सोमवार, 11 जनवरी 2016

World Book Fair: Cultural Practices become the attraction of visitors


Vananchal News Network

New Delhi: Cultural practices on theme pavilion became the attraction of visiotors in the New Delhi World Book Fair-2016 on Monday.‘Cultural Heritage of India’as the theme of World Book Fair-2016 is playing a crucial role to emphasise on the philosophy, knowledge traditions and multilingual literary practices which have shaped the culture and civilization of not only India but have impacted the same beyond the boundaries of India for thousands of years. 

The architecture of the Exhibition has designed to connect the past with the present. The Theme Pavilion displays more than 800 titles on Indian art, culture, music, dance, philosophy in various Indian languages. The old manuscripts like Ramayan Lanka Kanda by Srimata Sankardeva, Atharva Veda among others have also been displayed at the Pavilion.

A number of activities were organized at the Pavilion including a panel discussion on the topic ‘Science through Sanskrit: Exploring Possibilities’. The speakers shared their views about the scientific development in ancient times as mentioned in Sanskrit texts. They opined that in earlier times, India has a developed scientific system and they invented several technologies which are the basis of odern day science. The speakers on the occasion were Shri Shreeji Devpujari, Dr C S R Prabhu and Shri Ra Jyotishi. Shri Baldeo Bhai Sharma, Chairman, NBT was also present on the occasion.

Presentation of Indian classical dance Odissi by Kasturi Pattnaiyak and her troupe, Bamboo Dance by Vanlalpawla & his troupe; Chari and Bhawai Dance by Suresh & Veena Vyas; Devotional songs by Leepika Bhattacharya and a dramatic erformance based on Jaidev’s Gita Govinda by the artists of East Zone Cultural Centre, Kolkata mesmerized the audience.
 (PRESS RELEASE)

Smriti Irani inaugurates World Book Fair-2016

24th edition of  “New Delhi World Book Fair” to be held from 9-10 January, 2016.

Vananchal News Network

New Delhi: Minister of Human Resource Development Smriti Zubin Irani inaugurated the 24th edition of “New Delhi World Book Fair-2016” at Pragati Maidan on Saturday; which to be held from 9-10 January, 2016. Welcoming China as the Guest of Honour country, she said, “We believe in Athithi Devo Bhavaa and we worship the guests. We hope that the Chinese will feel at home in India”. 

Talking about the India-China relationship since ancient times, she said that there is a mention of Chinese silk dress in Arthashastra which shows how Indian history finds resonance of relationship with China. She hoped that both the countries will not only exchange culture and but also knowledge and strengthen ties. The Fair is being organized by the National Book Trust, India in collaboration with the India Trade Promotion Organisation.

Irani appreciated efforts undertaken by the NBT to bring out 16 new titles under the Navlekhan series and hoped that NBT would publish books in 22 major Indian languages. She also said that the children from various states of India including Tamil Nadu, Kerala, Manipur, Assam among others with select photographers would be sent as shodh yatris to foreign countries like Sri Lanka, Malaysia, Thailand, Cambodia and their memoir will be published in the form of books.  She also appreciated that for the school children, senior citizens and people with special needs, the entry to the book fair is free. She also said that the children’s pavilion will attract more and more children.

At this occasion, Sun Shoushan, Vice Minister, SAPPFRT, China said that New Delhi World Book Fair-2016 has set up an important platform for the cultural exchanges and mutual understanding all of the world. As Guest of Honour country we are pleased to get together with the publishers of India. He remarked that the publishing exchanges between china and India have played an important role in cementing the relationships between peoples and promoting cultural exchanges.

NBT Chairman Baldeo Bhai Sharma said that on the lines of inspiration from Minister of Human Resource Development, the Trust has come up with a new Navlekhan series for young writers under the age of forty and has brought out 16 new titles. He also informed that the theme pavilion will display books beginning from bhoj patra to ebooks and will also display ancient scripts.

ITPO CMD L C Goyal  hoped that the New Delhi World Book Fair will go a long way in disseminating the culture of India. Liu Zhenyou, eminent Chinese author; Le Yucheng, Chinese Ambassador to India and VVInay Sheel Oberoi, Secretary, Department of Higher Education China are also in pavilion.
                                                                                                         (PRESS RELEASE)



रविवार, 10 जनवरी 2016

संदीप पाण्डेय की बर्खास्तगी के खिलाफ निकला विरोध मार्च


अस्सी घाट पर जनसभा का आयोजन भी हुआ

वनांचल न्यूज नेटवर्क

वाराणसी। आईआईटी बीएचयू के विजिटिंग फैकल्टी पद से सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय की बर्खास्तगी के खिलाफ विभिन्न सामाजिक संगठनों ने रविवार को सामुहिक रूप से काशी विश्वविद्यालय के सिंघद्वार से अस्सी घाट तक विरोध मार्च निकाला। यह विरोध मार्च अस्सी घाट पर पहुंचकर जनसभा में तब्दील हो गया। इसमें बीएचयू परिसर के भगवाकरण के सवालों के साथ नई शिक्षा नीति और पूंजीवादी फाँसीवाद के मुद्दों पर चर्चा की गई।

संगठनों की ओर से जारी संयुक्त विज्ञप्ति में कहा गया है कि संदीप पाण्डेय सोनभद्र के अवैध खनन का मसला हो या कनहर बांध परियोजना के विस्थापितों के पुनर्वास माँग हो, राजातालाब में कोकाकोला के खिलाफ आंन्दोलन हो या लंका पर पटरी व्यवसाइयों के नियमितीकरण की बात हो या फिर गंगा किनारे 200 मीटर में रह रहे बाशिंदों के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ बुलंद करना हो,  सभी मोर्चों पर मजलूमों के साथ खड़े रहे। उन्होंने अपने छात्रों को भी ऐसे विषयों पर सोचने और सवाल उठाने के लिए प्रेरित किया।

संदीप पाण्डेय का कहना है कि बीएचयू के कुलपति ने उन्हें नक्सलवादी और राष्ट्रद्रोही करार देते हुए पद से हटाया है। विरोध मार्च में लोगो ने कहा की एक सम्मानित सामाजिक कार्यकर्त्ता के लिए कुलपति ने यदि ये कहा है तो उन्हें तत्काल क्षमा मांगनी चाहिए। मालवीय जी भी विश्वविद्यालय में सिर्फ किताबी शिक्षा देने के पक्ष में कभी नहीं थे। वे चाहते थे कि विश्वविद्यालय का छात्र राष्ट्रनिर्माण और समाज निर्माण में जुटे। संदीप पाण्डेय भी परिसर के छात्रों के साथ ऐसे ही सामाजिक रचनात्मक विषयों पर कार्यक्रम करते रहे हैं। ऐसा करना नक्सलवादी और राष्ट्रद्रोही कैसे हो सकता है भला ?

विरोध मार्च में संदीप पाण्डेय की तत्काल बहाली की मांग किया गया और ऐसा न होने पर बड़े आंदोलन की चेतावनी दी गयी है। विरोध मार्च में लोगों ने कहा कि संदीप पाण्डेय के बीएचयू में आने से आम गरीब ग्रामीण, मजदुर, पटरी व्यवसायी प्रकृति के लोग आने जाने लगे थे। गरीब मजलूम एक प्रोफेसर के कमरे में आराम से आते जाते थे। यह बात विश्विद्यालय के उन लोगों को अच्छी नहीं लगी जो ये सोचते है की विश्वविद्यालय एक वीआईपी स्थान है और विश्विद्यालय के शिक्षकों को इन गरीब गंदे लोगो के साथ मिलना जुलना नहीं चाहिए। संदीप पाण्डेय गाँधीवादी नेता हैं।  बीएचयू ने उन्हें जो अपमानित करने का काम किया है उसका विरोध बनारस में शुरू हुआ और आज देश भर के टीवी न्यूज़ चैनलों अख़बारों और बुद्धिजीवियों के बीच में हो रहा है और दिन रात बढ़ता ही जा रहा है

विरोध मार्च की अगुवाई गुमटी व्यवसायी कल्याण समिति लंका ने किया। मार्च को समर्थन देने पंहुचे लोगों में प्रमुख रूप से चिंतामणि सेठ, बाबू सोनकर, अस्पताली सोनकर, प्रेम सोनकर, धनञ्जय त्रिपाठी, विकास सिंह, रामजी पाण्डेय, विजय मिश्र, आनदं पाण्डेय, आकाश सिंह, प्रेमनाथ, धर्मा देवी, उर्मिला, महेंद्र, पार्वती, राजेश्वरी देवी, कृष्णा, रतन सोनकर, शीला देवी, संदीप, अजय, लक्ष्मी और मनीष भरद्वाज मौजूद रहे।

संदीप पाण्डेय की बर्खास्तगी के खिलाफ बीएचयू प्रशासन का फूंका पुतला

बीएचचू गेट पर विश्विद्यालय प्रशासन का पुतला फूंकते
 युवक कांग्रेस के कार्यकर्ता और छात्रगण।

बीएचयू कैम्पस के भगवाकरण के खिलाफ आरएसएस विरोधी नारे लगे।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

वाराणसी। आईआईटी बीएचयू के विजिटिंग फैकल्टी पद से मैग्सेसे पुरस्कार सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय की बर्खास्तगी के खिलाफ युवक कांग्रेस की स्थानीय इकाई की अगुआई में छात्रों ने शुक्रवार को काशी विश्वविद्यालय के सिंघद्वार पर बीएचयू प्रशासन का पुतला फूंका। साथ ही उन्होंने बीएचयू कैम्पस का भगवाकरण किये जाने के खिलाफ आरएसएस विरोधी नारे लगाए।

युवक कांग्रेस की ओर से जारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि पिछले ढाई वर्षों से संदीप पाण्डेय बीएचयू आईआईटी में अतिथि प्रवक्ता रहे। इस बीच परिसर में वह अपने अनूठी कार्यशैली के लिए चर्चा का विषय भी बने रहे। आईआईटी के छात्रों को मनरेगा, आरटीआई और खेती-किसानी, वंचितों के सर्वेक्षण और उनके बच्चों का प्रवेश स्कूलों में करवाने के प्रोजेक्ट आदि बनवाने वाले शिक्षक के रूप में संदीप पाण्डेय छात्रों के बीच दोस्ताना सम्बन्ध रखते हैं।

पुतला दहन कार्यक्रम से पहले छात्रों की एक सभा हुई। इसमें युवक कांग्रेस के कैंट क्षेत्र के अध्यक्ष ओमशंकर ने कहा कि विवि परिसर आरएसएस की एक बड़ी शाखा या फिर कहे की नागपुर कार्यालय बनता जा रहा है। इसमें अब किसी को कोई शक या सुबहा नहीं रहेगा। संदीप जी एक प्रख्यात गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और समाज़वादी वैचारक हैं। हम कांग्रेस के साथियों को तमाम आंदोलनों के समय मशविरे के रूप में आपने संयम और अहिंसा से आंदोलन चलाने की नसीहत दिया है। एक ऐसा व्यक्ति जो एशिया का विख्यात पुरस्कार मैग्सेसे से सम्मानित हो उसे राष्ट्रद्रोही कहना सही अर्थों में असहिष्णुता है। हम कांग्रेसजन युवा छात्र पिछले दिनों से लगातार विधायक अजय राय के लिए संघर्षरत हैं। जिस प्रकार के केस में जैसे विधायक जी पर बिना किसी सुबूत के रासुका लगा के उनका उत्पीड़न और मानहानि हो रही है, ठीक उसी प्रकार से संदीप पाण्डेय जी को भी आरएसएस के कुलपति राष्ट्रद्रोही बताकर अपमानित करना चाह रहे हैं। ये लोग ऐसा करके समाज के लिए संघर्ष कर रहे नेताओं को जनता से अलग करना चाह रहे हैं और फिर अपने कॉर्पोरेट फासिस्ज्म (पूंजीवादी फांसीवाद ) को जबरदस्ती लागू करना चाहते हैं।

'संदीप पाण्डेय जी की वजह से फेरी पटरी लगाने वाले तमाम वंचितों को पुलिस वसूली से निजात मिली है। चाय बेचने वाले प्रधानमंत्री के राज में सड़क पर चाय बेचना दुश्वार है , यदि संदीप सर न होते तो हमारी दुकाने ये बीएचयू और बनारस के पुलिस और अधिकारी मिलकर उजाड़ दिए होते', ये कहना है पटरी व्यवसायी समिति के अध्यक्ष चिंतामणि सेठ का। विश्विद्यालय प्रशासन का पुतला दहन करने के साथ ही युवाओं ने आक्रोश भरे लहज़े में कहा की कुलपति चेत जाएं और पाण्डेय की बहाली तत्काल करें। यह न भूले की इस विश्वविद्यालय की जमीन पर ही आरएसएस के कार्यालय को ज़मींदोज़ करने का गौरवशाली कार्य भी हुआ है। कहीं संदीप पाण्डेय का प्रकरण आरएसएस के अंत की शुरुआत न सिद्ध हो जाए ।

पुतला दहन और सभा में प्रमुख रूप से राघवेन्द्र चौबे,पार्षद गोविन्द शर्मा ,ओम शुक्ला, नागेन्द्र पाठक,,सलाउद्दीन खान,धनंजय त्रिपाठी,विकास सिंह ,रामजी पाण्डेय, विशाल मिश्रा,सिद्धार्थ केशरी जी,आशुतोष उपाध्याय जी,चिंतामणि सेठ,पंकज पाण्डेय ,शान्तनु चौबे ,रोहित चौरसिया ,अभिसेक चौरसिया, चंचल शर्मा, प्रेम सोनकर, चन्दन पटेल, अस्पताली सोनकर, इमाम हुसैन ,बाबू सोनकर आदि मौजूद रहे ।

गांधीवादी संदीप पांडे को देशद्रोही कहना गांधी का अपमानः रिहाई मंच


संदीप पांडेय
"बीएचयू के वीसी संघ के एजेंट। बीएचयू को अंधविश्वासी और मूर्खों की फैक्टरी बनाना चाहते हैं जीसी त्रिपाठी।"

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। जन मुद्दों पर बेबाक बयानबाजी और प्रदर्शन के लिए पहचाने जाने वाले रिहाई मंच ने बीएचयू प्रशासन द्वारा मैग्सेसे पुरस्कार सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता और बीएचयू के गेस्ट फैकल्टी संदीप पांडे को बीच सत्र में बर्खास्त किये जाने को प्रगतिशील मूल्यों के प्रति संघ परिवार पोषित असहिष्णुता का ताजा उदाहरण बताया। मंच ने इस पूरे प्रकरण पर बीएचयू प्रशासन पर संघ और भाजपा के स्वयंसेवक के बतौर काम करने का आरोप भी लगाया और इसे मोदी सरकार में अकादमिक पतन की नजीर बताया।

रिहाई मंच की ओर से जारी विज्ञप्ति में मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा, "संदीप पांडे जैसे प्रतिष्ठित गांधीवादी और तर्कवादी फैकल्टी को हटा कर बीएचयू प्रशासन ने साफ कर दिया है कि वह किसी भी कीमत पर तार्किक और प्रगतिशील विचारों को पनपने नहीं देगा। उसका मकसद बीएचयू जैसी संस्थान से सिर्फ अंधविश्वासी, लम्पट, साम्प्रदायिक और मूर्ख खाकी निक्करधारी छात्रों की खेप पैदा करना है जो संघ परिवार के देशविरोधी कार्यकलापों में आसानी से लग जाएं।"

राजीव यादव ने कहा कि संदीप पांडे को हटाने का निर्णय राजनीतिक है जिसके तहत उन्हें नक्सली और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त बताया गया है। उन्होंने इसे अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला बताया। उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलाधिपति राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मामले में हस्तक्षेप करने और संदीप पांडेय को पुनः बहाल कराने की मांग की । यादव ने कहा कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से संघ के समाज विरोधी विचारधारा के विरोधियों को शैक्षणिक संस्थानों से हटा कर उनकी जगह संघ और भाजपा कार्यकताओं को बैठाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि इसी रणनीति के तहत इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कॅम्यूनिकेशन (आईआईएमसी) का निदेशक केवी सुरेश को बना दिया गया है जिनकी योग्यता महज इतनी है कि वे विवेकानंद फाउंडेशन के सदस्य हैं। इसके सदस्यों में गुजरात के मुस्लिम विरोधी जनसंहार को आयोजित करने के आरोपी प्रशासनिक अधिकारी से लेकर नृपेंद्र मिश्रा जैसे घोषित सीआईए एजेंट जैसे लोग हैं। मंच के नेता ने कहा कि विवेकानंद फाउंडेशन से जुड़े रहे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बेटे शौर्य डोभाल के निजी संगठन इंडिया फाउंडेशन भी देश की बौद्धिक पूंजी को भोथरा करने का अभियान चला रहा है। उन्होंने कहा कि यह अपने आप में जांच का विषय है। मोदी के अमरीका दौरे के दौरान मेडिसन स्कवायर पर भी शौर्य डोभाल की कम्पनी ही इवेंट मैनेज करती है और वही पिछले दो साल से देश की सुरक्षा पर डीजीपी स्तर के अधिकारियों के सम्मेलन को भी आयोजित करती है। उन्होंने कहा कि संघ और विदेशी कॉरपोरेट पूंजी की बड़ी बड़ी लॉबियां भारतीय मेधा और बौद्धिक शक्ति को अपने अनुरूप ढालने का अभियान चला रही हैं और इसमें रोड़ा लगने वाले लोगों को जबरन हटा रही हैं।

वहीं, इंसाफ अभियान के प्रदेश महासचिव और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेता दिनेश चौधरी ने कहा, बीएचयू जैसे विश्वविद्यालय का यह दुर्भाग्य है कि उसे जीसी त्रिपाठी जैसा कुलपति मिला है जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इकोनॉमिक्स विभाग के औसत से भी कम दर्जे के शिक्षक रहे हैं। उन्हें उनके छात्र भी गम्भीरता से नहीं लेते थे। उन्होंने कहा कि जीसी त्रिपाठी सिर्फ संघ के पुराने कार्यकर्ता होने की पात्रता के कारण कुलपति बनाए गए हैं।

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

पहली बार तीन सौ से ज्यादा आदिवासी बने पंचायत प्रमुख

उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियां गणतंत्र भारत के पैंसठ सालों में पहली बार मूल पहचान और आबादी के अनुपात में लड़ीं त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव। 

उत्तर प्रदेश में दस लाख से ज्यादा आबादी वाली ये जातियां देश की आजादी के बाद से ही अपनी पहचान और संवैधानिक अधिकारियों के लिए कर रही थीं संघर्ष।

उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल जनपद सोनभद्र में पिछले डेढ़ दशक से करीब आधा दर्जन ग्राम पंचायतों का नहीं हो पा रहा था गठन।

by Shiv Das / शिव दास

देश की आजादी के करीब 68 सालों में पहली बार उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के तीन सौ से ज्यादा लोग अपनी मूल पहचान पर त्रिस्तरीय पंचायतों के प्रमुख बने। जबकि कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, वनवासी सरीखी आदिम जातियों को अपनी मूल पहचान पर यह अधिकार हासिल करने के लिए अभी और संघर्ष करना होगा। 

सूबे में गौतमबुद्धनगर जिले को छोड़कर सभी 74 जिलों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। अगर सूबे की 59,163 ग्राम पंचायतों की बात करें तो इनमें से अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित 336 ग्राम प्रधान पदों पर गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के हजारों लोग आजाद भारत में पहली बार अपनी मूल पहचान के साथ आरक्षित सीटों पर ताल ठोंके। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2010 में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए ग्राम प्रधान की केवल 76 सीटें आरक्षित थीं जो भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, रांजी और थारू आदिवासी जातियों की आबादी (0.03 प्रतिशत) के आधार पर तय की गई थीं। 

त्रिस्तरीय पंचायत-2015 में पहली बार उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल सभी जातियों की आबादी के आधार पर ग्राम प्रधान, ग्राम पंचायत सदस्य, जिला पंचायत सदस्य, क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष (ब्लॉक प्रमुख) और क्षेत्र पंचायत सदस्य का पद आरक्षित किया गया है। इस बार अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए ब्लॉक प्रमुख के पांच पद आरक्षित किये गये हैं जो पहले एक था। इसी तरह ग्राम पंचायत सदस्य के 7,45,475 पदों पर हजारों की संख्या में आदिवासी अपने गांव के विकास की रूपरेखा तय करेंगे। 

सूबे के 821 विकास खंडों की बात करें तो इनमें से पांच ब्लॉक प्रमुखों के पदों पर उक्त आदिवासी जातियों के लोग दांव खेल रहे हैं। करीब 77,576 क्षेत्र पंचायत सदस्यों (बीडीसी) में से हजारों की संख्या में उक्त आदिवासी जातियों के लोग ब्लॉक प्रमुखों के चयन में प्रमुख भूमिका निभाएंगे और क्षेत्र के विकास की रूपरेखा तय करेंगे। इनमें से 191 तो केवल सोनभद्र से हैं। यहां दो विकास खण्डों दुद्धी और बभनी के प्रमुखों का ताज उक्त जातियों में किन्ही दो व्यक्तियों के सिर सजेगा। हालांकि सूबे की आबादी में करीब 0.568 प्रतिशत (जनगणना-2011 के अनुसार 11,34,273) हिस्सेदारी रखने वाला अनुसूचित जनजाति वर्ग के सिर पर अपनी मूल पहचान के साथ जिला पंचायत अध्यक्ष पद का ताज नहीं सज सकेगा क्योंकि सूबे के 75 जिला पंचायत अध्यक्ष पदों में से उनके लिए एक पद भी आरक्षित नहीं है। इसके बावजूद जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव और क्षेत्र के विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी क्योंकि सूबे के 3,112 जिला पंचायत सदस्य पदों में से दर्जनों पर इसी जाति वर्ग के लोग चुने गए हैं जिनमें सात अकेले सोनभद्र से हैं।

गत 13 और 14 दिसंबर को ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत सदस्य चुनाव के परिणामों की घोषणा के साथ जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के चयन की कवायद शुरू हो गई है। इसी के साथ त्रिस्तरीय पंचायतों में सूबे की उक्त आदिवासी जातियों का प्रतिनिधित्व अपनी मूल पहचान के साथ सुनिश्चित हो जाएगा क्योंकि इसके अभाव में सोनभद्र के आदिवासी बहुल करीब आधा दर्जन ग्राम पंचायतों का गठन पिछले डेढ़ दशक से नहीं हो पा रहा था। इन ग्राम पंचायतो में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या नगण्य हो गई थीं।

दुद्धी विकास खंड का जाबर, नगवां विकास खंड का रामपुर, बैजनाथ, दरेव एवं पल्हारी ग्राम सभाएं इसका उदाहरण हैं। वहां 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हुई ग्राम प्रधान एवं ग्राम पंचायत सदस्य के पदों पर योग्य उम्मीदवारों की प्रर्याप्त दावेदारी नहीं होने के कारण ग्राम पंचायत सदस्यों की दो तिहाई सीटें खाली रह जाती थीं। इन ग्राम सभाओं का गठन नहीं हो पाता था क्योंकि ग्राम सभा के गठन के लिए ग्राम पंचायत सदस्यों की संख्या दो तिहाई होना जरूरी होता है। इन ग्राम सभाओं में जिला प्रशासन द्वारा तीन सदस्यीय कमेटी का गठन कर विकास कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। अब ये समस्याएं दूर हो जाएंगी।

उदाहरण के तौर पर नगवां विकासखंड का पल्हारी ग्राम सभा। 13 ग्राम पंचायत सदस्यों वाले पल्हारी ग्रामसभा में पंचायत चुनाव-2005 के दौरान कुल 1006 वोटर थे। इस गांव में अनुसूचित जाति का एक परिवार था। शेष अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वर्ग के थे। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 ग्राम पंचायत सदस्य के पद खाली थे क्योंकि इस पर अनुसूचित जाति का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ सका था। ग्राम पंचायत सदस्यों के दो-तिहाई से अधिक पद खाली होने के कारण पल्हारी ग्राम सभा का गठन नहीं हो पाया। जिला प्रशासन द्वारा गठित समिति विकास कार्यों को अंजाम दे रही थी। कुछ ऐसे ही हालात पंचायत चुनाव-2010 में भी वहां थे। इससे छुटकारा पाने के लिए गैर सरकारी संगठनों के साथ गैर राजनीतिक पार्टियां भी आदिवासियों की आवाज को सत्ता के नुमाइंदों तक पहुंचाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपना रहे हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2005 के दौरान भी आदिवासियों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाजें मुखर की थी।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने उस समय आदिवासियों की इस आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने के लिए म्योरपुर विकासखंड के करहिया गांव में पंचायत चुनाव के दौरान समानान्तर बूथ लगाकर आदिवासियों से मतदान करवाया था। भाकपा(माले) के इस अभियान में 500 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया। वहीं, राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा पंचायत चुनाव के दौरान लगाए गए बूथ पर मात्र 13 वोट पड़े थे। अनुसूचित जाति के दो परिवारों (दयाद) के सदस्यों में से एक व्यक्ति नौ वोट पाकर ग्राम प्रधान चुना गया। शेष सदस्य निर्विरोध सदस्य चुन लिए गये थे। आदिवासियों और भाकपा(माले) के इस अभियान ने राजनीतिक हलके में हडकंप मचाकर रख दी। इसके बाद भी केंद्र एवं राज्य की सरकार की नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके बाद भी सूबे की सरकार ने राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में आदिवासियों की आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित कराने की पहल नहीं की।

आदिवासियों की गैर-सरकारी संस्था प्रदेशीय जनजाति विकास मंच और आदिवासी विकास समिति ने त्रिस्तरीय पंचायतों में उचित प्रतिनिधित्व के संवैधानिक अधिकार की मांग को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका संख्या-46821/2010 दाखिल की। इसपर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुनील अंबानी और काशी नाथ पांडे की पीठ ने 16 सितंबर, 2010 को दिए फैसले में साफ कहा है कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जाति समुदाय के लोगों का आबादी के अनुपात में विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार उनका संवैधानिक आधार है जो उन्हें मिलना चाहिए। पीठ ने राज्य सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ लागू होने के बाद राज्य में आदिवासियों की जनगणना नहीं हुई है। 

पीठ ने साफ कहा कि 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जातियों की जनगणना अलग-अलग कराई गई थी और इसका विवरण विकासखंड और जिला स्तर पर भी मौजूद है। इसकी सहायता से अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई जातियों की आबादी को पता किया जा सकता है। पीठ ने आदिवासियों के हक में फैसला देते हुए त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया लेकिन चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाने के कारण पंचायत चुनाव-2010 में उच्च न्यायालय का आदेश लागू नहीं हो पाया था। राज्य निर्वाचन आयोग ने जनगणना-2011 के आंकड़ो के आधार पर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2015 में अनुसूचित जनजाति वर्ग की आबादी के आधार पर उनके लिए सीटें आरक्षित कर दी हैं।

वहीं आदिवासी पहचान के लिए जूझ रही सूबे की कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, वनवासी सरीखी जातियों को अपनी मूल पहचान पर यह अधिकार हासिल करने के लिए अभी और संघर्ष करना होगा क्योंकि राजनीतिक गुणा-भाग में जुटे सियासतदानों ने उन्हें अभी भी उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति में बनाए रखा है जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति भी इन जिलों में अन्य जनजातियों के समान ही है। अगर हम इनके संवैधानिक अधिकारों पर गौर करें तो कोल मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, कोरबा बिहार, मध्य प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल में, कंवर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, मझवार मध्य प्रदेश में, धांगड़ (उरांव)  मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में, बादी (बर्दा) गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति वर्ग में हैं। उत्तर प्रदेश में भी इन जातियों के लोगों की सामाजिक स्थिति अन्य प्रदेशों में निवास करने वाली आदिवासी जातियों के समान ही है जो समय-समय पर सर्वेक्षणों और मीडिया रिपोर्टों में सामने आता रहता है।

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वोटबैंक की राजनीति में उलझा आदिवासियों का मूलाधिकार

माज के निचले पायदान पर जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों के संवैधानिक और मूलाधिकार को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा उदासीन रही हैं। उन्होंने उन्हें केवल वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें उनका हक देने में हमेशा पीछे रहीं हैं। इसमें कांग्रेस की भूमिका हमेशा संदेह के घेरे में रही है। उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली विभिन्न आदिवासी जातियां कांग्रेस के शासनकाल में संसद से पास हुए अनुसूचित जनजाति (उत्तर प्रदेश) कानून-1967 के लागू होने के समय से ही खुद को ठगा महसूस कर रही हैं। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उत्तर प्रदेश के सबसे निचले तबके यानी आदिवासी पर यह कानून जबरन थोप दिया था। इसकी वजह से वे आज तक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित हैं। इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश की पांच आदिवासी जातियों (भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, रांजी और थारू) को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल किया गया लेकिन कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया। जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति आज भी उक्त पांच आदिवासी जातियों के समान ही है। इन जातियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू कर दी। उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक की गणित के हिसाब से अपना-अपना जाल बुना और उनके वोट बैंक का इस्तेमाल कर सत्ता हासिल की लेकिन उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित रखा।

केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी (राजग) ने वर्ष 2002 में संसद में संविधान संशोधन का निर्णय लिया। इसमें उसके नुमाइंदों की सत्ता में बने रहने की लालच भी थी। तत्कालीन राजग सरकार ने उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने की कवायद शुरू की। इसके लिए उसने संसद में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) विधेयक-2002’ पेश किया। संसद ने इसे पारित कर दिया। हालांकि सियासी पृष्ठभूमि मंु इस कानून में कुछ विशेष जिलों के आदिवासियों को ही शामिल किया गया था। इस वजह से आदिवासी बहुल चंदौली जिले में इन जातियों के लोग आज भी अनसूचित जाति वर्ग में ही हैं जबकि उत्तर प्रदेश की सत्ता को पहली बार इस जिले से नक्सलवाद का लाल सलाम हिंसा के रूप में मिला।   

फिलहाल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002’ के संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इसे अधिसूचित कर दिया। केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय ने 8 जनवरी 2003 को भारत सरकार का राजपत्र (भाग-2, खंड-1) जारी किया। इसके तहत गोंड़ (राजगोंड़, धूरिया, पठारी, नायक और ओझा) जाति को उत्तर प्रदेश के 13 जनपदों महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल कर दिया। साथ में खरवार, खैरवार को देवरिया, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी और सोनभद्र में, सहरिया को ललितपुर में, परहिया, बैगा, अगरिया, पठारी, भुईया, भुनिया को सोनभद्र में, पंखा, पनिका को सोनभद्र और मिर्जापुर में एवं चेरो को सोनभद्र और वाराणसी में अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया।

उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ कानून ने एक बार फिर आदिवासी समुदाय के दुखते रग पर हाथ रख दिया। इसके तहत अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुआ आदिवासी समुदाय सत्ता में अपने भागीदारी के संवैधानिक अधिकार से ही वंचित हो गया। इस कानून के लागू होने से वे त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडलों और संसद में अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व करने से ही वंचित हो गए क्योंकि राज्य में उनकी आबादी बढ़ने के अनुपात में इन सदनों में उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं की गईं। 3 मई, 2002 से 29 अगस्त, 2003 तक राज्य की सत्ता में तीसरी बार काबिज रही बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार की अनदेखी की। मायावती अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुई आदिवासियों की संख्या का रैपिड सर्वे कराकर उनके लिए विभिन्न सदनों में आबादी के आधार पर सीट आरक्षित करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार, परिसीमन आयोग और चुनाव आयोग को भेज सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

उन्होंने इन विसंगतियों के साथ कानून को राज्य में लागू कर दिया। इससे एक बार फिर आदिवासियों के समानुपातिक प्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार कानूनी और सियासी पचड़े में उलझ गया। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की अगुआई में 29 अगस्त, 2003 को राज्य में सरकार बनी। तत्कालीन सपा सरकार में मंत्री और दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ त्रिस्तरीय पंचायतों समेत विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने से वंचित हो गए। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। दूसरी तरफ आदिवासी बहुल सोनभद्र के आदिवासियों में अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए जागरूकता बढ़ी और वो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक कूंच कर गए, लेकिन 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग और 13 मई, 2007 में राज्य की सत्ता में आई मायावती सरकार ने उनकी आवाज को एक बार फिर नजर अंदाज कर दिया। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का आदिवासी समुदाय अपने हक के लिए जिला प्रशासन से लेकर उच्चतम न्यायालय तक अपनी आवाज पहुंचाता रहा।

मौके की नजाकत को भांपते हुए पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ ने कांग्रेस का दामन थामने का निर्णय लिया। उन्होंने इसकी पृष्ठभूमि भी तैयार कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने बेटे विजय प्रताप की ओर से 2011 के आखिरी महीने में उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका संख्या-540ध्2011 दाखिल करवाई। केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट दी। उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय निर्वाचन आयोग, भारत सरकार और उत्तर प्रदेश को तलब किया। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। हालांकि उसने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने और सीटों के आरक्षण की प्रक्रिया में तीन महीने का समय लगने की वजह से उस समय आदिवासियों के हक में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। अब निर्वाचन आयोग ने उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए विधानसभा की दो सीटें दुद्धी और ओबरा आरक्षित कर दी हैं।

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सपा सरकार की पहल भी काम नहीं आईं

त्तर प्रदेश में अगस्त, 2003 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी। उसने पहली बार राज्य के आदिवासी जिलों में विभागीय सर्वेक्षण कराया था। इसमें सामने आया कि राज्य में आदिवासियों की संख्या 2001 की जनगणना के 1,07,963 से बढ़कर 6,65,325 हो गई थी। हालांकि उसका यह सर्वेक्षण गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के काम नहीं आई। जनगणना-2011 के अनुसार अब यह आबादी 11,34,273 हो गई है जो राज्य की आबादी का 0.57 प्रतिशत के करीब है। इस आधार पर राज्य की विधानसभा में दो सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हो गई हैं। इनमें सोनभद्र की आदिवासी बहुल दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीटें शामिल है। 

अपनी मूल पहचान पर लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने के लिए उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को अभी भी इंतजार करना पड़ेगा। अगर जिलेवार बात करें तो अनुसूचित जनजातियों की संख्या सोनभद्र में 3,85,018, मिर्जापुर में 20,132, वाराणसी में 28,617, चंदौली में 41,725, बलिया में 1,10,114, देवरिया में 1,09,894, कुशीनगर में 80,269 और ललितपुर में 71,610 है। सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या जिले की आबादी का 20.67 प्रतिशत है जो राज्य में किसी भी जिले में अनुसूचित जनजातियों की संख्या से अधिक है। सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों की संख्या घटकर 22.63 प्रतिशत हो गई है। जनगणना-2001 के अनुसार यह 6,13,497 थी जो जिले की आबादी का 41.92 प्रतिशत थी। विभागीय सर्वेक्षण-2003-04 के अनुसार सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 3,78,442 थी।

जनगणना-2011: उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाले पांच जिले-

क्रमांक जनपद               अनसूचित जनजाति                   प्रतिशत
1       सोनभद्र                        3,85,018                      20.67
2       बलिया                         1,10,114                        3.40
3       देवरिया                        1,09,894                        3.54
4       कुशीनगर                         80,269                         2.25
5       ललितपुर                         71,610                         5.86


उत्तर प्रदेश शासन विभागीय जनगणना-2003-

उत्तर प्रदेश शासन समाज कल्याण अनुभाग-3 के शासनादेश संख्या-111, भा00/26.03.2003-3(सा)/2003, दिनांक-03.07.2003 में अधिसूचित जनपद-सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की सूची

क्रमांक   जाति                 जनसंख्या
1       गोंड़                   1,30,662
2       खरवार                  73,212
3       चेरो                      60,578
4       बैगा                      32,212
5       पनिका                  26,806
6       अगरिया                18,383
7       राजगोंड़                14,518
8       भुईयां                   14,218
9       खैरवार                   2,513
10     पठारी                    2,374
11     पहरिया                  1,367
12     पंखा                      1,324
13     भुनिया                      275
14     धुरिया                           0
15     नायक                            0
16     ओझा                             0
          योग                 3,78,442