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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

झंडा का फंडाः कथित राष्ट्रवाद की दुकानदारी में हर साल खर्च होंगे 150 करोड़

दिल्ली स्थित गुमनाम वेंडर 'फास्ट ट्रैक इंजीनियरिंग' को टेंडर मिलने की संभावना। इसके मालिक की बीजेपी नेताओं से नजदीकियां होने की बात आ रही सामने।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

वाराणसी। कथित 'राष्ट्रवाद' की दुकानदारी में झंडे का फंडा भी खूब चल रहा है। सोशल प्लेटफॉर्म 'फेसबुक' पर मित्रों से मिली जानकारी की मानें तो केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति ईरानी के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में राष्ट्र ध्वज 'तिरंगा' लगवाने के निर्णय पर हर साल करीब 150 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। जबकि उनकी सरकार 'नान-नेट फेलोशिप' के तहत शोध करने वाले छात्रों पर हर साल आने वाले करीब 99.16 करोड़ रुपये के खर्च की योजना को चालू करने के लिए तैयार नहीं है।

जितेंद्र नारायण
भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत और बिहार के समस्तीपुर निवासी जितेंद्र नारायण ने फेसबुक पर स्टैटस अपडेट किया है कि मोदी सरकार देश के 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने में हर साल कुल 147.15 करोड़ रुपये खर्च करेगी। इन विश्वविद्यालयों में राष्ट्रध्वज फहराने के लिए आवश्यक झंडे और डंडे पर हर साल कुल 86 करोड़ रुपये खर्च आएगा जबकि उन्हें प्रकाशमान करने में हर साल कुल 61.15 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है। यहां यह बता दें कि इस समय देश में कुल 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। इस लिहाज से सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने का खर्च जितेंद्र नारायण के अनुमान से कहीं ज्यादा है। उन्होंने अपने स्टैटस में लिखा है कि केंद्र की मोदी सरकार 'नान-नेट फेलोशिप' के तहत शोध करने वाले छात्रों पर हर साल आने वाले करीब 99.16 करोड़ रुपये खर्च की योजना को चालू करने के लिए तैयार नहीं है।  

जितेंद्र नारायण के अनुमान और कथित राष्ट्रवादी फंडे (तिरंगा लगाने का धंधा) को और स्पष्ट करते हुए जेएनयू के पूर्व छात्र मयंक कुमार जायसवाल लिखते हैं कि आजकल 70 फीट से 207 फीट तक की ऊंचाई के तिरंगे फैशन में हैं। क़ीमत पचास लाख से लेकर डेढ़ करोड़ रुपये तक। इतनी ऊंचाई पर कपड़े का झंडा नहीं रुक सकता। सो, ढाई से पांच लाख रुपये का पैराशूट मैटेरियल का झंडा। इतने पर भी एक झंडे की उम्र तीन से लेकर पंद्रह दिन। अब चूंकि फ्लैग कोड कहता है कि ख़राब झंडा फहराना जुर्म है सो झंडे को औसतन पंद्रह दिन में बदला जाना ज़रूरी। यहां तक सब ठीक है। मगर मुद्दा ये है कि इतने सारे झंडे किसने लगाए और इनको मेंटेन कौन कर रहा है?

मयंक कुमार जायसवाल
मयंक इसकी विस्तृत पड़ताल करते हैं। उनकी यह पड़ताल उनके ही शब्दों में नीचे दी जा रही है-
दिल्ली का एक गुमनाम सा वैंडर है 'फास्ट ट्रैक इंजीनियरिंग'। एक जैन साहब इसके सर्वेसर्वा हैं। देश भर में ये फर्म क़रीब डेढ़ सौ झंडे लगा चुकी है। पहला झंडा कनॉट प्लेस में नवीन जिंदल की फ्लैग फाउंडेशन ने लगवाया। इसके बाद देश के तमान नगर निगम, राज्य सरकारें और निजी व्यवसायी इसे लगवा चुके हैं। ताज़ा फरमान विश्वविद्यालयों में लगवाने के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्री का है। इस से पहले बीजेपी सांसदों को बुलाकर फरमान सुनाया गया था कि वो सांसद निधि से ये झंडे लगवाएं सो एक मेरे संसदीय क्षेत्र अमरोहा में भी तन गया। कई प्राईवेट कॉलेजों पर भी ये झंडा लगवाने का दबाव है।

सरकारी धन से लग रहे झंडों पर तो लोग कुछ नहीं कहते मगर प्राईवेट वालों के लिए परेशानी है। इस तो सबको एक ही वैंडर से लगवाना है जो केंद्र सरकार का ख़ास है... उसके लिए मुंह मांगी क़ीमत भी दो और सालाना मेटिनेंस का क़रार भी करो। अगर हर पंद्रह दिन में झंडा ख़राब हो रहा है तो साल भर में सिर्फ झंडा बदलवाई ही साठ लाख रुपये है ऊपर से दो आदमियों की तनख़्वाह अलग। लगवाते वक्त एकमुश्त भुगतान तो वाजिब है ही।


नगर निगमों के पास अपने कर्मियों को तनख्वाह देने के पैसे नहीं हैं मगर सालाना का एक करोड़ का ख़र्च सरकार ने फिक्स करा दिया है। अब ये मत पूछना कि इस में कितना राष्ट्रवाद है और कितना व्यापार। बस पता कीजिए सज्जन जिंदल का सरकार से क्या रिश्ता है और उनकी पाईप बनाने की फैक्ट्री का इन झंडों से क्या लेना देना है? बाक़ी सांसद निधि, नगर निकायों के धन से आपका हो न हो छद्म राष्ट्रीयता और पूंजीवाद का विकास तो हो ही रहा है। सरकारें ऐसे ही चलती हैं। बाक़ी मेक्यावेली चचा काफी कुछ समझा गए हैं। तो ज़ोर से मेरे साथ नारा लगाइए...जय हिंद...जय राष्ट्रवाद...वंदे मातरम्...वंदे पूंजीवादी पितरमम्...।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

JNU: विश्वविद्यालयों से पहले संघ मुख्यालयों में तिरंगा लगवाए केंद्र सरकारः रिहाई मंच

'उमर खालिद को बतौर आतंकवादी प्रचारित करने की साजिश में संलिप्त हैं खुफिया एजेंसियां'

वनांचल न्यूज नेटवर्क

लखनऊ। बेगुनाहों की रिहाई और जनमुद्दों पर बेबाक आवाज बुलंद करने वाले संगठन 'रिहाई मंच' ने कहा है कि भाजपा की अगुआई वाली केंद्र की राजग सरकार देश के विश्वविद्यालयों में तिरंगा लगाने से पहले संघ मुख्यलायों में तिरंगा लगवाये। साथ ही वह संघ परिवार के दफ्तर से सावरकर और गोलवरकर जैसे देशद्रोहियों की तस्वीर हटवाए जिन्होंने न केवल अंग्रेजों से माफी मांगी थी बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र भी रचा था। मंच ने आरोप लगाया गया है कि गोडसे ने गांधी जी की हत्या के प्रयासों में जिस तरह नकली दाढ़ी, टोपी और पठानी सूट पहनी थी, ठीक उसी तरह जेएनयू में एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाया। इसके सुबूत वीडियो के रूप में सोशल साइटों पर वायरल हो चुके हैं। इसके बावजूद पुलिस उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही। मंच ने यह भी मांग किया कि जेएनयू प्रकरण पर वामपंथियों की आलोचना करने वाले मंत्री किरन रिजुजू पहले 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाने वाले सावरकर के शिशुओं पर कार्रवाई करें। जेएनयू प्रकरण में मीडिया के एक हिस्से द्वारा शोधार्थी उमर खालिद को आतंकवाद से जोड़ने पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए मंच ने कहा कि खालिद के मुस्लिम होने के चलते उसके नाम पर अफवाहों को फैलाया जा रहा है। इसमें केन्द्र की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां संलिप्त हैं।

रिहाई मंच की ओर से जारी बयान में प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने कहा, पहले कहा गया कि जेएनयू के छात्र पाकिस्तान समर्थक और देशद्रोही हैं। अब कहा जा रहा है कि नक्सल समर्थक छात्र संगठन डीएसयू के नेताओं ने नारे लगाए। यह मोदी और संघ परिवार के खिलाफ उभरते राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन को भ्रम और अफवाह के जरिए साम्प्रदायिक रंग देकर तोड़ने की कोशिश है। जिस तरह से डीएसयू को इसके लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है वह संघी साजिश और मीडिया के वैचारिक दिवालिएपन का सुबूत है। वामपंथी संगठन अन्तर्राष्ट्रीयतावाद में विश्वास करते हैं। उनके लिए किसी देश का जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाना कोई एजेंडा नहीं होता। उन्होंने मांग की कि इस मुद्दे में जिन जेएनयू के छात्रों को फरार बताया जा रहा है उनकी सुरक्षा की गारंटी की जाए। इसके लिए देश का सर्वोच्च न्यायालय संज्ञान में लेकर उन छात्रों को इंसाफ देने की अपील करे जिससे देश निर्माण के प्रति संकल्पित वो छात्र जो संघी आतंकवाद के खौफ के चलते अपने परिवारों से दूर हो गए हैं वह वापस आ सके। मंच ने कहा है कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाला पूरा समाज इन छात्रों के परिवार के साथ खड़ा है।

शाहनवाज आलम ने कहा कि जिस तरह से उमर खालिद के पिता वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक-राजनीतिक कासिम रसूल इलियास का बयान आया कि सिर्फ मुस्लिम होने के नाते या फिर उनके पूर्व में सिमी से जुड़े होने के चलते उनके बेटे को इस घटना के लिए दोषी बताया जा रहा है वह इस लोकतांत्रिक देश में बहुत दुखद है। इस लोकतंत्र में एक व्यक्ति को जब यह कहना पड़ जाए के उसके मुस्लिम होने के चलते उसके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है तो इससे बद्तर कुछ नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि पोलिटिकल प्रिजनर्स कमेटी से जुड़े प्रो0 एसएआर गिलानी को जिस तरह से मीडिया देशद्रोही बता रहा है वह साबित करता है कि ऐसा खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के इशारे पर किया जा रहा है। क्योंकि उनका संगठन नक्सलवाद और आतंकवाद के नाम पर इन एजेंसियों द्वारा फंसाए जाने वाले बेगुनाहों को छुड़ा कर उनके मुंह पर तमाचा मारता रहता है। रिहाई मंच नेता ने कहा कि ऐसे ही संगठनों के प्रयासों से न्याय व्यवस्था की कुछ गरिमा बची हुई है। 

रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने कहा कि जेएनयू प्रकरण पर यूपी के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का यह कहना कि देश में न जाने किस-किस मुद्दे पर बहस चल रही है, संस्थान चर्चा में व्यस्त हैं और वो उत्तर प्रदेश के विकास पर केन्द्रित हैं यह गैर जिम्मेदाराना और बचकाना बयान है। ठीक यही भाषा मोदी की भी है जब गुजरात दंगों का सवाल उठता है तो वो विकास का भोंपू बजाने लगते हैं। उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद को तोड़ने आए संघीयों पर गोली चलवाने के लिए माफी मांगने वाले मुलायम सिंह को इस मसले पर अपनी राय रखनी चाहिए कि वे अफजल गुरू की फांसी को सही मानते हैं या गलत। 

उन्होंने कहा कि गृह राजमंत्री किरन रिजुजू जो कि जेएनयू प्रकरण के लिए वामपंथियों को दोषी ठहरा रहे हैं उन्हें अपने छात्र संगठन एबीवीपी के उन कार्यकर्ताओं जिन्होंने अपने ही संगठन की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए एबीवीपी से इस्तीफा दे दिया है, पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सपा सरकार ने अपने प्रयास से जिस तरह वयोवृद्ध खालिस्तानी नेता 70 वर्षीय बारियाम सिंह को रिहा किया वह स्वागतयोग्य है लेकिन सवाल उठता है कि आखिर आतंकवाद के नाम पर फंसाए गए मुस्लिम नौजवानों को सरकार क्यों जेलों में सड़ाने पर तुली है। जबकि उनको छोडने का वादा सपा ने अपने घोषणापत्र में किया था।

राजीव यादव ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर बस्सी जो पहले कन्हैया द्वारा देशद्रोही नारे लगाने के सबूतों के होने की बात कह रहे थे और अब किसी सुबूत के होने से ही इंनकार कर चुके हैं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि झूठे बयान देकर समाज में अराजकता फैलाने के आरोप में उनके खिलाफ कानूनी कार्रवई की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि बस्सी ने जिस तरह खुल कर संघ और भाजपा के गंुडों को बचाया है, वांछित आरोपी वकीलों को गिरफ्तार करने के बजाए उन्हें साम्प्रदायिक वकीलाकें के गिरोहों द्वारा सम्मानित किए जाने के खुला छोड़ दिया उससे पूरी पुलिस व्यवस्था ही अपमानित हुई है। 

रिहाई मंच कार्यकारिणी सदस्य अनिल यादव और लक्ष्मण प्रसाद ने कहा कि कोर्ट परिसर में जिस तरह से हमले हुए हैं वह दिल्ली पुलिस की सोची समझी साजिश का नतीजा है जिससे कि मुकदमों न लड़ा जा सके। उन्होंने बताया कि ठीक इसी तरह 2008 में आतंकवाद का मुकदमा लड़ने वाले रिहाई मंच अध्यक्ष एडवोकेट मुहम्मद शुएब व उनके मुवक्किलों पर लखनऊ कोर्ट परिसर में हमला किया गया और मुहम्मद शुऐब के कपड़े फाड़ अर्धनग्न अवस्था में चूना-कालिख पोत घुमाया गया और उल्टे उनके ऊपर ही पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाने का आरोप लगाया गया था। यह हमले लगातार हुए और शाहिद आजमी की भी इन्हीं खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों ने ऐसे मुकदमें लड़ने की वजह से हत्या करवा दी। उन्होंने कहा कि यह मुल्क के आईन को बचाने की लड़ाई हैं जिसे शहादत देकर भी लड़ा जाएगा।

(प्रेस विज्ञप्ति)

शनिवार, 23 जनवरी 2016

ROHIT VEMULA: विरोध के स्वर को मिला देशव्यापी समर्थन, प्रदर्शन जारी


बंडारू दत्तात्रेय, पी. अप्पा राव, स्मृति इरानी को उनके पदों से बर्खास्त करने की मांग हुई तेज।

वनांचल न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली/इलाहाबाद। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी रोहित वेमुला की खुदकुशी को लेकर केंद्र की मोदी सरकार के दो मंत्रियों और विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ आज भी देश के विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शन हुआ। लोगों ने विश्वविद्यालय के कुलपति, केंद्रीय श्रम राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति इरानी को उनके पदों से बर्खास्त करने की मांग की। साथ ही रोहित की खुदकुशी के मामले में आरोपी लोगों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए। उधर केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने रोहित के परिजनों को आठ लाख रुपये का मुआवजा देने और पूरे मामले की न्यायिक जांच कराने का निर्देश दिया है। हैदराबाद, दिल्ली, लखनऊ, दिल्ली, पूणे, मुंबई, इलाहाबाद, वाराणसी, आदि शहरों में शनिवार को भी जबरदस्त प्रदर्शन हुए।

हैदराबाद में रोहित वेमुला के साथ निकाले गए छात्रों समेत करीब सैकड़ों लोगों ने विश्वविद्यालय परिसर में विरोध प्रदर्शन किया। कई छात्र अभी भी अनशन पर बैठे हुए हैं। दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किये गए। शुक्रवार को जेएनयू में भी प्रदर्शन हुए थे। वहीं इलाहाबाद में आज छात्र युवा, बुद्धिजीवी, पत्रकार, मजदूर, किसान सब एक साथ सड़क पर निकले। इस दौरान एक प्रतिरोध मार्च निकाला गया जो पीडी टंडन पार्क से सुभाष बोस चौराहे पर जाकर एक सभा में तब्दील हो गया। इनमें जिया उल हक़, रवि किरण जैन, लेखक दूध नाथ सिंह, प्रलेस अध्यक्ष प्रो. संतोष भदौरिया, प्रो. अली अहमद फातमी, डा. उर्मिला जैन, प्रो. अनिता गोपेश, के.के. पांडे, जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. प्रणय कृष्ण, सुरेन्द्र राही, खुर्शीद नकवी, डा. अशफाक हुसैन, डा. फखरुल करीम, इलाहाबाद विवि छात्र संघ अध्यक्ष ऋचा सिंह, असरार गाँधी, रणविजय सिंह सत्यकेतु, डा. अनिल पुष्कर, डा. शमेनाज़, डा. अंशुमान , रोजी रोटी बचाओ संघर्ष मोर्चा से अनु सिंह गीता, बृजेश ,आरती, सीमा आज़ाद ,रश्मि मालवीय, अविनाश मिश्र, शहनाज़, उत्पला, ऋतेश, छात्रसंघ की पूर्व उपाध्यक्ष शालू यादव, केके त्रिपाठी, मीना राय, नीलम शंकर , अमृता सिंह  आदि मौजूद रहे।  

गौरतलब है कि पिछले साल अगस्त में रोहित सहित पांच दलित छात्रों को एबीवीपी के कार्यकर्ताओं से झड़प के बाद निलंबित कर दिया गया था। यह सब दिल्ली विश्वविद्यालय में 'मुजफ्फरनगर बाकी है' वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग पर एबीवीपी के हमले के बाद शुरू हुआ था। दलित छात्रों ने एबीवीपी के इस कदम की निंदा करते हुए इसके विरोध में कैम्पस में प्रदर्शन किया था। इसके बाद इन छात्रों को हॉस्टल से दिसंबर में निकाल दिया गया। गत रविवार को इनमें से एक रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली थी। इसे लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में छात्र संगठनों समेत अन्य लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया।

विश्वविद्यालय के एक दर्जन से ज्यादा दलित फैकल्टी ने आज केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री स्मृति ईरानी के बयान को लेकर सभी प्रशासनिक पदों से इस्तीफा दे दिया। इनमें मुख्य चिकित्साधिकारी कैप्टन रविंद्र कुमर, परीक्षा नियंत्रक प्रो. वी. कृष्णा, मुख्य वार्डन डॉ. जी. नागाराजू और एक दर्जन अन्य फैकल्टी सदस्य शामिल हैं। इससे विश्वविद्यालय और दबाव में आ गया और उसने जल्द ही कार्यकारी परिषद की बैठक बुलाई। इसमें खुदकुशी करने वाले शोधार्थी रोहित वेमुला के चार साथियों का निलंबन वापस लेने का निर्णय लिया गया।  

रविवार, 9 अगस्त 2015

समस्याओं के समाधान के बिना मूलवासियों का भविष्य सुरक्षित नहीं

विश्व मूलवासी दिवस (9 अगस्त) पर विशेष
विश्व की कुल जनसंख्या करीब 6 अरब में से 3 अरब 70 करोड़ मूलवासी हैं, जो करीब 70 देशों में रह रहे हैं... भारत में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार करीब आठ करोड़ चालीस लाख लोगों को मूलवासियों के रूप में चिन्हित किया गया है...

हरि राम मीणा

मूलवासी’ (इण्डीजीनिस) शब्द को परिभाषित करना अत्यधिक कठिन है। इस शब्द पर चर्चा करने के साथ-साथ आदिवासी (ट्राईब) देसी (नेटिव) एवं आदिम (अबोरिजनल) जैसे शब्दों की अवधारणाएं सामने आती हैं। वर्ष 1987 में ग्रेलर ने मूलवासी की व्याख्या करते हुए कहा कि यह ‘राजनैतिक दृष्टि से अधिकार-विहीन लोगों के ऐसे समुदाय हैं जो अपनी विशिष्ट नस्लगत पहचान बनाये रखते हैं और आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा के मूर्तरूप लेने के बावजूद अलग ईकाई के रूप में समाज का हिस्सा बनकर चलते हैं। 

इससे पूर्व वर्ष 1972 में मूलवासी-जन के लिये गठित संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य समूह ने जोस माल्टीनेज कोज की परिभाषा से सहमति प्रकट करते हुए ’किसी भू-भाग पर विष्व के अन्य हिस्सों से आने वाले बाहरी मानव समूहों से पहिले वहां प्राचीन काल से रहने वाले लोगों के वंशज' के रूप में मूलवासी की पहचान की है। इस प्रक्रिया में बाहरी घुसपैठियों द्वारा आक्रमण एवं उस भू-भाग पर अधिकार करने तथा मूलवासियों को दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश किया गया। परिणास्वरूप वर्चस्वकारी व्यवस्था में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाने लगा और यहीं से विश्व की सबसे बड़ी समस्या नस्ल पर आधारित भेदभाव तथा मूलवासियों से सम्बन्धित अन्य मुद्दे सामने आये।

वर्ष 1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ के स्तर पर ’मूलवासी’ शब्द की व्याख्या करते हुए माना कि ’किसी भू-भाग पर प्राचीन काल से रहने वाले मानव समुदाय के वंशज हैं जो नस्ल एवं संस्कृति के स्तर पर विशिष्टता रखते हों । इनमें से काफी लोग राष्ट्र-समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग अपने पुरखों की परम्परा एवं रीति रिवाजों का संरक्षण करते हुए जीवन जीते चले आ रहे हैं और विकसित राष्ट्रीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को ये लोग बाहरी (एलियन) मानते हैं।’ कुल मिलाकर ’’किसी भू-भाग के ज्ञात प्राचीनतम निवासियों’’ को मूलवासी कहना उचित होगा।

भौगोलिक दृष्टिकोण से आस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूलवासियों को आदिम (अबोरिजनल) और शेष दुनिया के मूलवासियों को ’इण्डीजीनस’ कहा जाता है। आदिम शब्द में मौलिकता जैसे सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक तत्व का तथा मूलवासी (इण्डीजीनस) में भू-भाग विशेष में जीवन जीते रहने का भाव संकेतित होता है। आदिवासी समुदाय आदिम एवं मूलवासी समाज का वह हिस्सा है जो अभी भी मुख्य समाज से अलग-थलग प्रमुख रूप से प्रकृति पर आधारित जीवन जीता आ रहा है और प्राचीनता एवं नैसर्गिकता के सन्दर्भ में आदिम सरोकारों का कमोबेश संरक्षण किये हुए है। 

सामान्य तौर पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मूलवासी किसी भूखंड पर निर्विवाद रूप से लम्बे समय से वंषानुगत क्रम में निवास करने वाले ऐसे जन हैं जिनका नस्ल विशेष से गहरा संबंध होता है। यहां नस्ल, भू-भाग एवं प्राचीनता महत्वपूर्ण शब्द हैं। आधुनिक राष्ट्र- समाज एवं सरकारों के उद्भव के साथ अपनी स्वतन्त्र ईकाई के सन्दर्भ में ऐसे मूलवासी समुदाय राजनीति के स्तर पर अपने अस्तित्व एवं अधिकारों के लिये एक विषिष्ट पहचान बनाने की प्रक्रिया से गुजरते आये हैं। काल-खण्डानुक्रम की दृष्टि से प्राचीन काल, उपनिवेषवाद काल एवं आधुनिक काल के संदर्भ में इनकी अस्मिता, पराभव एवं पुनरूत्थान की प्रक्रिया को समझना आसान होगा। इस प्रक्रिया में होने वाले नस्ल परिवर्तन, सांस्कृतिक प्रदूषण, भाषागत अन्र्तक्रिया, मूल्यगत हृास की दृष्टि से परम्परा एवं आधुनिकता का अन्तर्संघर्ष, अन्तविर्रोध, अन्तक्र्रिया, परस्पर प्रभाव जैसी प्रमुख स्थितियां उभर कर सामने आती हैं । इस क्रम में भू-भाग विषेष महत्वपूर्ण तत्व न रहकर मानव समूहों के बिखराव एवं विस्थापन की स्थिति सामने आती है। यहां वनांचल से मुख्य भूमि, गावों से शहर और परम्परागत समाज से आधुनिक समाज की ओर अग्रसर होने की स्वाभाविकता या विवषता भी महत्वपूर्ण बन जाती है। निश्चित रूप से इतिहास एवं संस्कृति जैसे प्रमुख क्षेत्र प्रभावित होते हैं और प्राचीन ऐतिहासिकता एवं मौलिक संस्कृति के संरक्षण के प्रश्न सामने आते हैं।

विश्व मूलवासी अध्ययन केन्द्र की स्थापना वर्ष 1984 में डा0 रूडोल्फ सी0 रायसर एवं जार्ज मेनुअल ने एक स्वतंत्र शोध एवं शैक्षिक संगठन के रूप में की। जार्ज मेनुअल राष्ट्रीय भारत मैत्री संगठन (कनाडा) के पूर्व अध्यक्ष थे जिन्होंने उपनिवेषवाद से उबरे मूलवासियों के लिये कार्य किया। उन्होंने ही संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बन्धित मूलवासियों की विष्व परिषद के गठन में महत्पूर्ण योगदान दिया।

उल्लेखनीय है कि विश्व की कुल जनसंख्या करीब 6 अरब में से 3 अरब 70 करोड़ मूलवासी हैं, जो करीब 70 देशों में रह रहे हैं। भारत राष्ट्र के सन्दर्भ में मूलवासी श्रेणी में ही आदिवासियों को माना गया है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार करीब आठ करोड़ चालीस लाख लोगों को मूलवासियों के रूप में चिन्हित किया गया है। इनके कुल 461 समूह माने गये हैं। स्वतन्त्र शोध निष्कर्षो के अनुसार ऐसे कुल 635 आदिवासी घटक हैं जिनमें प्रमुख गोण्ड़, सन्थाल, उरांव, भील व नागा आदि हैं। जनगणना के मुताबिक 461 चिन्हित आदिवासी घटकों में से 220 उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहते हैं, जो कुल आदिवासियों का 12 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे मध्य भारत में कुल आदिवासियों की करीब 50 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। ये आंकडे संविधान की सूचि में शामिल आदिम समुदायों के हैं. इनके अलावा नृतत्वविज्ञान की दृष्टि से अन्य आदिम समूह भी हैं जिनमें अपरिगणित, घुमंतू व अर्द्धघुमंतू हैं. इन चारों श्रेणियों को मिलकर हमारे अध्ययन के अनुसार कुल 1048 आदिम समुदाय भारत में हैं. ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार किया जाये और आर्य-अनार्य संग्राम-शृंखला के सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है तो आदिवासी समाज के साथ दलित(अनुसूचित जाति) जनसंख्या भी मूलवासी की श्रेणी में आती है और साथ ही द्रविड़ मूल के अन्य घटक भी। 

वैश्विक मूलवासियों पर जब चर्चा की जाती है तो विश्व के सभी महाद्वीप विमर्श के केन्द्र में आते हैं। मूलवासियों की जनसंख्या अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, एशिया, यूरोप आदि सभी महाद्वीपों से गहरा संबंध रखती आई हैं चाहे समस्या उत्तरी अमेरिका के रेड इंडियनस् की हो या दक्षिणी अमेरिका के ’बुश नीग्रो’ की हो या अफ्रीका के सांन की हो या मैक्सिको के माया लोगों की हो या न्यूजीलैंड के मोरानी की हो या आस्ट्रेलिया के कुरी, नुनगा, टीवी की हो या यूरोप के खिनालुग, कोमी, सामी की हो अथवा एषिया के अडंमान टापू के सेंटेनलीज या जारवा की हो।

मूलवासियों को सर्वाधिक त्रासदी का सामना उपनिवेष-काल के दौर में करना पड़ा था जो पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होकर बीसवीं सदी के मध्य पार तक चला। नव साम्राज्यवाद एवं वैष्वीकरण के इस दौर में मूलवासियों की समस्याओं के और अधिक पेचीदा बनने की संभावनाएं सामने हैं। वे उच्च तकनीकी, बाजारवाद एवं पूंजी की वर्तमान भूमिका से सर्वथा अपरिचित हैं। मूलवासियों का विष्व-समाज आधुनिक प्रगतिशील जगत से स्वयं को पृथक व पिछड़ा हुआ महसूस करता है और है भी। 

अन्तर्राष्ट्रीय मूलवासी दिवस के रूप में नौ अगस्त को मनाने की पृष्ठभूमि यह है कि वर्ष 1982 में इसी तारीख को संयुक्त राष्ट्र संघ के मूलवासी लोगों के कार्यसमूह की प्रथम बैठक सम्पन्न हुई थी। तद्नुसार संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा की दिनांक 23 दिसम्बर 1994 को हुई बैठक में इस तिथि को ’अन्तराष्ट्रीय मूलवासी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। विश्व के मूलवासियों के उत्थान के लिये वर्ष 1995 से 2004 तक की अवधि को ’प्रथम मूलवासी दशक’ एवं वर्ष 2005 से 2014 तक की अवधि को ’द्वितीय मूलवासी दशक’ के रूप में मनाये जाने का संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में घोषणा की गई।

मूलवासियों के प्रति सामान्यीकृत दृष्टिकोण विरोधाभाषी रहे हैं। मूलवासियों के समर्थक उनके इतिहास एवं संस्कृति को विश्व धरोहर तथा प्रकृति के साथ बेहतरीन सामंजस्य से आपूरित जीवन शैली एवं संस्कृति के रूप में देखते हैं, वहीं दूसरा दृष्टिकोण मूलवासियों को आदिम, असभ्य, जंगली एवं अविकसित श्रेणी का मानता है।
वर्तमान काल में मूलवासियों से संबंधित समस्याएं विश्व के सामने महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं जिनमें नस्लभेद, रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं, विस्थापन, संस्कृति का संरक्षण, पहचान का संकट एवं मानवाधिकारों के संरक्षण आदि शामिल हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में आदिवासी आबादी की आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी के स्तर से नीचे का जीवन जीने को विवश है जबकि गरीबी की रेखा से नीचे जीने वाले भारत की कुल आबादी का करीब तिहाई अंश है । शेष विश्व के मूलवासियों की भौतिक दशा भी कमोबेश ऐसी ही है। इन समस्याओं के समाधान के बिना मूलवासियों का भविष्य सुरक्षित नहीं है, जो विश्व मानवता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
(लेखक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी और विभिन्न विश्वविद्यालयों में  विजिटिंग प्रोफ़ेसर  हैं।)