। ऐसे ही प्रकृति का यह बिम्ब-‘‘किसी नटखट बच्चे की दवात से/बूँद-बूँद टपक रही है रात/आवारा कुत्ते-सा सन्नाटा टहल रहा है गलियों में।’’एक निम्नवर्गीय परिवार का यह दृश्य-‘‘ढिबरी/रोशन रखती है घर का पूरा संसार/ताज़ा रखती है पूर्वजों की याद।’’ महानगरीय जीवन को झेलते हुए ही इसकी अनुभूति हो सकती है। बूढ़ों की उपेक्षा कितनी मार्मिकता से व्यक्त हुई है-‘‘अपने दुखों में डूबते-उतराते/हमारे बुजुर्ग / फिर भी चिंतित रहते हैं/ प्रतिदिन हमारे लिए।’’

एक ओर सीलमपुर की झुग्गियाँ हैं-‘‘यहाँ टूटती हैं भ्रम की सारी गाँठें/यहाँ धसक जाती है बीड़ी-गुटकों के दलदल में/ दुख भरी हाँफती-खाँसती रातें/ टूट जाता है बासी रोटी-सा/ इनकी खुरदरी हथेली पर रखा दिन/ कड़वे अनुभवों से भरे मटमैले धब्बों का इतिहास/पढ़ा जा सकता है मकड़ी के जाले से बुने/इनके झुर्रादार चेहरों पर।’’ दूसरी ओर धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले डल झीलवाला कश्मीर की वास्तविकता निगाहों में चुभे बिना नहीं रहती-‘‘थके हुए मज़दूर की मानिंद/झुकने लगी थी दिन की पीठ/.../ सैलानियों और यहाँ के बाशिंदों की चहल-पहल से/ झील की कोढ़िन देह/जरा कान लगाकर सुनो!/इनकी आत्मा की कुढ़न से/ रिसती रहती हैं वैभवशाली दिनों की स्मृतियाँ।’’

ऐसा व्यापक फलक है रमेश प्रजापति की काव्य संवेदनाओं का, जिसमें आज की दुनिया का घिनौना चेहरा चाहे-अनचाहे एक संवेदनशील पाठक को उद्वेलित कर ही जाता है।