शनिवार, 19 दिसंबर 2015

पहली बार तीन सौ से ज्यादा आदिवासी बने पंचायत प्रमुख

उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियां गणतंत्र भारत के पैंसठ सालों में पहली बार मूल पहचान और आबादी के अनुपात में लड़ीं त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव। 

उत्तर प्रदेश में दस लाख से ज्यादा आबादी वाली ये जातियां देश की आजादी के बाद से ही अपनी पहचान और संवैधानिक अधिकारियों के लिए कर रही थीं संघर्ष।

उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल जनपद सोनभद्र में पिछले डेढ़ दशक से करीब आधा दर्जन ग्राम पंचायतों का नहीं हो पा रहा था गठन।

by Shiv Das / शिव दास

देश की आजादी के करीब 68 सालों में पहली बार उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के तीन सौ से ज्यादा लोग अपनी मूल पहचान पर त्रिस्तरीय पंचायतों के प्रमुख बने। जबकि कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, वनवासी सरीखी आदिम जातियों को अपनी मूल पहचान पर यह अधिकार हासिल करने के लिए अभी और संघर्ष करना होगा। 

सूबे में गौतमबुद्धनगर जिले को छोड़कर सभी 74 जिलों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। अगर सूबे की 59,163 ग्राम पंचायतों की बात करें तो इनमें से अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित 336 ग्राम प्रधान पदों पर गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के हजारों लोग आजाद भारत में पहली बार अपनी मूल पहचान के साथ आरक्षित सीटों पर ताल ठोंके। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2010 में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए ग्राम प्रधान की केवल 76 सीटें आरक्षित थीं जो भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, रांजी और थारू आदिवासी जातियों की आबादी (0.03 प्रतिशत) के आधार पर तय की गई थीं। 

त्रिस्तरीय पंचायत-2015 में पहली बार उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल सभी जातियों की आबादी के आधार पर ग्राम प्रधान, ग्राम पंचायत सदस्य, जिला पंचायत सदस्य, क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष (ब्लॉक प्रमुख) और क्षेत्र पंचायत सदस्य का पद आरक्षित किया गया है। इस बार अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए ब्लॉक प्रमुख के पांच पद आरक्षित किये गये हैं जो पहले एक था। इसी तरह ग्राम पंचायत सदस्य के 7,45,475 पदों पर हजारों की संख्या में आदिवासी अपने गांव के विकास की रूपरेखा तय करेंगे। 

सूबे के 821 विकास खंडों की बात करें तो इनमें से पांच ब्लॉक प्रमुखों के पदों पर उक्त आदिवासी जातियों के लोग दांव खेल रहे हैं। करीब 77,576 क्षेत्र पंचायत सदस्यों (बीडीसी) में से हजारों की संख्या में उक्त आदिवासी जातियों के लोग ब्लॉक प्रमुखों के चयन में प्रमुख भूमिका निभाएंगे और क्षेत्र के विकास की रूपरेखा तय करेंगे। इनमें से 191 तो केवल सोनभद्र से हैं। यहां दो विकास खण्डों दुद्धी और बभनी के प्रमुखों का ताज उक्त जातियों में किन्ही दो व्यक्तियों के सिर सजेगा। हालांकि सूबे की आबादी में करीब 0.568 प्रतिशत (जनगणना-2011 के अनुसार 11,34,273) हिस्सेदारी रखने वाला अनुसूचित जनजाति वर्ग के सिर पर अपनी मूल पहचान के साथ जिला पंचायत अध्यक्ष पद का ताज नहीं सज सकेगा क्योंकि सूबे के 75 जिला पंचायत अध्यक्ष पदों में से उनके लिए एक पद भी आरक्षित नहीं है। इसके बावजूद जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव और क्षेत्र के विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी क्योंकि सूबे के 3,112 जिला पंचायत सदस्य पदों में से दर्जनों पर इसी जाति वर्ग के लोग चुने गए हैं जिनमें सात अकेले सोनभद्र से हैं।

गत 13 और 14 दिसंबर को ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत सदस्य चुनाव के परिणामों की घोषणा के साथ जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के चयन की कवायद शुरू हो गई है। इसी के साथ त्रिस्तरीय पंचायतों में सूबे की उक्त आदिवासी जातियों का प्रतिनिधित्व अपनी मूल पहचान के साथ सुनिश्चित हो जाएगा क्योंकि इसके अभाव में सोनभद्र के आदिवासी बहुल करीब आधा दर्जन ग्राम पंचायतों का गठन पिछले डेढ़ दशक से नहीं हो पा रहा था। इन ग्राम पंचायतो में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या नगण्य हो गई थीं।

दुद्धी विकास खंड का जाबर, नगवां विकास खंड का रामपुर, बैजनाथ, दरेव एवं पल्हारी ग्राम सभाएं इसका उदाहरण हैं। वहां 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हुई ग्राम प्रधान एवं ग्राम पंचायत सदस्य के पदों पर योग्य उम्मीदवारों की प्रर्याप्त दावेदारी नहीं होने के कारण ग्राम पंचायत सदस्यों की दो तिहाई सीटें खाली रह जाती थीं। इन ग्राम सभाओं का गठन नहीं हो पाता था क्योंकि ग्राम सभा के गठन के लिए ग्राम पंचायत सदस्यों की संख्या दो तिहाई होना जरूरी होता है। इन ग्राम सभाओं में जिला प्रशासन द्वारा तीन सदस्यीय कमेटी का गठन कर विकास कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। अब ये समस्याएं दूर हो जाएंगी।

उदाहरण के तौर पर नगवां विकासखंड का पल्हारी ग्राम सभा। 13 ग्राम पंचायत सदस्यों वाले पल्हारी ग्रामसभा में पंचायत चुनाव-2005 के दौरान कुल 1006 वोटर थे। इस गांव में अनुसूचित जाति का एक परिवार था। शेष अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वर्ग के थे। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 ग्राम पंचायत सदस्य के पद खाली थे क्योंकि इस पर अनुसूचित जाति का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ सका था। ग्राम पंचायत सदस्यों के दो-तिहाई से अधिक पद खाली होने के कारण पल्हारी ग्राम सभा का गठन नहीं हो पाया। जिला प्रशासन द्वारा गठित समिति विकास कार्यों को अंजाम दे रही थी। कुछ ऐसे ही हालात पंचायत चुनाव-2010 में भी वहां थे। इससे छुटकारा पाने के लिए गैर सरकारी संगठनों के साथ गैर राजनीतिक पार्टियां भी आदिवासियों की आवाज को सत्ता के नुमाइंदों तक पहुंचाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपना रहे हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2005 के दौरान भी आदिवासियों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाजें मुखर की थी।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने उस समय आदिवासियों की इस आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने के लिए म्योरपुर विकासखंड के करहिया गांव में पंचायत चुनाव के दौरान समानान्तर बूथ लगाकर आदिवासियों से मतदान करवाया था। भाकपा(माले) के इस अभियान में 500 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया। वहीं, राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा पंचायत चुनाव के दौरान लगाए गए बूथ पर मात्र 13 वोट पड़े थे। अनुसूचित जाति के दो परिवारों (दयाद) के सदस्यों में से एक व्यक्ति नौ वोट पाकर ग्राम प्रधान चुना गया। शेष सदस्य निर्विरोध सदस्य चुन लिए गये थे। आदिवासियों और भाकपा(माले) के इस अभियान ने राजनीतिक हलके में हडकंप मचाकर रख दी। इसके बाद भी केंद्र एवं राज्य की सरकार की नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके बाद भी सूबे की सरकार ने राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडल और संसद में आदिवासियों की आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित कराने की पहल नहीं की।

आदिवासियों की गैर-सरकारी संस्था प्रदेशीय जनजाति विकास मंच और आदिवासी विकास समिति ने त्रिस्तरीय पंचायतों में उचित प्रतिनिधित्व के संवैधानिक अधिकार की मांग को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका संख्या-46821/2010 दाखिल की। इसपर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुनील अंबानी और काशी नाथ पांडे की पीठ ने 16 सितंबर, 2010 को दिए फैसले में साफ कहा है कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जाति समुदाय के लोगों का आबादी के अनुपात में विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार उनका संवैधानिक आधार है जो उन्हें मिलना चाहिए। पीठ ने राज्य सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ लागू होने के बाद राज्य में आदिवासियों की जनगणना नहीं हुई है। 

पीठ ने साफ कहा कि 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल जातियों की जनगणना अलग-अलग कराई गई थी और इसका विवरण विकासखंड और जिला स्तर पर भी मौजूद है। इसकी सहायता से अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में शामिल हुई जातियों की आबादी को पता किया जा सकता है। पीठ ने आदिवासियों के हक में फैसला देते हुए त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया लेकिन चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाने के कारण पंचायत चुनाव-2010 में उच्च न्यायालय का आदेश लागू नहीं हो पाया था। राज्य निर्वाचन आयोग ने जनगणना-2011 के आंकड़ो के आधार पर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव-2015 में अनुसूचित जनजाति वर्ग की आबादी के आधार पर उनके लिए सीटें आरक्षित कर दी हैं।

वहीं आदिवासी पहचान के लिए जूझ रही सूबे की कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, वनवासी सरीखी जातियों को अपनी मूल पहचान पर यह अधिकार हासिल करने के लिए अभी और संघर्ष करना होगा क्योंकि राजनीतिक गुणा-भाग में जुटे सियासतदानों ने उन्हें अभी भी उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति में बनाए रखा है जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति भी इन जिलों में अन्य जनजातियों के समान ही है। अगर हम इनके संवैधानिक अधिकारों पर गौर करें तो कोल मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, कोरबा बिहार, मध्य प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल में, कंवर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में, मझवार मध्य प्रदेश में, धांगड़ (उरांव)  मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में, बादी (बर्दा) गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति वर्ग में हैं। उत्तर प्रदेश में भी इन जातियों के लोगों की सामाजिक स्थिति अन्य प्रदेशों में निवास करने वाली आदिवासी जातियों के समान ही है जो समय-समय पर सर्वेक्षणों और मीडिया रिपोर्टों में सामने आता रहता है।

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वोटबैंक की राजनीति में उलझा आदिवासियों का मूलाधिकार

माज के निचले पायदान पर जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों के संवैधानिक और मूलाधिकार को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा उदासीन रही हैं। उन्होंने उन्हें केवल वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें उनका हक देने में हमेशा पीछे रहीं हैं। इसमें कांग्रेस की भूमिका हमेशा संदेह के घेरे में रही है। उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली विभिन्न आदिवासी जातियां कांग्रेस के शासनकाल में संसद से पास हुए अनुसूचित जनजाति (उत्तर प्रदेश) कानून-1967 के लागू होने के समय से ही खुद को ठगा महसूस कर रही हैं। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उत्तर प्रदेश के सबसे निचले तबके यानी आदिवासी पर यह कानून जबरन थोप दिया था। इसकी वजह से वे आज तक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित हैं। इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश की पांच आदिवासी जातियों (भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, रांजी और थारू) को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल किया गया लेकिन कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया। जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति आज भी उक्त पांच आदिवासी जातियों के समान ही है। इन जातियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू कर दी। उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक की गणित के हिसाब से अपना-अपना जाल बुना और उनके वोट बैंक का इस्तेमाल कर सत्ता हासिल की लेकिन उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित रखा।

केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी (राजग) ने वर्ष 2002 में संसद में संविधान संशोधन का निर्णय लिया। इसमें उसके नुमाइंदों की सत्ता में बने रहने की लालच भी थी। तत्कालीन राजग सरकार ने उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने की कवायद शुरू की। इसके लिए उसने संसद में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) विधेयक-2002’ पेश किया। संसद ने इसे पारित कर दिया। हालांकि सियासी पृष्ठभूमि मंु इस कानून में कुछ विशेष जिलों के आदिवासियों को ही शामिल किया गया था। इस वजह से आदिवासी बहुल चंदौली जिले में इन जातियों के लोग आज भी अनसूचित जाति वर्ग में ही हैं जबकि उत्तर प्रदेश की सत्ता को पहली बार इस जिले से नक्सलवाद का लाल सलाम हिंसा के रूप में मिला।   

फिलहाल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002’ के संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इसे अधिसूचित कर दिया। केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय ने 8 जनवरी 2003 को भारत सरकार का राजपत्र (भाग-2, खंड-1) जारी किया। इसके तहत गोंड़ (राजगोंड़, धूरिया, पठारी, नायक और ओझा) जाति को उत्तर प्रदेश के 13 जनपदों महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल कर दिया। साथ में खरवार, खैरवार को देवरिया, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी और सोनभद्र में, सहरिया को ललितपुर में, परहिया, बैगा, अगरिया, पठारी, भुईया, भुनिया को सोनभद्र में, पंखा, पनिका को सोनभद्र और मिर्जापुर में एवं चेरो को सोनभद्र और वाराणसी में अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया।

उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ कानून ने एक बार फिर आदिवासी समुदाय के दुखते रग पर हाथ रख दिया। इसके तहत अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुआ आदिवासी समुदाय सत्ता में अपने भागीदारी के संवैधानिक अधिकार से ही वंचित हो गया। इस कानून के लागू होने से वे त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडलों और संसद में अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व करने से ही वंचित हो गए क्योंकि राज्य में उनकी आबादी बढ़ने के अनुपात में इन सदनों में उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं की गईं। 3 मई, 2002 से 29 अगस्त, 2003 तक राज्य की सत्ता में तीसरी बार काबिज रही बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार की अनदेखी की। मायावती अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुई आदिवासियों की संख्या का रैपिड सर्वे कराकर उनके लिए विभिन्न सदनों में आबादी के आधार पर सीट आरक्षित करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार, परिसीमन आयोग और चुनाव आयोग को भेज सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

उन्होंने इन विसंगतियों के साथ कानून को राज्य में लागू कर दिया। इससे एक बार फिर आदिवासियों के समानुपातिक प्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार कानूनी और सियासी पचड़े में उलझ गया। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की अगुआई में 29 अगस्त, 2003 को राज्य में सरकार बनी। तत्कालीन सपा सरकार में मंत्री और दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ त्रिस्तरीय पंचायतों समेत विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने से वंचित हो गए। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। दूसरी तरफ आदिवासी बहुल सोनभद्र के आदिवासियों में अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए जागरूकता बढ़ी और वो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक कूंच कर गए, लेकिन 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग और 13 मई, 2007 में राज्य की सत्ता में आई मायावती सरकार ने उनकी आवाज को एक बार फिर नजर अंदाज कर दिया। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का आदिवासी समुदाय अपने हक के लिए जिला प्रशासन से लेकर उच्चतम न्यायालय तक अपनी आवाज पहुंचाता रहा।

मौके की नजाकत को भांपते हुए पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ ने कांग्रेस का दामन थामने का निर्णय लिया। उन्होंने इसकी पृष्ठभूमि भी तैयार कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने बेटे विजय प्रताप की ओर से 2011 के आखिरी महीने में उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका संख्या-540ध्2011 दाखिल करवाई। केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट दी। उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय निर्वाचन आयोग, भारत सरकार और उत्तर प्रदेश को तलब किया। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। हालांकि उसने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने और सीटों के आरक्षण की प्रक्रिया में तीन महीने का समय लगने की वजह से उस समय आदिवासियों के हक में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। अब निर्वाचन आयोग ने उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए विधानसभा की दो सीटें दुद्धी और ओबरा आरक्षित कर दी हैं।

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सपा सरकार की पहल भी काम नहीं आईं

त्तर प्रदेश में अगस्त, 2003 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी। उसने पहली बार राज्य के आदिवासी जिलों में विभागीय सर्वेक्षण कराया था। इसमें सामने आया कि राज्य में आदिवासियों की संख्या 2001 की जनगणना के 1,07,963 से बढ़कर 6,65,325 हो गई थी। हालांकि उसका यह सर्वेक्षण गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया जैसी आदिवासी जातियों के काम नहीं आई। जनगणना-2011 के अनुसार अब यह आबादी 11,34,273 हो गई है जो राज्य की आबादी का 0.57 प्रतिशत के करीब है। इस आधार पर राज्य की विधानसभा में दो सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हो गई हैं। इनमें सोनभद्र की आदिवासी बहुल दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीटें शामिल है। 

अपनी मूल पहचान पर लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने के लिए उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को अभी भी इंतजार करना पड़ेगा। अगर जिलेवार बात करें तो अनुसूचित जनजातियों की संख्या सोनभद्र में 3,85,018, मिर्जापुर में 20,132, वाराणसी में 28,617, चंदौली में 41,725, बलिया में 1,10,114, देवरिया में 1,09,894, कुशीनगर में 80,269 और ललितपुर में 71,610 है। सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या जिले की आबादी का 20.67 प्रतिशत है जो राज्य में किसी भी जिले में अनुसूचित जनजातियों की संख्या से अधिक है। सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों की संख्या घटकर 22.63 प्रतिशत हो गई है। जनगणना-2001 के अनुसार यह 6,13,497 थी जो जिले की आबादी का 41.92 प्रतिशत थी। विभागीय सर्वेक्षण-2003-04 के अनुसार सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 3,78,442 थी।

जनगणना-2011: उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाले पांच जिले-

क्रमांक जनपद               अनसूचित जनजाति                   प्रतिशत
1       सोनभद्र                        3,85,018                      20.67
2       बलिया                         1,10,114                        3.40
3       देवरिया                        1,09,894                        3.54
4       कुशीनगर                         80,269                         2.25
5       ललितपुर                         71,610                         5.86


उत्तर प्रदेश शासन विभागीय जनगणना-2003-

उत्तर प्रदेश शासन समाज कल्याण अनुभाग-3 के शासनादेश संख्या-111, भा00/26.03.2003-3(सा)/2003, दिनांक-03.07.2003 में अधिसूचित जनपद-सोनभद्र में अनुसूचित जनजातियों की सूची

क्रमांक   जाति                 जनसंख्या
1       गोंड़                   1,30,662
2       खरवार                  73,212
3       चेरो                      60,578
4       बैगा                      32,212
5       पनिका                  26,806
6       अगरिया                18,383
7       राजगोंड़                14,518
8       भुईयां                   14,218
9       खैरवार                   2,513
10     पठारी                    2,374
11     पहरिया                  1,367
12     पंखा                      1,324
13     भुनिया                      275
14     धुरिया                           0
15     नायक                            0
16     ओझा                             0
          योग                 3,78,442


शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

सत्ताई धनलोलुपता में उड़े इंसानियत के चिथड़े

सोनभद्र में रासपहरी पहाड़ी क्षेत्र में हुए विस्फोट के बाद
मलबे से शव निकालते स्थानीय लोग।
सफेदपोश खनन माफियाओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और तथाकथित जनप्रतिनिधियों ने रची साजिश! मुअावजा और मजिस्ट्रेट जांच के नाम पर जनता की आवाज को दबाने की कोशिश। सीबीसीआईडी/ सीबीआई से हो 27 फरवरी 2012 और 15 अक्टूबर, 2015 को हुए हादसों की जांच। 

शिव दास / वनांचल न्यूज नेटवर्क 

सोनभद्र। जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों और सफेदपोश धंधेबाजों की सत्ताई धनलोलुपता में पिछले दिनों एक बार फिर इंसानियत के चिथड़े उड़े। गत 15 अक्टूबर को सोनभद्र की रासपहरी पहाड़ी बारूदी विस्फोट से थर्रा गई और लोग लोथड़े इकट्ठा करते रह गए। घड़ियाली आंसूओं और चंद कागजी टूकड़ों की खैराती बख्शीशों का सपना दिखाकर स्थानीय जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों ने जहां जनता की उग्र आवाज का सौदा किया, वहीं  सफेदपोश खनन माफियाओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और तथाकथित जनप्रतिनिधियों के गठजोड़ ने खनन मजदूरों की ‘संगठित हत्या’ का राज दफन करने की कवायद शुरू की।

जिलाधिकारी जीएस प्रियदर्शी ने अपने मातहत डिप्टी कलेक्टर गिरजा शंकर सिंह को पिछले दिनों बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में हुए विस्फोट की मजिस्ट्रेट जांच सौंपी। डिप्टी कलेक्टर हादसे के लिए जिम्मेदार विभिन्न पहलुओं के साथ संबंधित विभागों के अधिकारियों और कर्मचारियों की भूमिका से संबंधित जांच रिपोर्ट 15 दिनों के अंदर जिलाधिकारी को सौंपेंगे। वहीं सूबे की राजधानी स्थित खनन निदेशालय के निदेशक एसके राय ने सोनभद्र के खनिजों का अवैध दोहन कराकर खनन मजदूरों के लिए मौत का कुआं (पत्थर की खदान) तैयार कराने वाले विभागीय अधिकारी आरपी सिंह को जांच के लिए भेजा है जो यहां जिला खान अधिकारी रह चुके हैं। गौर करने वाली बात है कि आरपी सिंह के कार्यकाल के दौरान जिले में अवैध खनन और परिवहन का गोरखधंधा जमकर फलफूल रहा था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह कितनी जिम्मेदारी और ईमानदारी से हादसे की जांच करेंगे।

अगर वाराणसी परिक्षेत्र के खान सुरक्षा निदेशालय के डायरेक्टर यूपी सिंह की बात करें तो इस मामले में वह और दो कदम आगे हैं। वाराणसी परिक्षेत्र के तहत शामिल सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली क्षेत्र में खनन व्यवसाय में करीब दस हजार से ज्यादा मजदूर काम करते हैं लेकिन उन्होंने उनकी सुरक्षा और पंजीकरण को लेकर परिक्षेत्र में संचालित होने वाली खदानों और क्रशर प्लांटों को लेकर कभी भी संजीदगी नहीं दिखाई। ना ही उन्होंने उनके खिलाफ कोई कठोर प्रशासनिक कार्रवाई की जबकि परिक्षेत्र की सीमा के अंतर्गत शामिल खनन क्षेत्रों में हर दिन करीब दो मजदूरों की मौत सुरक्षा व्यवस्थाओं की वजह से होती है। विस्फोटकों के इस्तेमाल के लिए प्रशिक्षित मजदूरों और उनकी सुरक्षा को लेकर उन्होंने केवल खानापूर्ति तक की है। इसी की देन है कि सोनभद्र के बिल्ली-मारकुंडी, सिंदुरिया, सुकृत आदि खनन क्षेत्र में संचालित होने वाली पत्थर की खदानों में खान सुरक्षा निदेशालय की ओर से जारी आदेशों और दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित नहीं किया जाता है। और, आए दिन मजदूर खनन माफियाओं और सत्ता के दलालों की सांठगांठ में मारे जाते हैं।

पुलिस प्रशासन इस मामले में कुछ ज्यादा ही आगे है। पूर्व पुलिस अधीक्षकों समेत वर्तमान पुलिस अधीक्षक शिव शंकर यादव जिले में तैनात थाना प्रभारियों की उदासीनता को खत्म करने में नाकाम साबित हुए हैं। चोपन, ओबरा, रॉबर्ट्सगंज थानों समेत डाला और सुकृत पुलिस चौकी के प्रभारियों ने अवैध खनन माफियाओं की काली करतूतों को छिपाने और मजदूरों की आवाज को दफन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने क्षेत्र में होने वाले अवैध खनन और विस्फोट को अंदरुनी खाने से जमकर शह दिया है जिसके कारण इन इलाकों की खदानों में मजदूरों की होने वाली मौतें सरकारी फाइलों में दर्ज तक नहीं होती। ना ही इसके लिए जिम्मेदार हत्यारों को कोई कानूनी सजा मिल पाती है। चंद रुपयों में अवैध खनन और विस्फोट से होने वाली मौतों के समर्थन में उठने वाली आवाज को दबा दिया जाता है।

जिले में सफेदपोश समाजसेवियों और जनप्रतिनिधियों की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जो लोग कुछ सालों पहले बेरोजगारी का दंश कम करने के लिए चट्टी-चौराहों पर चापलूसी करते थे, वे आज लक्जरी गाड़ियों में दौड़ लगा रहे हैं। दो साल पहले जिनके पास लाख रुपये की जमा पूंजी नहीं थी, आज वह करोड़पति बन बैठे हैं। हालांकि वे ना ही कोई नौकरी करते हैं और ना ही उनका कोई व्यवसाय है। अगर उनका कोई धंधा है तो वह केवल राज-नीति, वह भी लेन-देन की। समाजसेवा का चोला पहने ऐसे तथाकथित जनप्रतिनिधियों की जिले में भरमार है। 

फिलहाल 15 अक्टूबर 2015 की घटना के मामले में सत्ताधारी पार्टी के एक जनप्रतिनिधि का चेहरा कुछ अलग दिखाई दिया है। जिला प्रशासन के दावों के मुताबकि सूबे के मुखिया अखिलेश यादव ने इस हादसे में मरने वाले व्यक्तियों के परिजनों और आश्रितों को मुख्यमंत्री कोष से दो-दो लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की है जो रॉबर्ट्सगंज के विधायक और सपा जिलाध्यक्ष अविनाश कुशवाहा की पहल पर आधारित है। हालांकि घायलों को मुख्यमंत्री कोष से कोई धनराशि मिलेगी या नहीं, इसका विवरण नहीं दिया गया है। साथ ही जिला प्रशासन ने विस्फोट में मरने वाले व्यक्तियों के आश्रितों को राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना के तहत 30-30 हजार रुपये का अतिरिक्त मुआवजा देने का सब्जबाग दिखाया है। 

यहां गौर करने वाली बात है कि जिला प्रशासन जिस अविनाश कुशवाहा की पहल पर मुख्यमंत्री कोष से दो-दो लाख रुपये मुआवजा बांटने की बात कह रहा है, वह इतने सालों से क्या कर रहे थे? पिछले दो सालों से वे समाजवादी पार्टी के जिलाध्यक्ष हैं। पार्टी के प्रदेश इकाई के मुखिया और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उनके ही चश्मे से सोनभद्र की तस्वीर देखते हैं। घोरावल विधानसभा क्षेत्र के विधायक रमेश दुबे और दुद्धी विधानसभा क्षेत्र की विधानसभा सदस्य रुबी प्रसाद की बात करना ही बेमानी है। रमेश दुबे और उनके परिवार के सदस्यों पर सोनभद्र और मिर्जापुर में अवैध खनन कराने का आरोप है जिसकी जांच चल रही है। जबकि रुबी प्रसाद कांग्रेस से पाला बदलकर सपा का दामन पकड़ी हैं। जैसा माना जाता है कि स्थानीय स्तर पर पार्टी का जिलाध्यक्ष और साफ-सुथरी छवि वाला जनप्रतिनिधि ही सूबे के मुखिया की आंख होता है। बहुत हद तक ये पहलू अविनाश कुशवाहा के पक्ष में हैं। लेकिन, विधायक बनने के बाद उनकी और उनके परिवार के सदस्यों समेत उनके रिश्तेदारों और नजदीकियों की संपत्ति में हुआ इजाफा उनकी इस साफ-सुथरी छवि में दाग लगा रहा है। रॉबर्ट्सगंज तहसील द्वार के सामने कुछ जमीन को कब्जा करने का आरोप लगाकर कुछ अधिवक्ता उनके खिलाफ धरना भी दे चुके हैं। 

पिछले तीन सालों से जिले में हो रहे अवैध खनन, परिवहन और विस्फोट की गतिविधियों की वजह से हुई मौतों पर उनकी चुप्पी उनकी पहल पर सवाल भी खड़ा करती है। कहीं उनकी यह कवायद उस साजिश का हिस्सा तो नहीं जो पिछले दिनों हुए हादसे से उठने वाली आवाज को दफन करने के लिए बुनी गई है। बहुजन समाज पार्टी की सरकार के दौरान वर्ष 2012 में 27 फरवरी को बिल्ली-मारकुंडी खनन हादसे में शासन और प्रशासन की ओर से की गई कार्रवाई में कुछ ऐसा ही देखने को मिला था। उस दौरान मारे गए करीब एक दर्जन मजदूरों के परिजनों/आश्रितों को उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से आज तक मुआवजे के रूप में एक फुटी कौड़ी नहीं मिली। ना ही इसके लिए जिम्मेदार खनन माफियाओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और सफेदपोशों को सजा मिली। 

क्या अविनाश कुशवाहा की यह जिम्मेदारी नहीं थी कि वे उस हादसे में मारे गए लोगों को भी मुख्यमंत्री कोष से मुआवजे की धनराशि की मांग करते? क्या विधायक अविनाश कुशवाहा और अन्य जनप्रतिनिधि 15 अक्टूबर, 2015 और 27 फरवरी 2012 के हादसों समेत जिले में हो रहे अवैध खनन, विस्फोट और परिवहन की जांच सीबीसीआईडी अथवा सीबीआई अथवा उच्च न्यायालय में कार्यरत न्यायमूर्ति से कराने की अपील मुख्यमंत्री से करेंगे? अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो सोनभद्र में हो रहे खनिजों के अवैध दोहन, परिवहन और विस्फोट की घटनाओं में उनकी भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी ही है। साथ-साथ प्रदेश की कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसके प्रतिनिधियों पर आम आदमी का भरोसा कमजोर होगा जो एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। जरूरी है कि उत्तर प्रदेश की सरकार सोनभद्र और आस-पास के जिलों में हो रहे खनिजों के अवैध दोहन, परिवहन और विस्फोट की जांच किसी न्यायमूर्ति/सीबीसीआईडी/सीबीआई से कराये और मजदूरों की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों को जेल भेजे ताकि आम आदमी का भरोसा उत्तर प्रदेश सरकार समेत भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर बना रहे।  

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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

सोनभद्र में विस्फोट, आठ की मौत, सात घायल

रासपहरी खनन क्षेत्र में हुए विस्फोट की तस्वीर
पत्थर की खदान के मैगजीन रूम में हुआ विस्फोट। खान निदेशालय ने जिलाधिकारी से मांगी रिपोर्ट।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

ओबरा (सोनभद्र)/लखनऊ। स्थानीय थाना क्षेत्र अंतर्गत रासपहरी पहाड़ी स्थित एक खदान के मैगजीन रूम (विस्फोटक रखने का कमरा) में गुरुवार को जबरदस्त धमाका हुआ। इसमें दो बालकों समेत आठ लोगों की मौत हो गई। साथ ही सात अन्य लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। घायलों का इलाज ओबरा तापीय परियोजना अस्पताल में हो रहा है। जिलाधिकारी ने मामले की मजिस्ट्रेट जांच समेत तकनीकी जांच का आदेश जारी कर दिया है। उधर, खान निदेशालय ने जिलाधिकारी से पूरे घटनाक्रम की रिपोर्ट मांगी है। अवैध खनन का खूनी खेलः जिम्मेदार कौन?

विभागीय अधिकारियों समेत क्षेत्रीय लोगों से मिली जानकारी के मुताबिक बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में रासपहरी पहाड़ी अंतर्गत अराजी संख्या-5593क की दो एकड़ भूमि में चोपन रोड निवासी विजया कीर्ति के स्वामित्व वाली फर्म मे. आशीष इंटरप्राइजेज के नाम से खनन पट्टा स्वीकृत है। इसकी मियाद 4 जुलाई 2019 तक है। स्थानीय लोगों समेत जिला खान विभाग के एक खनन सर्वेक्षक की मानें तो इस खदान का संचालन अभिषेक सिंह उर्फ काके सिंह नामक व्यक्ति करता है जो विजया कीर्ति का बेटा है। जिलाधिकारी जीएस प्रियदर्शी के मुताबिक खदान की सीमा की दक्षिणी तरफ करीब 25 मीटर दूर मे. आशीष इंटर प्राइजेज का गोदाम (मैगजीन रूम) था जहां अमोनियम नाइट्रेट और जिलेटीन रॉड जैसे विस्फोटक रखा जाता था। इन विस्फोटकों की आपूर्त डाला स्थित सन इंटरप्राइजेज नामक फर्म करती है। पास में ही मजदूरों का अस्थाई आवास भी है। गुरुवार दोपहर दो बजे मजदूरों ने देखा कि मैगजीन रूम से धुआं निकल रहा है। तीन मजदूर विस्फोटक को निकालने के लिए गोदाम के दरवाजे का ताड़ा तोड़ने लगे। तभी विस्फोट हो गया। विस्फोट की चपेट में आने से दो बालकों समेत आठ मजदूरों की मौत हो गई। सात अन्य घायल हो गए। ओबरा तापीय परियोजना अस्पताल में उनका इलाज हो रहा है। इनमें कई की हालत गंभीर है। 

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घटना की जानकारी मिलते ही पुलिस और आलाधिकारी मौके पर पहुंचे लेकिन अन्य विस्फोट होने की आशंका से वे बचाव कार्य में जुट नहीं पाए। करीब दो घंटे बाद प्रशासनिक अधिकारी और कर्मचारी बचाव कार्य में लगे। तब तक जिलाधिकारी समेत अन्य आलाधिकारी भी मौके पर पहुंच गए। धीरे-धीरे शवों का बाहर निकाला गया और घायलों को इलाज के लिए अस्पताल भेजा गया। 

जानकारी के मुताबकि मृतकों में बभनी थाना क्षेत्र के सगोढ़ा गांव निवासी सूरज लाल, जीत सिंह और राम नारायण का नाम शामिल है। इनके अलावा विनोद, छोटू और ज्वाला समेत एक आठ वर्षीय बालक के मरने की बात कही जा रही है। हालांकि वे कहां के हैं, इसका पता नहीं चल पाया है। घटना में झारखंड के गढ़वा के देवरा गांव निवासी छोटेलाल, देव लाल, संतोष, बद्री, बबुंदर, सोनभद्र के बभनी थाना अंतर्गत गभरी निवासी प्रताप नारायण और अमरनाथ एवं लक्ष्मनधारी बैगा गंभीर रूप से घायल हो गए हैं। उनका इलाज ओबरा तापीय परियोजना अस्पताल में हो रहा है।   

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उधर, जिलाधिकारी जीएस प्रियदर्शी ने उक्त घटना की मजिस्ट्रेट जांच और तकनीकी जांच के आदेश दे दिये हैं। विस्फोटकों से संबंधित मामले में जांच डीआईजी, मिर्जापुर करेंगे। वहीं लखनऊ से मिली जानकारी के मुताबिक खान निदेशालय ने जिलाधिकारी, सोनभद्र से घटना की रिपोर्ट तलब की है। बता दें कि वर्ष 2012 में 27 फरवरी की शाम ओबरा थाना क्षेत्र के बिल्ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र स्थित एक पत्थर की खदान धंसने से 10 मजदूरों की मौत हो गई थी और अन्य कई गंभीर रूप से घायल हो हुए थे। इसके बावजूद मृतकों के परिजनों को जिला प्रशासन की तरफ से फूटी कौड़ी तक मुआवजा नहीं मिला। मुख्य विकास अधिकारी की जांच भी मजदूरों और मृतक परिजनों के जख्मों पर मरहम नहीं लगा सकी। मृतक मजदूरों के परिजनों को मिलने वाला न्याय खनन माफियाओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और तथाकथित जनप्रतिनिधियों की सांठगांठ के आगे दम तोड़ दिया।  

          जिला प्रशासन द्वारा जारी मृतकों और घायलों की सूची 
मृतकों के नाम और पतेः 
(1) सूरत लाल पुत्र जोधी लाल, निवासी गांव- घघरी, थाना-बभनी।
(2) रामायन सिंह पुत्र राम लाल, निवासी गांव घघरी, थाना-बभनी
(3) जीत सिंह पुत्र मोती लाल, निवासी गांव-घघरी, थाना बभनी।
(4) ज्वाला पुत्र सुग्रीव, निवासी गांव कोटा, थाना-चोपन।
(5) विनोद पुत्र रामधनी, निवासी गांव-खैरटिया, थाना-ओबरा। 
(6) राजेश कुमार गुप्ता पुत्र विश्वनाथ गुप्ता, निवासी- वार्ड- चार, थाना- घोरावल
नोटः दो शवों की शिनाख्त नहीं हो पाई है...

घायलों के नाम और पतेः 
(1) अनरसा पुत्र मोतीलाल, निवासी- गांव घघरी, थाना- बभनी।
(2) प्रताप नारायण पुत्र जद्दू लाल, निवासी घघरी, थाना-बभनी।
(3) बद्री केवट पुत्र भागीरथी, निवासी गांव-देवरा, थाना-महुअरिया, जिला-सिंगरौली, राज्य-मध्य प्रदेश
(4) संतोष कुमार पुत्र खेलावन, निवासी गांव-देवरा, थाना-महुअरिया, जिला-सिंगरौली, राज्य-मध्य प्रदेश
(5) छोटेलाल पुत्र शिव दास, निवासी गांव-देवरा, थाना-महुअरिया, जिला-सिंगरौली, राज्य-मध्य प्रदेश
(6) देवलाल पुत्र बाबा गौड़, निवासी गांव-देवरा, थाना-महुअरिया, जिला-सिंगरौली, राज्य-मध्य प्रदेश

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मंगलवार, 1 सितंबर 2015

गलत सूचना देकर लोगों को गुमराह कर रहा सोनभद्र का सूचना विभाग

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो
सोनभद्र। पिछले करीब 10 साल से जिला सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी की नियुक्ति से जूझ रहा जिला सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, सोनभद्र गलत सूचना प्रसारित कर जनता समेत मीडियाकर्मियों को गुमराह कर रहा है। उक्त कार्यालय में तैनात उर्दू अनुवादक नेसार अहमद की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में जिलाधिकारी संजय कुमार के हवाले से कहा गया है, 
जिलाधिकारी श्री संजय कुमार ने जानकारी देते हुए बताया कि चन्दौली जिले में 15 सितम्बर, 2015 से 23 सितम्बर, 2015 तक भारतीय सेना की खुली भर्ती होगी, जिसमें सोनभद्र जिले के तीनों तहसीलों के पात्र सोल्जर जी0डी0, सोल्जर ट्रेड मैन, सोल्जर टेक्निकल, सोल्जर क्लर्क/स्टोर कीपर टेक्निकल, सोल्जर टेक्निकल नर्सिंग, पशु चिकित्सक सेना की भर्ती में शरीक हो सकते हैं। जिलाधिकारी ने बताया कि सोनभद्र जिले के  अभ्यर्थियों के लिए सेना भर्ती के लिए चन्दौली में थल सेना भर्ती के लिए 23 सितम्बर, 2015 की तिथि निर्धाति है। जिलाधिकारी श्री संजय कुमार ने जिले के तीनों तहसीलों के पात्र एवं योग्य अभ्यर्थियों से अपेक्षा की है कि वे निर्धारित तिथि 23 सितम्बर, 2015 दिन बुद्धवार को भर्ती में सम्मिलित होकर सुनहरे मौके का फायदा उठायें। 

गौर करने वाली बात है कि भारतीय सेना की ओर से चंदौली जिले में सितंबर, 2015 के दौरान होने वाली भर्ती पंचायत चुनाव की वजह से टाल दी गई है। इसके बावजूद सोनभद्र का जिला सूचना एवं जनसंपर्क विभाग क्षेत्र के युवाओं को उक्त भर्ती में शामिल होने की सूचना प्रसारित कर रहा है। जब इस बाबत जिलाधिकारी संजय कुमार को मेसेज किया गया तो उन्होंने सोनभद्र सूचना विभाग की ओर से जारी विज्ञप्ति में प्रसारित सूचना को गलत बताया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सोनभद्र सूचना विभाग में तैनात उर्दू अनुवादक किस तरह लोगों को गुमराह कर रहा है। इससे पूर्व भी नेसार अहमद कई प्रकार की गलत सूचनाएं प्रसारित कर चुका है। जिसमें उसके द्वारा खुद को जिला सूचना अधिकारी, सोनभद्र बताने का मामला भी शामिल है। उसने जिले की अधिकारिक वेबसाइट पर भी इस सूचना को प्रकाशित करा दिया था। शिकायत के बाद वे सूचनाएं हटाई गईँ। 

रविवार, 9 अगस्त 2015

समस्याओं के समाधान के बिना मूलवासियों का भविष्य सुरक्षित नहीं

विश्व मूलवासी दिवस (9 अगस्त) पर विशेष
विश्व की कुल जनसंख्या करीब 6 अरब में से 3 अरब 70 करोड़ मूलवासी हैं, जो करीब 70 देशों में रह रहे हैं... भारत में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार करीब आठ करोड़ चालीस लाख लोगों को मूलवासियों के रूप में चिन्हित किया गया है...

हरि राम मीणा

मूलवासी’ (इण्डीजीनिस) शब्द को परिभाषित करना अत्यधिक कठिन है। इस शब्द पर चर्चा करने के साथ-साथ आदिवासी (ट्राईब) देसी (नेटिव) एवं आदिम (अबोरिजनल) जैसे शब्दों की अवधारणाएं सामने आती हैं। वर्ष 1987 में ग्रेलर ने मूलवासी की व्याख्या करते हुए कहा कि यह ‘राजनैतिक दृष्टि से अधिकार-विहीन लोगों के ऐसे समुदाय हैं जो अपनी विशिष्ट नस्लगत पहचान बनाये रखते हैं और आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा के मूर्तरूप लेने के बावजूद अलग ईकाई के रूप में समाज का हिस्सा बनकर चलते हैं। 

इससे पूर्व वर्ष 1972 में मूलवासी-जन के लिये गठित संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य समूह ने जोस माल्टीनेज कोज की परिभाषा से सहमति प्रकट करते हुए ’किसी भू-भाग पर विष्व के अन्य हिस्सों से आने वाले बाहरी मानव समूहों से पहिले वहां प्राचीन काल से रहने वाले लोगों के वंशज' के रूप में मूलवासी की पहचान की है। इस प्रक्रिया में बाहरी घुसपैठियों द्वारा आक्रमण एवं उस भू-भाग पर अधिकार करने तथा मूलवासियों को दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश किया गया। परिणास्वरूप वर्चस्वकारी व्यवस्था में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाने लगा और यहीं से विश्व की सबसे बड़ी समस्या नस्ल पर आधारित भेदभाव तथा मूलवासियों से सम्बन्धित अन्य मुद्दे सामने आये।

वर्ष 1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ के स्तर पर ’मूलवासी’ शब्द की व्याख्या करते हुए माना कि ’किसी भू-भाग पर प्राचीन काल से रहने वाले मानव समुदाय के वंशज हैं जो नस्ल एवं संस्कृति के स्तर पर विशिष्टता रखते हों । इनमें से काफी लोग राष्ट्र-समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग अपने पुरखों की परम्परा एवं रीति रिवाजों का संरक्षण करते हुए जीवन जीते चले आ रहे हैं और विकसित राष्ट्रीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को ये लोग बाहरी (एलियन) मानते हैं।’ कुल मिलाकर ’’किसी भू-भाग के ज्ञात प्राचीनतम निवासियों’’ को मूलवासी कहना उचित होगा।

भौगोलिक दृष्टिकोण से आस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूलवासियों को आदिम (अबोरिजनल) और शेष दुनिया के मूलवासियों को ’इण्डीजीनस’ कहा जाता है। आदिम शब्द में मौलिकता जैसे सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक तत्व का तथा मूलवासी (इण्डीजीनस) में भू-भाग विशेष में जीवन जीते रहने का भाव संकेतित होता है। आदिवासी समुदाय आदिम एवं मूलवासी समाज का वह हिस्सा है जो अभी भी मुख्य समाज से अलग-थलग प्रमुख रूप से प्रकृति पर आधारित जीवन जीता आ रहा है और प्राचीनता एवं नैसर्गिकता के सन्दर्भ में आदिम सरोकारों का कमोबेश संरक्षण किये हुए है। 

सामान्य तौर पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मूलवासी किसी भूखंड पर निर्विवाद रूप से लम्बे समय से वंषानुगत क्रम में निवास करने वाले ऐसे जन हैं जिनका नस्ल विशेष से गहरा संबंध होता है। यहां नस्ल, भू-भाग एवं प्राचीनता महत्वपूर्ण शब्द हैं। आधुनिक राष्ट्र- समाज एवं सरकारों के उद्भव के साथ अपनी स्वतन्त्र ईकाई के सन्दर्भ में ऐसे मूलवासी समुदाय राजनीति के स्तर पर अपने अस्तित्व एवं अधिकारों के लिये एक विषिष्ट पहचान बनाने की प्रक्रिया से गुजरते आये हैं। काल-खण्डानुक्रम की दृष्टि से प्राचीन काल, उपनिवेषवाद काल एवं आधुनिक काल के संदर्भ में इनकी अस्मिता, पराभव एवं पुनरूत्थान की प्रक्रिया को समझना आसान होगा। इस प्रक्रिया में होने वाले नस्ल परिवर्तन, सांस्कृतिक प्रदूषण, भाषागत अन्र्तक्रिया, मूल्यगत हृास की दृष्टि से परम्परा एवं आधुनिकता का अन्तर्संघर्ष, अन्तविर्रोध, अन्तक्र्रिया, परस्पर प्रभाव जैसी प्रमुख स्थितियां उभर कर सामने आती हैं । इस क्रम में भू-भाग विषेष महत्वपूर्ण तत्व न रहकर मानव समूहों के बिखराव एवं विस्थापन की स्थिति सामने आती है। यहां वनांचल से मुख्य भूमि, गावों से शहर और परम्परागत समाज से आधुनिक समाज की ओर अग्रसर होने की स्वाभाविकता या विवषता भी महत्वपूर्ण बन जाती है। निश्चित रूप से इतिहास एवं संस्कृति जैसे प्रमुख क्षेत्र प्रभावित होते हैं और प्राचीन ऐतिहासिकता एवं मौलिक संस्कृति के संरक्षण के प्रश्न सामने आते हैं।

विश्व मूलवासी अध्ययन केन्द्र की स्थापना वर्ष 1984 में डा0 रूडोल्फ सी0 रायसर एवं जार्ज मेनुअल ने एक स्वतंत्र शोध एवं शैक्षिक संगठन के रूप में की। जार्ज मेनुअल राष्ट्रीय भारत मैत्री संगठन (कनाडा) के पूर्व अध्यक्ष थे जिन्होंने उपनिवेषवाद से उबरे मूलवासियों के लिये कार्य किया। उन्होंने ही संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बन्धित मूलवासियों की विष्व परिषद के गठन में महत्पूर्ण योगदान दिया।

उल्लेखनीय है कि विश्व की कुल जनसंख्या करीब 6 अरब में से 3 अरब 70 करोड़ मूलवासी हैं, जो करीब 70 देशों में रह रहे हैं। भारत राष्ट्र के सन्दर्भ में मूलवासी श्रेणी में ही आदिवासियों को माना गया है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार करीब आठ करोड़ चालीस लाख लोगों को मूलवासियों के रूप में चिन्हित किया गया है। इनके कुल 461 समूह माने गये हैं। स्वतन्त्र शोध निष्कर्षो के अनुसार ऐसे कुल 635 आदिवासी घटक हैं जिनमें प्रमुख गोण्ड़, सन्थाल, उरांव, भील व नागा आदि हैं। जनगणना के मुताबिक 461 चिन्हित आदिवासी घटकों में से 220 उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहते हैं, जो कुल आदिवासियों का 12 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे मध्य भारत में कुल आदिवासियों की करीब 50 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। ये आंकडे संविधान की सूचि में शामिल आदिम समुदायों के हैं. इनके अलावा नृतत्वविज्ञान की दृष्टि से अन्य आदिम समूह भी हैं जिनमें अपरिगणित, घुमंतू व अर्द्धघुमंतू हैं. इन चारों श्रेणियों को मिलकर हमारे अध्ययन के अनुसार कुल 1048 आदिम समुदाय भारत में हैं. ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार किया जाये और आर्य-अनार्य संग्राम-शृंखला के सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है तो आदिवासी समाज के साथ दलित(अनुसूचित जाति) जनसंख्या भी मूलवासी की श्रेणी में आती है और साथ ही द्रविड़ मूल के अन्य घटक भी। 

वैश्विक मूलवासियों पर जब चर्चा की जाती है तो विश्व के सभी महाद्वीप विमर्श के केन्द्र में आते हैं। मूलवासियों की जनसंख्या अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, एशिया, यूरोप आदि सभी महाद्वीपों से गहरा संबंध रखती आई हैं चाहे समस्या उत्तरी अमेरिका के रेड इंडियनस् की हो या दक्षिणी अमेरिका के ’बुश नीग्रो’ की हो या अफ्रीका के सांन की हो या मैक्सिको के माया लोगों की हो या न्यूजीलैंड के मोरानी की हो या आस्ट्रेलिया के कुरी, नुनगा, टीवी की हो या यूरोप के खिनालुग, कोमी, सामी की हो अथवा एषिया के अडंमान टापू के सेंटेनलीज या जारवा की हो।

मूलवासियों को सर्वाधिक त्रासदी का सामना उपनिवेष-काल के दौर में करना पड़ा था जो पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होकर बीसवीं सदी के मध्य पार तक चला। नव साम्राज्यवाद एवं वैष्वीकरण के इस दौर में मूलवासियों की समस्याओं के और अधिक पेचीदा बनने की संभावनाएं सामने हैं। वे उच्च तकनीकी, बाजारवाद एवं पूंजी की वर्तमान भूमिका से सर्वथा अपरिचित हैं। मूलवासियों का विष्व-समाज आधुनिक प्रगतिशील जगत से स्वयं को पृथक व पिछड़ा हुआ महसूस करता है और है भी। 

अन्तर्राष्ट्रीय मूलवासी दिवस के रूप में नौ अगस्त को मनाने की पृष्ठभूमि यह है कि वर्ष 1982 में इसी तारीख को संयुक्त राष्ट्र संघ के मूलवासी लोगों के कार्यसमूह की प्रथम बैठक सम्पन्न हुई थी। तद्नुसार संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा की दिनांक 23 दिसम्बर 1994 को हुई बैठक में इस तिथि को ’अन्तराष्ट्रीय मूलवासी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। विश्व के मूलवासियों के उत्थान के लिये वर्ष 1995 से 2004 तक की अवधि को ’प्रथम मूलवासी दशक’ एवं वर्ष 2005 से 2014 तक की अवधि को ’द्वितीय मूलवासी दशक’ के रूप में मनाये जाने का संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में घोषणा की गई।

मूलवासियों के प्रति सामान्यीकृत दृष्टिकोण विरोधाभाषी रहे हैं। मूलवासियों के समर्थक उनके इतिहास एवं संस्कृति को विश्व धरोहर तथा प्रकृति के साथ बेहतरीन सामंजस्य से आपूरित जीवन शैली एवं संस्कृति के रूप में देखते हैं, वहीं दूसरा दृष्टिकोण मूलवासियों को आदिम, असभ्य, जंगली एवं अविकसित श्रेणी का मानता है।
वर्तमान काल में मूलवासियों से संबंधित समस्याएं विश्व के सामने महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं जिनमें नस्लभेद, रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं, विस्थापन, संस्कृति का संरक्षण, पहचान का संकट एवं मानवाधिकारों के संरक्षण आदि शामिल हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में आदिवासी आबादी की आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी के स्तर से नीचे का जीवन जीने को विवश है जबकि गरीबी की रेखा से नीचे जीने वाले भारत की कुल आबादी का करीब तिहाई अंश है । शेष विश्व के मूलवासियों की भौतिक दशा भी कमोबेश ऐसी ही है। इन समस्याओं के समाधान के बिना मूलवासियों का भविष्य सुरक्षित नहीं है, जो विश्व मानवता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
(लेखक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी और विभिन्न विश्वविद्यालयों में  विजिटिंग प्रोफ़ेसर  हैं।)

भारत में 1866 राजनीतिक दल

नई दिल्ली (भाषा)। चुनाव आयोग के समक्ष राजनीतिक दल के रूप में पंजीकरण कराने के लिए काफी संख्या में आवेदन आ रहे हैं। मार्च 2014 से इस वर्ष जुलाई के बीच 239 नये संगठनों ने पंजीकरण कराया है। इससे देश में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या बढ़कर 1866 हो गई है।

चुनाव आयोग के अनुसार, 24 जुलाई को देश में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1866 दर्ज की गई जिसमें 56 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय दल थे जबकि शेष ‘गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल थे। पिछले लोकसभा चुनाव 2014 के समय चुनाव आयोग की ओर से एकत्र आंकड़ों के मुताबिक, 464 राजनीतिक दलों ने उम्मीदवार खड़े किये थे। चुनाव आयोग द्वारा एकत्र आंकड़ों को संसद में उपयोग के लिए विधि मंत्रालय के साथ साझा किया गया था। मंत्रालय का विधायी विभाग आयोग की प्रशासनिक इकाई है।

चुनाव आयोग के अनुसार 10 मार्च 2014 तक देश में ऐसे राजनीतिक दलों की संख्या 1593 थी। 11 मार्च से 21 मार्च के बीच 24 और दल पंजीकृत हुए और 26 मार्च तक 10 और दल पंजीकतृ हुए। इस दौरान ही पांच मार्च को लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई थी।

सोमवार, 6 जुलाई 2015

मा.शि.पः जनता के पैसे पर शिक्षा माफियाओं की गुलामी!

माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश के बाबू और अधिकारी शासन द्वारा निर्धारित मानकों की अनदेखी कर मानकविहीन विद्यालयों को दे रहे मान्यता।

रॉबर्ट्सगंज तहसील के बहुअरा गांव में संचालित हो रहे मानकविहीन ग्रामोदय शिशु विद्या मंदिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और तेन्दू में संचालित हो रहे पं. परमेश्वर प्रसाद मिश्र उच्चतर माध्यमिक विद्यालय को मान्यता देने में की गई मानकों की अनदेखी।

विद्यालय के नाम भूमि और भवन नहीं होने पर दी गई मान्यता। योग्य अध्यापकों की नियुक्ति और वेतनमान में भी बरती जा रही है लापरवाही।

वनांचल एक्सप्रेस ब्यूरो

सोनभद्र। माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश के अधिकारी और कर्मचारी जनता के हित में काम करने की जगह शिक्षा माफियाओं की गुलामी कर रहे हैं। वे शासन द्वारा निर्धारित मानकों की अनदेखी कर कागजों पर संचालित हो रहे मानकविहीन विद्यालयों को धड़ल्ले से हाई स्कूल और इंटर मीडिएट कक्षाओं के संचालन के लिए मान्यता प्रदान कर रहे हैं। इसके एवज में उन्हें शिक्षा माफियाओं की काली कमाई का एक हिस्सा सुविधा शुल्क के रूप में मिलने की बात कही जा रही है। इसके लिए वे शासन द्वारा निर्धारित किसी भी प्रावधान को शिथिल करने में जरा भी हिचकिचा नहीं रहे हैं। रॉबर्ट्सगंज विकास खंड के ग्राम पंचायत बहुअरा में संचालित हो रहे ग्रामोदय शिशु विद्या मंदिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और भाजपा के एक पूर्व जिलाध्यक्ष के परिवार की ओर से तेन्दू गांव में संचालित हो रहे पं. परमेश्वर प्रसाद मिश्र उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के दस्तावेज कुछ ऐसा ही बयां कर रहे हैं। 

वनांचल एक्सप्रेस के पास मौजूद दस्तावेजों और फोटोग्राफ के मुताबिक रॉबर्ट्सगंज विकास खंड के बहुअरा गांव में मानकविहीन ग्रामोदय शिशु विद्या मंदिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का संचालन वर्ष-2009 से किया जा रहा है (फोटोग्राफ देखें) जबकि माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद की ओर से ग्रामोदय शिशु मंदिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, बहुअरा, सोनभद्र को बालक विद्यालय के रूप में 21 जनवरी 2010 को परिषद की हाई स्कूल परीक्षा-2011 से सभी अनिवार्य और अतिरिक्त विषयों के साथ वित्त विहीन मान्यता प्रदान की गई। मान्यता प्रदान करते समय सामान्य और विशेष प्रतिबंधों को सुनिश्चित करने का निर्देश विद्यालय प्रबंधतंत्र को दिया गया था। इनमें कक्षा-9 की कक्षाओं का संचालन करने से पूर्व शिक्षण कार्य हेतु भवन की व्यवस्था, साज-सज्जा, शिक्षण सामग्री, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, प्राभूत सुरक्षित कोष एवं योग्य अध्यापकों और उनके वेतन भुगतान की व्यवस्था करने आदि की शर्तें शामिल थीं जिससे जिला विद्यालय निरीक्षक को अवगत कराना था। विद्यालय प्रबंधतंत्र ने आज तक उक्त व्यवस्थाएं मानक के अनुरूप नहीं किया है। 

तत्कालीन और वर्तमान जिला विद्यालय निरीक्षकों की मिलीभगत से विद्यालय की मान्यता बनी हुई है और प्रबंधतंत्र अभी तक विद्यालय का संचालन कर रहा है जबकि बहुअरा गांव में संस्था के नाम से 16 मार्च 2015 तक किसी प्रकार की भूमि पंजीकृत नहीं थी। सभी मानकों की अनदेखी और माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश के उच्चाधिकारियों को गुमराह करते हुए विद्यालय प्रबंधक हरिदास खत्री विद्यालय का संचालन कई सालों से कर रहे हैं। स्थानीय लोगों की मानें तो बालक विद्यालय के रूप में मान्यता होने के बावजदू विद्यालय प्रबंधतंत्र हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की कक्षाओं में बालिकाओं का प्रवेश लेकर उनसे भारी धनउगाही कर रहे हैं। मामले में शिकायत की संभावना होने पर हरिदास खत्री ने 17 मार्च 2015 को बहुअरा गांव स्थित अपनी साढ़े चार बिस्वा भूमि विद्यालय के नाम से बख्शिसनामा कर स्टांप चोरी के रूप में राज्य सरकार को लाखों रुपये का चूना लगाने की कोशिश की। हालांकि भूमि का नामांतरण अभी भी विद्यालय के नाम से नहीं हो पाया है और मामला नायब तहसीलदार, रॉबर्ट्सगंज के न्यायालय में विचाराधीन है। 

वास्तव में विद्यालय प्रबंधक हरिदास खत्री अपने दो भाइयों शिव दास और हरिनारायण की संयुक्त भूमि (करीब नौ बिस्वा) पर उक्त मानकविहीन विद्यालय का संचालन करीब एक दशक से कर रहे हैं और इसकी आड़ में वे पास से गुजरने वाली चंद्रप्रभा नदी की भूमि पर अवैध ढंग से कब्जा कर निर्माण करा रहे हैं। बहुअरा में संचालित हो रहे ग्रामोदय शिशु विद्या मंदिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय (जहां उच्च प्राथमिक विद्यालय स्तर की कक्षाएं भी संचालित होती हैं) का भौतिक अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि विद्यालय की चहारदीवारी कम से कम तीस बिस्वा जमीन पर निर्मित है जिसमें चंद्रप्रभा नदी की करीब 15 बिस्वा जमीन शामिल है। इसकी शिकायत स्थानीय नागरिकों ने जिलाधिकारी और मुख्यमंत्री से लिखित रूप से की भी है जिसकी जांच लंबित है। 

इसके बावजूद स्थानीय तहसील प्रशासन को चंद्रप्रभा नदी की भूमि पर अतिक्रमण दिखाई नहीं दे रहा। क्षेत्रीय लेखपाल मंगला यादव विद्यालय प्रबंधक से सांठगांठ कर तहसील प्रशासन समेत उच्चाधिकारियों को गुमराह करने में लगे हैं। सूत्रों की मानें तो इसके एवज में उन्होंने विद्यालय प्रबंधक से सुविधा शुल्क के रूप में मोटी रकम वसूली है। नदी, तालाब और नालों आदि समेत अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण के संबंध उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट आदेश होने के बावजूद जिला प्रशासन शिक्षा माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने से हिचकिचा रहा है। इसका फायदा उठाकर वह चंद्रप्रभा नदी की भूमि पर अवैध रूप से निर्माण कराते जा रहे हैं। मामले की शिकायत के बाद भी शिक्षा माफिया विद्यालय की चहारदीवारी और भवन का निर्माण कराता जा रहा है।

दूसरी ओर माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने तेंदू गांव में पं. परमेश्वर प्रसाद मिश्र उच्चतर माध्यमिक विद्यालय को मानकों को ताक पर रखकर 9 जून 2006 को मान्यता दे दी जबकि यह विद्यालय अब तक कागजों पर संचालित हो रहा है। गौर करने वाली बात है कि जिस स्थान पर विद्यालय के संचालन होने की बात अब तक कही जा रही थी, वह भूमि मंदिर की है। वहां कक्षा-1 से कक्षा-8 तक की कक्षाएं संचालित होती हैं। पं. परमेश्वर प्रसाद मिश्र उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, तेंदू के लिए कभी-कभी एक व्यक्ति वहां रहता है और माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश की औपचारिकताओं को पूरा करता है। यह विद्यालय अभी तक पूरी तरह से कागजों पर संचालित होता रहा है और हजारों छात्र कागजों पर इस विद्यालय से पढ़कर परिषद की परीक्षा पास कर चुके हैं और उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं। 

सूत्रों की मानें तो इस शिक्षा-सत्र से यह विद्यालय बभनौली स्थित इलाहाबाद बैंक की शाखा के पास संचालित होने जा रहा है जिसे एक व्यक्ति ने बीस सालों के लिए समझौते पर लिया है। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह जांच का विषय है। फिलहाल यह विद्यालय शिक्षा विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों की मिलीभगत से संचालित हो रहा है। भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष रमेश मिश्रा के पिता इस विद्यालय के प्रबंधक हैं और उनके परिवार के ही लोग इस विद्यालय के प्रधानाचार्य हैं। इस वजह से कोई भी अधिकारी अथवा कर्मचारी इस विद्यालय के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं करता है। फिलहाल उक्त विद्यालयों से पढ़े कई छात्रों का भविष्य प्रमाण-पत्रों की त्रुटियों की वजह से अभी भी अधर में लटका हुआ है जो दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।   

मा.शि.प.बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय में मिली खामियां, कई फाइलें जब्त

बोर्ड मुख्यालय में कार्यरत अपर सचिव ने की शिकायतों की जांच। मानकविहीन विद्यालयों को मान्यता देने के मामले में भी हो रही छानबीन।

अनिल कुमार प्रजापति

वाराणसी। माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश के स्थानीय कार्यालय में पिछले दिनों परिषद मुख्यालय से आए अपर सचिव ने छानबीन की जिसमें कई प्रकार की अनियमितताएं मिलीं। उन्होंने अनियमितताओं से संबंधित फाइलों को जब्त कर लिया।

गौरतलब है कि माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद स्थित प्रधान कार्यालय में कार्यरत अपर सचिव राजेंद्र प्रताप पिछले दिनों वाराणसी स्थित परिषद के क्षेत्रीय कार्यालय पहुंचे। वहां उन्होंने विभिन्न शिकायतों से संबंधित फाइलों की जांच की और कुछ फाइलों को जब्त कर लिया। सूत्रों की मानें तो सुल्तानपुर में एक ऐसे विद्यालय को मान्यता प्रदान की गई है जिसकी हाईस्कूल की मान्यता निरस्त है। यह मामला कोर्ट में विचाराधीन है। 
कुछ ऐसे विद्यालयों को मान्यता देने की शिकायत है जिनके पास मानक के अऩुसार भूमि और भवन नहीं है। अपर सचिव प्रशासन ने मान्यता की फाइलों में से कई फाइलों की जांच गहनता से की। मान्यता अनुभाग के डिस्पैच क्लर्क पर कार्रवाई की चेतावनी भी दी। उक्त क्लर्क के छुट्टी के आवेदन में भी हेराफेरी कर छुट्टी बढ़ा दी गई है। परीक्षा सामग्री और अंकपत्रों के वितरण के लिए ट्रकों के किराये के भुगतान में भी अनियमितता बरतने और बगैर टेंडर के करोड़ों रुपये के भुगतान का आरोप भी है। अपर सचिव ने कई अन्य अनियमितताओं की जांच की है। जांच रिपोर्ट परिषद के सचिव को सौंपी जाएगी।


वहीं परिषद के क्षेत्रीय कार्यालय, वाराणसी की ओर से सुल्तानपुर और भदोही के दो विद्यालयों को नोटिस जारी किया गया। इसके बारे में क्षेत्रीय सचिव कामता राम पाल ने बताया कि सुल्तानपुर के बाबा परमहंसदास इंटर कॉलेज के प्रबंधतंत्र पर तथ्यों को छिपाकर इंटरमीडिएट की मान्यता लेने का आरोप है जबकि उसकी हाई स्कूल की मान्यता निरस्त है। इस बारे में विद्यालय प्रबंधतंत्र को स्थिति स्पष्ट करने को कहा गया है। भदोही के फैजरुल्ल इस्लाम इंटर कॉलेज पर आरोप है कि विद्यालय के पास मानक के अनुरूप भूमि नहीं है। इस बारे में विद्यालय तंत्र से आख्या मांगी गई है।