बुधवार, 8 जुलाई 2020

OBC आरक्षण को आय आधारित आरक्षण बनाने पर क्यों तुली है BJP की केंद्र सरकार?

मोदी सरकार 2017 में अन्य पिछड़ा वर्ग के कल्याण के बहाने लोकसभा सांसद गणेश सिंह की अध्यक्षता में गठित संसदीय समिति की अनुशंसा के खिलाफ जाते हुए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की आपत्ति के बावजूद बी.पी. शर्मा समिति की अनुशंसा को लागू करने की जल्दबाजी में क्यों हैं?

written by संतोष कुमार यादव

8 मार्च 2019 को केन्द्र सरकार द्वारा गठित चार सदस्यीय कमिटी- जिसके अध्यक्ष डीओपीटी के पूर्व सचिव बी.पी. शर्मा बनाये गये- ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी जिसके अनुसार अन्य पिछड़ा वर्ग के क्रीमी लेयर की आधार वार्षिक आय में वेतन से प्राप्त आय और कृषि से प्राप्त आय को जोड़ने का प्रस्ताव है, जो ओबीसी वर्ग के लिए घातक सिद्ध होगा।

सनद रहे कि इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था की थी जो सामाजिक न्याय की मूल भावना के विरुद्ध है,  जिसको मानने के लिए हम बाध्य हैं लेकिन इस निर्णय का सम्मान नही किया जा सकता। स्टेट ऑफ़ मद्रास बनाम चंपकम दोरईराजन (1951) केस के ऐसे ही निर्णय के बारे में बाबासाहब भीम राव अम्बेडकर ने कहा था कि इस निर्णय को हम मानने के लिए बाध्य हैं लेकिन सम्मान करने के लिए बाध्य नहीं।


इंदिरा साहनी केस के निर्णय के बाद एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया, जिससे यह राय मांगी गयी कि क्रीमी लेयर का निर्धारण कैसे किया जाय। इस समिति की अनुशंसा पर 1993 में डीओपीटी द्वारा एक ऑफिस मेमोरेंडम जारी हुआ जिसमें वार्षिक आय के अनुसार क्रीमी लेयर और नॉन क्रीमी लेयर का वर्गीकरण किया गया। इसमें 6 कैटेगरी बनायी गयी और सुनिश्चित किया गया कि कौन-कौन क्रीमी लेयर में आएगा।


8 सितंबर 1993 के ऑफिस मेमोरेंडम में दो बातें बिल्कुल स्पष्ट थीं- पहली बात, वार्षिक आय की गणना में “वेतन से हुई आय” और “उपजाऊ जमीन से हुई आय” को नहीं जोड़ा जाएगा; दूसरी जरूरी बात यह थी कि हर 3 साल के अंतराल पर रुपये के मूल्य को ध्यान में रख कर क्रीमी लेयर के लिए आय की सीमा निर्धारित की जाएगी। ये दोनों बातें 1993 के ऑफिस मेमोरेंडम के छठे कैटेगरी की व्याख्या (एक्सप्लेनेशन) में दी गयी हैं। 1993 से लेकर अब तक सिर्फ़ चार बार ही वार्षिक आय की सीमा पुनर्निर्धारित हुई है- 2004 में 2.5 लाख,  2008 में 4.5 लाख,  2013 में 6 लाख और 2017 में 8 लाख, जो अभी तक कायम है जबकि देखा जाए तो 1993 से लेकर आज 2020 तक कम से कम 8 बार पुनर्निर्धारण होना चाहिए था।
OBC Non-Creamy-layer Order

इस पर कभी ध्यान नही दिया गया। सामाजिक न्याय के मामलों में हर सरकार का यही रवैया रहा है। तीसरी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है कि बिना मूल भावना में छेड़छाड़ के इसी तरह का वर्गीकरण सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम, बैंक, बीमा कंपनियों, विश्वविद्यालय में कार्यरत कर्मचारियों के लिए किया जाएगा। अतः उनको भी ग्रुप A, B, C, D में बाँट कर उनके बच्चों का हित सुनिश्चित किया जाए, लेकिन सरकारों की मंशा इस विषय पर साफ नहीं रही और आज तक यह समतुल्यता (equivalence) स्थापित नहीं हो पायी है जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत ग्रुप B, C, D कर्मचारियों का वेतन उनकी वार्षिक आय में जोड़ा जाता रहा है  जिसके परिणामस्वरूप उनके बच्चे आरक्षण के लाभ से वंचित हो जाते हैं।


सांसद गणेश सिंह की अध्यक्षता में संसदीय समिति ने समतुल्यता के मामले को हल करने की कोशिश की, वेतन और कृषि आय को वार्षिक आय में न जोड़ने की सिफारिश की, साथ ही क्रीमी लेयर को 8 लाख से बढ़ा कर 15 लाख करने की सिफारिश की है। जैसे 1993 के ऑफिस मेमोरेंडम में  क्रीमी लेयर और नॉन क्रीमी लेयर के वर्गीकरण के लिए सरकारी कर्मचारियों के ग्रेड को आधार बनाया गया। इस मेमोरेंडम के तहत ग्रुप A  कर्मियों के बच्चो को स्वतः क्रीमी लेयर के अंतर्गत मान लिया गया जबकि ग्रुप B के कर्मचारियों के लिए कुछ मानक तय किये गये, कि अगर वे 40 साल उम्र के पहले ग्रुप A में प्रोन्नति कर गए हों तभी उनके बच्चो को क्रीमी लेयर के अंतर्गत माना जायेगा, 40 साल उम्र के बाद प्रोन्नति करने वाले कर्मचारियों के बच्चे क्रीमी लेयर के बाहर होंगे और उनका कास्ट सर्टिफिकेट बन सकता है।

ग्रुप C और D के कर्मचारियों को स्वतः क्रीमी लेयर से बाहर मान लिया गया, अतः उनके बच्चों को आरक्षण का लाभ मिलेगा। चाहे उनका वेतन सालाना आठ लाख से ज्यादा हो तब भी उनके बच्चों के स्टेटस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और वह क्रीमी लेयर में नहीं आएगा। संसदीय समिति ने इसी वर्गीकरण का विस्तार समतुल्यता के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम,  बैंक, बीमा सेक्टर, यूनिवर्सिटी, राज्य पोषित शिक्षण संस्थानों में करने की मंशा ज़ाहिर की थी लेकिन यह आज तक संभव नहीं हो पाया।

जैसी सुगबुगाहट है कि संसदीय समिति की अनुशंसा को दरकिनार करके सरकार बीपी शर्मा समिति को लागू करने का मन बना चुकी है,  जिसके अनुसार वेतन से प्राप्त आय को वार्षिक आय में जोड़ने की बात की गयी है, अगर सरकार इसको मान लेती है, जिसका अंदेशा भी है तो ओबीसी के बहुत बड़े तबके को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।

अब अगर केंद्रीय और राज्य सरकार के कर्मचारियों का वेतन उनके वार्षिक आय में जोड़ा जाएगा और इसको आधार मानकर क्रीमी लेयर तय किया जाएगा तो यकीन मानिए B,  C और D ग्रुप के कर्मचारियों के बच्चे बड़े आराम से क्रीमी लेयर में आ जाएंगे। प्राइमरी के शिक्षक का बच्चा शायद ही आरक्षण का लाभ प्राप्त कर पाए।

18 मार्च को राज्यसभा में बोलते हुए एआइएडीएम की सांसद विजिला सत्यानंद ने यह चिंता ज़ाहिर की और यह अंदेशा व्यक्त किया कि सरकार गणेश सिंह की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति को दरकिनार करके वेतन से हुई आय को वार्षिक आय में जोड़ने की क़वायद में लगी हुई है।

सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सितंबर 2018 में कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समृद्ध लोग यानी कि क्रीमी लेयर को कॉलेज में दाखिले तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि एससी/एसटी समुदाय के क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभों से बाहर रखने वाले 2018 के उसके आदेश को पुनर्विचार के लिए सात सदस्यीय पीठ के पास भेजा जाए। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किस तरह सत्ता में बैठा अभिजात्य वर्ग इस ताक में है कि आरक्षण को खत्म किया जाए। अगर बीपी शर्मा समिति की अनुशंसा को सरकार ने मान लिया जिसकी पूरी गुंजाइश है तो ओबीसी आरक्षण पर सबसे बड़ा कुठाराघात होगा। अगला हमला एससी, एसटी के आरक्षण पर होगा जिसपर भारत के न्यायालय की मंशा पहले से जगजाहिर है।

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध सत्यवती कॉलेज में इतिहास के असिस्टन्ट प्रोफेसर हैं। उनका यह लेख मूलरूप से जनपथ पर प्रकाशित है। बतौर साभार यहां यह प्रकाशित किया गया है।)

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